जो आपने भली प्रकार प्रासादोंका क्रम कहा वह सुना. अब वास्तुदेहके लक्षणको सुना चाहते हैं ॥१॥
पहिले भगवान वास्तुपुरुष आपने कहा और पूर्वोत्तरमुख वास्तुपुरुषकी रचना आपने कही ॥२॥
इन्द्र आदि देवताओंने उस कालमें भूमिमें पतन किया और वह नीचेको मुख किये गिरा और ईशानदिशामें स्थितहुआ ॥३॥
उसके शिरभागमें अग्नि स्थित है मुखमें जल स्तनमें यम उत्तरभागमें स्थित आपवत्स वामस्तनमें स्थित रहताहै ॥४॥
पर्जन्य आदि देवता नासिका नेत्र कर्ण उर:स्थल और स्कन्धोंमें स्थित रहते हैं और सप्त आदि पांच पुरुषोत्तमकी भुजामें स्थित करे और हस्तमें सूर्य सावित्री इनका हाथमें वितथ और गृहक्षत ॥५॥
इनका पार्श्वमें और जठर ( पेठ ) चारों तरफ़ विवस्वान स्थित रहताहै और ऊरु ( जंघा ) जानु स्फ़िक ये यमदिशा आदिसे स्थित रहते हैं ये दक्षिणपार्श्व और वामपार्श्व दोनोंमे स्थित रहते है ॥६॥
शेष देवता और दण्ड जयन्त ये लिंगइद्रियमें स्थित रहते हैं और चरणोंमें पितरों सहित वास्तुपुरुष रहता है (४५) पैंतालीस कोष्ठ चारों तरफ़ ब्रम्हाके होते हैं ॥७॥
चौसष्ठ पदके वास्तुमें बम्हा आदिक देवता रहते है और उनके कोणमें तिरछे कोष्ठोंमें द्विज रहते हैं ॥८॥
ब्रम्हाने चौसष्ठ पदका वास्तु प्रासादमें कहा है ब्रम्हा वास्तुमें चतुष्पद कहा है और कोणके विषे आधे २ पद क हैं ॥९॥
सोलह कोणोंमें सार्द्व ( १॥ ) पद दोनों भागोंमें स्थित होते हैं और बीस दो दो पदके वास्तुमें कहे हैं ॥१०॥
जीर्णोंद्वारमें, उद्यानमें, गृहके प्रवेशमें, नवीन प्रासाच, प्रासादके परिवर्तन ( बनाना ) में ॥११॥
द्बारके बनवाने और प्रासाद गृहोंमें बुध्दिमान मनुष्य पहिलेही वास्तुशान्तिको करे ॥१२॥
वास्तुमण्डलके कोणोंमें ईशानदिशा आदिके प्रदक्षिणा क्रमसे शकुंओंका रोपण (रखना ) श्रेष्ठ होता है ॥१३॥
‘ नाग ’ भूतलके विषे प्रवेश करो और समस्त लोकपाल जो आयु और बलके करनेहारे हैं वे सदैव इस ग्रहके विष टिको’ इस मत्रंको पढकर वास्तुके कोणमें शंकुओंको रक्खे ॥१४॥
प्रासाद आराम वापी कूप उद्यानमें नामोच्चातणपूर्वक कोणोंमेम चार शकुंओंका स्थापन करे ॥१५॥
अग्नि सर्प और जो अन्य दिशामें देवता स्थित हैं उनके लिये पवित्र और उत्तम ओद्न्कीबलिकोदेताहुं ॥१६॥
सुवर्णकी रेखाओंसे वास्तुके विष ( ८१ ) इक्यासी पद करे फ़िर सूत्रको चारो तरफ़ रखकर चूनसे आलेखन करै ॥१७॥
दशरेखा पूर्वको लम्बी और दशरेखा उत्तरको लम्बी संपूर्णं वास्तुओंके विभागोंमें नौ ९ नवक जानने ॥१८॥
शान्ता यशोवती कांता विशाला प्राणवाहिनी सती नंदा सुभद्रा और सुस्थिता ॥१९॥
ये दश १० रेखा पूर्वपश्चिमके गर ( गई ) होती हैं और उत्तर और दक्षिणके आश्रित ये होती हैं हिरण्या सुव्रता लक्ष्मी विभूति विमली प्रिया ॥२०॥