शकुन्तला n. महर्षि कण्व की पोषित कन्या, जो दुष्यन्त राजा की धर्मपत्नी एवं भरत राजा की माता थी । यह एवं दुष्यन्त राजा कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के कारण अमर हो चुकी हैं।
शकुन्तला n. शतपथ ब्राह्मण में इसे एक अप्सरा कहा गया है, एवं इसके द्वारा ‘नाडपित्’ के तट पर भरत को जन्म दिये जाने को निर्देश प्राप्त है
[श. ब्रा. १३.५.४.१३] । इसी कारण इसे ‘नाडपिती’ अथवा ‘नाडपित’ दी जाती थी ।
शकुन्तला n. इस ग्रंथ में इसे विश्वामित्र एवं मेनका अप्सरा की कन्या कहा गया है । विश्वामित्र के तपःकाल में, उसका तपोभंग करने के लिए इंद्र के द्वारा मेनका भेजी गयी थी । उसी समय हिमालय पर्वत में मालिनी नदी के किनारे इसका जन्म हुआ था । इसका जन्म होते ही मेनका इसे पृथ्वी पर छोड़ कर चली गयी। तत्पश्चात् इसका लालनपालन शकुन्त पक्षियों ने किया, जिस कारण, इसे ‘शकुन्तला’ नाम प्राप्त हुआ
[म. आ. ६६. ११ -१४] ।
शकुन्तला n. तत्पश्चात् कण्व ऋषि ने इसे अपनी कन्या मान कर, अपने आश्रम में इसे पालपोस कर बड़ा किया । एक बार मृगया खेलता हुआ हस्तिनापुर का राजा दुष्यन्त कण्व ऋषि के दर्शनार्थ आश्रम में आया । उस समय कण्व ऋषि आश्रम में नही थे, जिस कारण इसकी एवं दुष्यन्त की भेट हुई, एवं कण्व ऋषि के द्वारा ज्ञात हुई अपनी जन्मकथा इसने उसे कह सुनायी । दुष्यन्त के द्वारा प्रेमदान माँगने पर इसने बताया कि, अपने पिता की संमति के बिना यह विवाह करना नहीं चाहती। उस समय दुष्यन्त ने इसे विवाह के आठ भेद बताये, एवं कहा कि, इन विवाहों में से गांधर्वविवाह पिता के संमति के बिना ही हो सकता है । उस समय यह इस शर्त पर विवाह के लिए तैयार हुई कि, इसका पुत्र हास्तिनापुर का सम्राट् बने । शकुन्तला की यह शर्त दुष्यन्त के द्वारा मान्य किये जाने पर, कण्व ऋषि के अनुपस्थिति में इसका दुष्यन्त से विवाह हुआ। विवाह के पश्चात्, हस्तिनापुर पहुँचते ही इसे दूत के द्वारा बुलाने का आश्वासन दे कर दुष्यन्त चला गया
[म. आ. ६७.२०] ।
शकुन्तला n. आश्रम आने पर कण्व ऋषि को सारी घटना ज्ञात हुई, एवं उसने प्रसन्न हो कर इसे शुभाशीर्वाद दिये । कालांतर में इसे एक परमतेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम ‘भरत’ अथवा ‘सर्वदमन’ रखा गया । काफ़ी दिन बीत जाने पर भी, दुष्यंत की ओर से कोई बुलावा नहीं आया । इस कारण भरत के जातकर्मादि संस्कार हो जाने पर, कण्व ने इसे पातिव्रत्यधर्म का उपदेश दिया, एवं पतिगृह के लिए बिदा किया ।
शकुन्तला n. दुष्यंत के राजसभा में पहुँचते ही, इसने उसे अपनी सारी शर्ते उसे याद दिलायीं, एवं भरत को यौवराज्याभिषेक करने के लिए कहा । किन्तु दुष्यंत ने इसका यह प्रस्ताव अमान्य किया, एवं अत्यंत रोषपूर्ण शब्दों में इसकी आलोचना की । दुष्यंत की यह कठोर वाणी सुन कर इसे बड़ी लज्जा प्रतीत हुई, एवं इसने धर्म की श्रेष्ठता, एवं सूर्यादि देवताओं को साक्षी बनाकर, अपने प्रति न्याय करने के लिए बार बार अनुरोध किया । इसी समय इसने पत्नी एवं पुत्र के बारे में पति के कर्तव्य दुहाराये, एवं इन कर्तव्यों का पालन करने के लिये उसकी बार बार प्रार्थना की। फिर भी दुष्यंत ने इसकी एक न सुनी । तब इसने उसे शाप दिया, ‘अगर तुम भरत को युवराज नहीं बनाओगे, तो भरत तुम्हारे राज्य पर आक्रमण कर के स्वयं राज्याधिकारी बनेगा’। इतने में आकाशवाणी के द्वारा दुष्यंत को ज्ञात हुआ कि, शकुंतला उसकी धर्मपत्नी है, एवं भरत उसका पुत्र है । इस पर दुष्यंत ने इन दोनों को स्वीकार किया, एवं इसे अपनी पटरानी एवं भरत को अपना युवराज बनाया
[वायु. ९९.१३५] ;
[म. आ. ६९.४४] । पश्चात् दुष्यंत ने इसे समझाया कि, लोकापवाद के भय से शुरू में उसने इसको अस्वीकार किया था
[म. आ. ६२, भा. ९.२०] ।
शकुन्तला n. कालिदास के द्वारा विरचित संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ में, दुर्वास ऋषि के द्वारा इसे दिया शाप, शक्रावतारतीर्थ में ‘अभिज्ञान’ की अँगुठी इसके द्वारा खो जाना, दुष्यंत राजा विस्मृति का शिकार बनना, मत्स्यगर्भ से प्राप्त अभिज्ञान की अँगूठी से उसे पुनः स्मृति प्राप्त होना, आदि अनेकानेक उपकथाविभाग दिये गये है । किंतु वे सारे कल्पनारम्य प्रतीत होते है, क्यों कि, उन्हें प्राचीन साहित्य में कोई भी आधार प्राप्त नहीं होता । किंतु पद्मपुराण के बंगला संस्करण में ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ से मिलती जुलती कथा प्राप्त है ।