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अंगिरस् n. एक ऋषि। यह वज्रकुलोत्पन्न था [ऋ.१. ५१.४ सायण.] । इसका मनु, ययाति [ऋ.१.३१.१७] तथा भृगु के साथ उल्लेख है [ऋ. ८.४३.१३] । यहॉं यह, इन लोगों के समान मैं भी अग्नि को बुला रहा हूँ ऐसा कहता है तथा इतरों के समान अंगिरसों को भी प्राचीन समझता है । दध्यच्, प्रियमेध, कण्व तथा अत्रि के साथ भी इसका उल्लेख मिलता है [ऋ.१.१३९.९] । अंगिरस के सत्र में इन्द्र ने सरमा को भेजा [ऋ.१.१६२.३] । उसी प्रकार अंगिरस के द्वारा सत्र करते समय, वहॉं नाभानेदिष्ठ मानव, सत्र में लेने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं [ऋ.१०.६२.१-६] । अन्य वैदिक ग्रन्थों में भी नाभानेदिष्ठ का अंगिरस के साथ संबंध है [ऐ.ब्रा.५.१४] ;[तै. सं. ३.१.९.४] । अग्नि को अंगिरस नाम दिया गया है [ऋ.१.१.६] । अग्नि को प्रथम अंगिरा ने उत्पन्न किया । अंगिरस् सुधन्वा का निर्देश है [ऋ.१.२०.१] । बृहस्पति अंगिरा का पुत्र था [ऋ.१०.६७] । अंगिरसों ने देवताओं को प्रसन्न कर के एक गाय मांगी । देवताओं ने कामधेनु दी परन्तु इन्हें दोहन नहीं आता था । अतएव इन्हों ने अर्यमन् की प्रार्थना की तथा उसकी सहायता से दोहन किया [ऋ. १.१३९.७] । अंगिरस तथा आदित्यों में स्वर्ग में सर्वप्रथम कौन पहुँचता है, इसके बारे में शर्यत हुई। वह शर्यत आदित्यों ने जीती तथा अंगिरस् साठ वर्षो के बाद पहूँचा ऐसा उल्लेख अंगिरसामयन बताते समय आया है [ऐ. ब्रा.४.१७] । बहुवचन में प्रयुक्त अंगिरा शब्द, हमारे पितरों का वाचक है तथा ये हमारे पितर है ऐसा भी निर्देश [ऋ.१.६२.२,१०.१४.६] । यहॉं इसे नवग्व, भृगु तथा अथर्वन भी कहा गया है । अंगिरसों ने इन्द्र की स्तुति कर के संसार का अंधकार दूर किया [ऋ.१.६२.५] । अथर्वगिरस देखिये) । यह अग्नि से उत्पन्न हुआ अतएव इसे अंगिरस कहते हैं [नि.३.१७] । अंगिरस के पुत्र अग्नि से उत्पन्न हुए [ऋ.१०.६२.५] । अंगिरस प्रथम मनुष्य थे । बाद में देवता बने तथा उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ [ऋ.४.४.१३] । अंगिरस दिवस्पुत्र बनने की इच्छा कर रहे थे [ऋ.४.२१५] । अंगिरसीं को प्रथम वाणी ज्ञान प्राप्त हुआ तदनंतर छंद का ज्ञान हुआ [ऋ.४.२.१६] । ऋग्वेद के नवम मंडल के सूक्त, अंगिरस् कुल के द्रष्टाओं के हैं । ब्रह्मविद्या किसने किसे सिखाई यह बताते समय, ब्रह्मन्-अथर्वन्-अंगिरस्-सत्यवह-भारद्वाज-आंगिरस-शौनक ऐसा क्रम दिया है [मुं. उ.१.१.२-३, ३.२.२.११] । अंगिरस का पुराने तत्त्वज्ञानियों में उल्लेख है [श्वे. उ. १] । कुछ उपासनामंत्रों को अंगिरस नाम प्राप्त हुआ है [छां.उ.१.२.१०] ;[नृसिंह. ५.९] । यह शब्द पिप्पलाद को कुलनाम के समान लगाया गया है । [ब्रह्मोप.१] । अथर्ववेद के पांच कल्पों में से एक कल्प का नाम अंगिरसकल्प है । कौशिकसूत्र के मुख्य आचार्यों में इसका नाम है । आत्मोपनिषद् में अंगिरस ने शरीर, आत्मा तथा सर्वात्मा के संबंध में, जानकारी बताई है (१) । अंगिरस कुल के लोग सिरपर पांच शिखायें रखते थे (कर्मप्रदीप) । अंगिरस मंत्रकार था । परंतु अंगिरस के नामपर मंत्र न हो कर, अंगिरस कुल के लोगों के मंत्र हैं । यह स्वायंभुव मन्वन्तर में, ब्रह्मा के सिरे से उत्पन्न हुआ । यह ब्रह्मिष्ठ, तपस्वी, योगी तथा धार्मिक था [ब्रह्मांड. २.