पिशाच n. दानवों का एक लोकसमूह । ये लोग उत्तर-पश्चिम सीमा प्रदेश, दर्दिस्था, चित्रल आदि प्रदेशों में रहते थे । काफिरिस्थान के दक्षिण की ओर एवं लमगान (प्राचीन-लम्याक), प्रदेश के समीप रहने वाले, आधुनिक ‘पशाई-काश्मिर’ लोग सम्भवतः यही है। ग्रियर्सन ने भी ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से इस मत को समीचीन माना है
[ज.रॉ.ए.सो.१९५०, पिशाच, २९५-२८८] । ‘पिशाच’ का शब्दार्थ ‘कच्चा मॉंस का भक्षण करने वाला हैं’। अर्थववेद के अनुसार, इन लोगों में कच्चे मॉंस के भक्षण करने की प्रथा थी, इस कारण इन्हें पिशाच नाम प्राप्त हुआ
[अ.वे.५.२९.९] । वैदिक वाङ्मय में निर्दिष्ट दैत्य एवं दानवों का उत्तरकालीन विकृत रुप पिशाच है । पिशाची का अर्थसम्भवतः ‘वैताल’ अथवा ‘प्रेतभक्षक’ था । अर्थवेद में दानवों के रुप में इसका नाम कई बार आया है
[अ.वे.२.१८.४,४. २०. ६-९,३६.४, ३७.१०,५.२९.४-१०,१४,६.३२.२, ८. २.१२.१२.१.५०] । इन लोगों का निर्देश ऋग्वेद में ‘पिशाचि’ नाम से किया गया है
[ऋ.१.१३३. ५] । राक्षसों तथा असुरों के साथी मनुष्य एवं पितरों के विरोधी लोगों के रुप में इनका निर्देश वैदिक साहित्य में स्थान पर हुआ है
[तै. सं.२.४,१.१] ;
[का. सं. ३७-१४] । किन्तु कहीं इनका उल्लेख मानव रुप में भी हुआ है। कुछ भी हो यह लोग संस्कारो से हीन व वर्बर थे और इसी कारण यह सदैव घृणित दृष्टि से देखे जाते थे । उत्तर पश्चिमी प्रदेश में रहने वाले अन्य जातियों के समान ये भी वैदिक आर्य लोगों के शत्रु थे । सम्भवतः मानव मॉंस भक्षण की परंपरा इनमें काफी दिनों तक प्रचलित रही । ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार, इन लोगों में, ‘पिशाचवेद’ अथवा ‘पिशाचविद्या’ नामक एक वैज्ञानिक विद्या प्रचलित थी
[गो. ब्रा.१.१.१०] ;
[आश्व. श्रौ. सऊ. १०.७.६] । अथर्ववेद की एक उपशाखा ‘पिशाचवेद’ नाम से भी उपलब्ध है
[गो. ब्रा.१.१०] । ब्रह्मपुराण के अनुसार, पिशाच लोगों को गंधर्व, गुह्यक, राक्षस के समान एक ‘देवयोनिविशेष’ कहा गया है । सामर्थ्य की दृष्टि से, इन्हे क्रमानुसार इस प्रकार रखा गया है-गंधर्व, गुह्यक, राक्षस एवं पिशाच । ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीडा देतें है
पिशाच n. इनकी भाषा पैशाची थी, जिसमें ‘बृहत्कथा’ नामक सुविख्यात ग्रंथ ‘गुणाढय’ (र थी शती ई. पू.) ने लिखा था । गुणाढय का मूल ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है, किंतु उसके आधार लिखे गये ‘कथासरित्सागर’ (२ री शती ई.) एवं ‘बृहत्कथा मंजरी’ नामक दो संस्कृत ग्रंथ आज भी प्राप्त है, एवं संस्कृत साहित्य के अमूल्य ग्रंथ कहलाते है । इनमें से ‘कथासरित्सागर’ का कर्ता सोमदेव हो कर, ‘बृहत्कथा-मंजरी’ को क्षेमेंद्र ने लिखा है । इन सारे ग्रंथों से अनुमान लगाया जाता है कि, ईसासदी के प्रारंभकाल में, पिशाच लोगों की भाषा एवं संस्कृति प्रगति की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी । यहॉं तक, कि, इनकी भाषा एवं ग्रथों को पर्शियन सम्राटों ने अपनाया था । इनकी यह राजमान्यता एवं लोकप्रियता देखने पर पैशाची संस्कृति एवं राजनैतिक सामर्थ्य का पता चल जाता है । सर्वप्रथम मध्य एशिया में रहनेवाले ये लोग, धीरे धीरे भारतवर्ष के दक्षिण सीमा तक पहुँच गये । महाभारतकालीन पिशाच जनपद के लोग । ये लोग युधिष्ठिर की सेना में क्रौंचव्यूह के दाहिने पक्ष की जगह खडे किये थे
[म.भी.४६.४९] । इनमें से बहुत से लोग भारतीययुद्ध में मारे गये थे
[म.आश्र. ३९.६] । दुर्योधन की सेना में राजा भगदत्त के साथी पिशाचदेशीय सैनिक थे
[म.भी.८३.८] । श्रीकृष्ण ने किसी समय पिशाच देश के योद्धाओं को परास्त किया था
[म.द्रो.१०.१६] ।
पिशाच II. n. एक यक्ष का नाम
[म.स.१०.१५] ।