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पुअव . स्वर्गांतील एक दहा देवतांचा समूह ; यांस श्राध्दप्रसंगीं अवाहन करतात . अश्विनौदेव विश्वेदेव विभवें । त्रायुही हे जी । - ज्ञा ११ . ३३२ . [ सं . ]
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विश्वेदेव n. एक यज्ञीय देवतासमूह, जिसे ऋग्वेद के चालीस से भी अधिक सूक्त समर्पित किये गये है ।
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विश्वेदेव n. विश्वेदेव का शब्दशः अर्थ अनेक देवता है । यह एक काल्पनिक यज्ञीय देवतासमूह है, जिसका मुख्य कार्य सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करना है, क्यों कि, यज्ञ में की गई स्तुति से कोई देवता छूट न जाय। वेदों के जिन मंत्रों में अनेक देवताओं का संबंध आता है, एवं किसी भी एक देवता का निश्र्चित रूप से उल्लेख नही होता है, वहाँ ‘विश्र्वेदेव’ का प्रयोग किया जाता है । भाषाशास्त्रीय दृष्टि से यह सामासिक शब्द नही है, बल्कि ‘विश्र्वे + देवाः’ ये दो शब्द मिल कर बना हुआ संयुक्त शब्द है । इसी कारण इसे ‘सर्वदेव’ नामांतर भी प्राप्त है । विश्र्वेदेवों से संबंधित सूक्तों में सभी श्रेष्ठ देवता एवं कनिष्ठ देवताओं की क्रमानुसार प्रशस्ति प्राप्त है । यज्ञ करानेवाले पुरोहितों को जिस समय समस्त देवतासमाज को आवाहन करना हो, उस समय वह आवाहन विश्र्वेदेवों के उद्देश्य कर किया गया प्रतीत होती है ।
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विश्वेदेव n. कई अभ्यासकों के अनुसार, ऋग्वेद में प्राप्त ‘आप्री सूक्त’ विश्र्वेदेवों को उद्देश्य कर ही लिखा गया है, जहॉं बारह निम्नलिखित देवताओं को आवाहन किया गया हैः---१. सुससिद्ध, २. तनुनपात्, ३. नराशंस, ४. इला, ५. बर्हि, ६. द्वार, ७. उषस् एवं रात्रि, ८. होतृ नामक दो अग्नि, ९. सरस्वती, इला एवं भारती (मही) आदि देवियाँ, १०. त्वष्ट्ट, ११. वनस्पति, १२. स्वाहा [ऋ. १.१३] । इस सूक्त में निर्दिष्ट ये बारह देवता एक ही अग्नि के विभिन्न रूप है । ऋग्वेद में प्राप्त विश्र्वेदेवों के अन्य सूक्तों में इस देवतासमूह में त्वष्ट्टृ, ऋभु, अग्नि, पर्जन्य, पूषन्, एवं वायु आदि देवता; बृहद्दिवा आदि देवियाँ, एवं अहिर्बुध्न्य आदि सर्प समाविष्ट किये गये है । ऋग्वेद में निर्दिष्ट ‘मरुद्गण’ ‘ऋभुगण’ आदि देवगणों जैसा ‘विश्र्वेदेव’ एक देवगण प्रतीत नहीं होता है । फिर भी कभी कभी इन्हें एक संकीर्ण समूह भी माना गया प्रतीत होता हे, क्यों कि, ‘वसु’ एवं ‘आदित्यों’ जैसे देवगणों के साथ इन्हें भी आवाहन किया गया है [ऋ. २.३.४] ।
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