९.२३] । तथापि स्वायंभुव की संतति की वृद्धि न हुई । इस लिये ब्रह्मा ने स्त्रीसंतति उत्पन्न की । दक्ष की कन्या स्मृति इसकी पत्नी बनी । इसको स्मृति से सिनीवाली, कुहू, राका तथा अनुमति नामक चार कन्यायें तथा भारताग्नि एवं कीर्तिमत् नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए [ब्रह्मांड. १.११.१७] । वैवस्वत मन्वन्तर में शंकर के वर से यह पुनः उत्पन्न हुआ । यह ब्रह्मदेव का मानस पुत्र था । यह ब्रह्मदेव कें मुख से निर्माण हुआ । इसे पितामहर्षि कहते हैं । यह प्रजापति था । अग्नि ने पुत्र के समान इसका स्वीकार किया था, इसलिये इसे आग्नेय नाम भी प्राप्त है । अग्नि जब क्रुद्ध हो कर तप करने गया तब यह स्वयं अग्नि बना । तप से अग्नि का तेज कम हो गया । तब वह इसके पास आया । इसने उसे पूर्ववत अग्नि बन कर, अंधकार का नाश करने को कहा । इसने अग्नि से पुत्र मांगा । वही बृहस्पति है [मत्स्य. २१७-२१८] । इसके नाम की उपपत्ति अनेक प्रकारों से लगायी जाती है [मत्स्य. १९५.९] ;[बृहद्दे. ५.९८] ;[ब्रह्मांड. ३.१.४१] । ब्रह्मदेव ने संतति के लिये, अग्नि में रेत का हवन किया, ऐसी भी कथा है [वायु.६५.४०] । दक्षकन्या स्मृति इसकी पत्नी [विष्णु.१.७] । चाक्षुष मन्वन्तर के दक्षप्रजापति ने, अपनी कन्या स्वधा तथा सती इसे दी थी । प्रथम पत्नी स्वधा को पितर हुए तथा द्वितीय पत्नी सति ने, अथर्वागिरस का पुत्रभाव से स्वीकार किया [भा.६.६] । इसे श्रद्धा नामक एक पत्नी भी थी [भा.३.१२.२४,३.२४.२२] । शिवा (सुभा) नामक एक पत्नी भी इसे थी [म.व.२१४.३] । सुरुपा मारीची, स्वराट् कार्दमी तथा पथ्या मानवी यह ती स्त्रियॉं अथर्वन् की बताई गई है [ब्रह्मांड. ३.१.१०२-१०३] ;[वायु.६५-९८] । तथापि मत्स्य में सुरुपा मारीची, अंगिरस् की ही पत्नी मानी जाती है [मत्स्य. १९६.१] । ये दोनों एक ही माने जाते होगे । सुरुपा से इसे दस पुत्र पुत्र हुए । इसने गौतम को तीर्थमाहात्म्य बताया [म.अनु.२५.६९] । इसने पृथ्वीपर्यटन तथा तीर्थायात्राएं की थीं [म.अनु.९४] । इसने सुदर्शन नामक विद्याधर को शाप दिया था [भा.४.१३] । इसका तथा कृष्ण का स्यमंतपंचक क्षेत्र में मिलन हुआ था [भा.१०८४] । इसको शिवा से बृहत्किर्ति, बृहज्ज्योति, बुहद्ब्रह्मन्, बृहन्मन्स्, बृहन्मत्र, बृहद्भास तथा बृहस्पति नामक पुत्र तथा भानुपती, रागा (राका), सिनीवाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू) नामक सात कन्याएं थीं [म.व.२०८] । बृहत्कीर्त्यादि सब बृहस्पति के विशेषण है, ऐसा नीलकण्ठ का मत है । इसके अलावा भागवत में सिनीवाली, कुहू, राका तथा अनुमति नामक इसके कन्याओं का उल्लेख है [भा.४.१.३४] । इसके पुत्र बृहस्पति, उतथ्य तथा संवर्त है । [म.आ.६०.५] ;[भा. ९.२.३६] । इसके अतिरिक्त वयस्य (पयस्य), शांति, घोर विरुप तथा सुधन्वन् भी इसके पुत्र थे [म.अनु.१३२.४३] । इसने चित्रकेतु के पुत्र को सजीव करके उस का सांत्वन किया [भा.६.१५] ; चित्रकेतु १. देखिये ।
