एक समय यज्ञ दक्ष कियोतब न्योत सबै जग के सुर डारो ।
ब्रह्म सभा बिच माख लग्य तेहि कारण शंकर को तजिडारो ।
रोके रुके नहिं दक्ष सुता, बुझाय बहू विधि शंकर हारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥१॥
संग सती गण भेज दिये, त्रिपुरारि हिये मँह नेक विचारो ।
राखे नहीं संग नीक अहै जो रुके तो कहूँ नहिं तन तजि डारो ।
जाय रुकी जब तात गृहे तब काहु न आदर बैन उचारो ।
नाम तेरो बड़ है जम में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥२॥
मातु से आदर पाय मिली भगिनी सब व्यंग मुस्काय उचारो ।
तात न पूछ्यो बात कछू यह भेद सती ने नहीं विचारो ।
जाय के यज्ञ में भाग लख्यो पर शंकर भाग कतहुँ न निहारो ।
नाम तेरो बड़ है९ जग में ' करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥३॥
तनक्रोध बढ्यो मनबोध गयो, अपमान भले सहि जाय हजारो ।
जाति निरादर होई जहाँ तहँ जीवन धारन को धिक्कारो ।
देह हमार है दक्षके अंश से जीवन ताकि सो मैं तजि डारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥४॥
अस कहि लाग समाधि लगाय के बैठि भई निश्चय उर धारो ।
प्रान अपान को नाभि मिलय उदानहिं वायु कपाल निकारो ।
जोग की आग लगी अब ही जरि छार भयो छन में तन सारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥५॥
हाहाकार सुन्यो गण शंभु तो जग विध्वंस सबै करि डारो ।
जग्य विध्वंसि देखि मुनि भृगु मन्त्र रक्षक से सब यज्ञ सम्हारो ।
वीरभद्र करि कोप गये और दक्ष को दंड कठिन दै डारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥६॥
दुखकारन सतीशव कांधे पे डार के विचरत है शिवजगत मंझारो ।
काज रुक्यो तब देव गये और श्रीपति के ढिंग जाय पुकारो ।
विष्णु ने काटि किये शव खण्ड गिट्यो जो जहाँ तहँ सिद्धि बिठारो ।
नाम तेरो बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥७॥
योनि गियो कामाख्या थल सों, बन्यो अतिसिद्ध न जाय संभारो ।
बास करें सुर तीन दिना जब मासिक धर्म में देवि निहारो ।
कहत गोपाल सो सिद्ध है पीठ जो माँगता है मिल जात सो सारो ।
नाम तेरी बड़ है जग में करुणा करके मम कष्ट निवारो ॥८॥
॥ दोहा ॥
लाल होई खल तीन दिन, जब देवि रजस्वला होय ।
मज्जन कर नर भव तरहिं, जो ब्रह्म हत्यारा होय ॥१॥
कामाख्या तीरथ सलिल, अहै सुधा सम जान ।
कह गोपाल सेवन करुँ, खान, पान, स्नान ॥२॥
भक्ति सहित पढ़िहै सदा, जो अष्टक को मूल ।
तिनकी घोर विपत्ति हित, शरण तुम्हारि त्रिशूल ॥३॥
कामाख्या जगदम्बिक, रक्षहु सब परिवार ।
भक्त ' गिरि ' पर कृपा करि, देहु सबहिं सुख डार ॥४॥