कामाख्या सिद्धी - कामाक्षायाष्टक

कामरूप कामाख्या में जो देवी का सिद्ध पीठ है वह इसी सृष्टीकर्ती त्रिपुरसुंदरी का है ।


एक समय यज्ञ दक्ष कियोतब न्योत सबै जग के सुर डारो ।

ब्रह्म सभा बिच माख लग्य तेहि कारण शंकर को तजिडारो ।

रोके रुके नहिं दक्ष सुता, बुझाय बहू विधि शंकर हारो ।

नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥१॥

संग सती गण भेज दिये, त्रिपुरारि हिये मँह नेक विचारो ।

राखे नहीं संग नीक अहै जो रुके तो कहूँ नहिं तन तजि डारो ।

जाय रुकी जब तात गृहे तब काहु न आदर बैन उचारो ।

नाम तेरो बड़ है जम में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥२॥

मातु से आदर पाय मिली भगिनी सब व्यंग मुस्काय उचारो ।

तात न पूछ्यो बात कछू यह भेद सती ने नहीं विचारो ।

जाय के यज्ञ में भाग लख्यो पर शंकर भाग कतहुँ न निहारो ।

नाम तेरो बड़ है९ जग में ' करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥३॥

तनक्रोध बढ्यो मनबोध गयो, अपमान भले सहि जाय हजारो ।

जाति निरादर होई जहाँ तहँ जीवन धारन को धिक्कारो ।

देह हमार है दक्षके अंश से जीवन ताकि सो मैं तजि डारो ।

नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥४॥

अस कहि लाग समाधि लगाय के बैठि भई निश्चय उर धारो ।

प्रान अपान को नाभि मिलय उदानहिं वायु कपाल निकारो ।

जोग की आग लगी अब ही जरि छार भयो छन में तन सारो ।

नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥५॥

हाहाकार सुन्यो गण शंभु तो जग विध्वंस सबै करि डारो ।

जग्य विध्वंसि देखि मुनि भृगु मन्त्र रक्षक से सब यज्ञ सम्हारो ।

वीरभद्र करि कोप गये और दक्ष को दंड कठिन दै डारो ।

नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥६॥

दुखकारन सतीशव कांधे पे डार के विचरत है शिवजगत मंझारो ।

काज रुक्यो तब देव गये और श्रीपति के ढिंग जाय पुकारो ।

विष्णु ने काटि किये शव खण्ड गिट्यो जो जहाँ तहँ सिद्धि बिठारो ।

नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥७॥

योनि गियो कामाख्या थल सों, बन्यो अतिसिद्ध न जाय संभारो ।

बास करें सुर तीन दिना जब मासिक धर्म में देवि निहारो ।

कहत गोपाल सो सिद्ध है पीठ जो माँगता है मिल जात सो सारो ।

नाम तेरी बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥८॥

॥ दोहा ॥

लाल होई खल तीन दिन, जब देवि रजस्वला होय ।

मज्जन कर नर भव तरहिं, जो ब्रह्म हत्यारा होय ॥१॥

कामाख्या तीरथ सलिल, अहै सुधा सम जान ।

कह गोपाल सेवन करुँ, खान, पान, स्नान ॥२॥

भक्ति सहित पढ़िहै सदा, जो अष्टक को मूल ।

तिनकी घोर विपत्ति हित, शरण तुम्हारि त्रिशूल ॥३॥

कामाख्या जगदम्बिक, रक्षहु सब परिवार ।

भक्त ' गिरि ' पर कृपा करि, देहु सबहिं सुख डार ॥४॥

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Last Updated : July 21, 2009

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