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अंगिरस् n. व्यवहार के अतिरिक्त अन्य सब विषयों में इसका उल्लेख पाया जाता है । याज्ञवल्क्य ने इसका उल्लेख किया हैं । अंगिरस के मतानुसार, परिषद में १२१ ब्राह्मणों का समावेश होता है । [याज्ञ. १.९विश्व.] । धर्मशास्त्र का अवलंब न करते हुए स्वेच्छा से किसीने अगत कृत्य किया तो वह निष्फल हो जाता है । [याज्ञ.१.५०] । घोर पातक से अपराधी माने गये ब्राह्मणों के लिये, वज्र नामक व्रत अंगिरस ने बताया, ऐसा उल्लेख विश्वरुप में पाया जाता है [याज्ञ. ३.२४८] । प्रायश्चित्त के संबंध में, विश्वरुप मे [याज्ञ. ३.२६५] इसके दो श्लोक दिये हैं । इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्रीवध के संबंध में विचार किया गया है । कुछ पशुपक्षियों के वध के संबंध में भी प्रायश्चित्त बताया है [याज्ञ.३.२६६] । इसी में भगवान अंगिरस् कहकर बडे गौरव से इसका उल्लेख किया गया है । परिषद् की घटना से संबंधित इसके तेरह श्लोक अपरार्क ने [याज्ञ.२२-२३] दिये हैं । मिताक्षरा में शंख तथा अंगिरस् के सहगमन-संबंध में काफी श्लोक दिये गये हैं [याज्ञ.१.८६] । अपरार्क ने [याज्ञ.१०९.११२] सहगमन संबंध में चार श्लोक दिये है । जिसमें कहा है कि, ब्राह्मण स्त्री को सती नहीं जाना चाहिये । मेधातिथि ने [मनु.५,१५७] अंगिरस का सती संबंध में यह मत दे कर, उसके प्रति अपनी अमान्यता व्यक्त की है । इसके अशौच संबंध के श्लोक, मिताक्षरादि ग्रंथों में तथा इतरत्र आये हैं । सप्त अंत्यजों के संबंध में, इसका एक श्लोक हरदत्त ने [गौतम २०.१] दिया है । विश्वरुप ने लिखा है कि, सुमन्तु ने अंगिरस का मत ग्राह्म माना है [याज्ञ.३.२३७] शुद्धिमयूख में अंगिरस ने शातातप का मत ग्राह्म माना है । स्मृतिचन्द्रिका में उपस्मृतियों का उल्लेख करते समय अंगिरस का निर्देश है । वहॉं इसके गद्य अवतरण भी दिये हैं । अंगिरस् ने मनु का धर्मशास्त्र श्रेष्ठ माना है (स्मृतिचं. आह्रिक) । आनन्दाश्रम में १६८ श्लोकों की, प्रायश्चित्त बताने वाली अंगिरसस्मृति है । उसमें प्रायश्चित्त तथा स्त्री के संबंध में विचार किया गया है । मिताक्षरा में तथा वेदाचार्यो की स्मृतिरत्नावली में बृहद्अंगिरस् दिया है । मिताक्षरा में मध्यम अंगिरस का कई बार उल्लेख आया है ।
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अंगिरस् n. आत्मा, आयु, ऋत, गविष्ठ, दक्ष, दमन, प्राण, सत्य, सद तथा हविष्मान् ।
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अंगिरस् n. अत्रायनि, अभिजित्, अरि, अरुणायनि, उतथ्य, उपबिंदु, ऐरिडव, कारोटाक, कासोरु, केराति, कौशल्य (ग), कौष्टिकि, क्रोष्टा, क्षपाविश्वकर, क्षीर, गोतम, तौलेय, पाण्डु, पारिकारारिरेव (पारःकारिररेव), पार्थिव (ग), पौषाजिति (पौष्यजिति), भार्गवत, मूलप, राहुकर्णि (रागकर्णि), रेवाग्नी, रौहिण्यायनि, वाहिनीपति, वैशालि सजीविन्. सलौगाक्षि, सामलोमहि, सार्धनेमि, सुरैषिण, सोम तथा सौपुरि, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, उशिज, सुवचोतथ्य इन तीन प्रवरों के हैं । अग्निवेश्य, आत्रेयायणि, आपस्तंबि, आश्वलायनि, उडुपति, एकेपि, कारकि (काचापि), कौचकि, कौरुक्षेत्रि, कौरुपति, गांगोदधि, गोमेदगंधिक, जैत्यद्रौणि, जैह्रलायनि, तृणकर्णि, देवरारि, देवस्थानि, व्द्याख्येय, धमति, (भूनित), नायकि, पुष्पान्वेषि, पैल, प्रभु,प्रावहि,प्रावेपि,फलाहार,बर्हिसादिन्, बाष्कलि, बालडि, बालिशायनि,ब्रह्मतन्वि [ब्रह्म तथा तवि], मत्स्याच्छाद्य, महाकपि, महातेज (ग), मारुत, मार्ष्टिपिंगलि, मूलहर, मौंजवृद्धि, वाराहि, शालंकायनि, शिखाग्रीविन्, शिलस्थलिसरिद्भवि साद्यसुग्रीवि, सालडि (भालुठिवालुठि), सोमतन्वि (सोमतथा तवि), सौटि, सौवेष्टय तथा हरिकर्णि ये सब उपगोत्रकार अंगिरा बृहस्पति तथा भरद्वाज इन तीन प्रवरों के हैं । काण्वायन (ग), कोपचय (ग), क्रोष्टाक्षिन्, गाधिन् गार्ग्य, चक्रिन्, तालकृत, नालविद, पौलकायनि, बलाकिन् (बालाकिन्), बहुग्रीविन, भाष्ट्रकृत, मधुरावह, मार्कटि,राष्ट्रपिण्डिन, लावकृत, लेण्द्राणि, वात्स्यतरायण, श्यामायनि, सायकायनि, साहरि तथा स्कंदस, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, गर्ग, बृहस्पति, भरद्वाज तथा सैन्य इन पांच प्रवरों के हैं । उरुक्षय, उर्व, कपीतर, कलशीकंठ, काटय, कारीरथ, कुसीदकि, जलसंधि, द्राक्षि, देवमति, धान्यायनि, पतंजलि, बिंदु, भरद्वाजि, भावास्थायनि, भूयसि, मदि, राजकेशिन्, लध्विन्वौषडि, शंसपि, शक्ति, शालि, सोबुधि, व स्वस्तितर, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, उरुक्षय तथा दमवाह्य इन तीन प्रवरों के हैं । अनेह (अनेहि), आर्षिणि (आर्पिणि), गार्ग्यहरि (गर्गिहर), गालव (गालवि), गौरवीति, चेनातकि, तंडि, तैलक, त्रिमार्ष्टिदक्ष, नारायणि(परस्परायणि), मनु, संकृति तथा संबंधि, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, गौरवीति तथा संकुति इन तीन प्रवरों के हैं । कात्यायनि, कुरोराणि, कौत्स, पिंग, भीमवेग, माद्रि, मौलि, वात्स्यायनि, शाश्वदर्भि, हंडिदास तथा हरितक, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, जीवनाश्व (युवनाश्व) तथा बृहदश्व इन तीन प्रवरों के हैं । बृहदुक्थ तथा वामदेव, ये उपगोत्रकार अंगिरा, बृहदुक्थ तथा वामदेव इन तीन प्रवरो के हैं । अंगिरा,पुरुकुत्स तथा सदस्यु ये तीन प्रवर कुत्सोंके हैं । अंगिरा, विरुप, रथीतर ये तीन प्रवर रथीतरों के है । कर्त्तृण (कर्मिण), जतृण, पुत्र तथा विष्णुसिद्धि, वैरपरायण तथा शिवमति ये उपगोत्रकार अंगिरा, विरुप तथा वृषपर्व इन तीन प्रवरों के हैं । तंबि, मुद्नल, सात्यमुग्रि तथा हिरण्य इन उपगोत्रकारों कें प्रवर अंगिरा, मत्स्यदग्ध तथा मुद्गल, अगिजिह्र, अपाग्रेय, अश्वयु, देवजिह्र, परण्यस्त(ग), विमौद्नल, विराडप (बिडालज) तथा हंसजिह्र इनके प्रवर अंगिरा, तांडि तथा मौद्गल्य । अपांडु कटु (कंकट), गुरु, नाडायन, नारिन्, प्रागावस (प्रागाथम), मरण (मरणाशन), मर्कटप (कटक), मार्कड (मार्कट), शाकटायन, शिव तथा श्यामायन ये उपंगोत्रकार अंगिरा, अजमीढ तथा काटय इन तीन प्रवरों के हैं । कपिभू, गार्ग्य तथा तित्तिरि ये अंगिरा, कपिभू तथा तित्तिरि इन प्रवरों के हैं । ऋक्ष, ऋषिर्मित्रवर, ऋषिवान्मानव, भरद्वाज ये सब अंगिरा, ऋषिमैत्रवर, ऋषिवान्मानव, भरद्वाज तथा बृहस्पति इन पांच प्रवरों के हैं । भारद्वाज, शैशिरेय,शौग तथा हुत, ये उपगोत्रकार अंगिरा, बृहस्पति, भारद्वाज, मौद्गल्य तथा शैशिर इन पांच प्रवरों के हैं [मत्स्य. १९६] ।
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