नंदजू मेरे मन आनंद भयो, हौं गोबरधन तें आयौ ।
तुम्हरे पुत्र भयो, हौं सुनिकै अति आतुर उठि धायौ ॥
बंदीजन अरु भिच्छुक सुनि सुनि देस-देस तें आये ।
इक पहले ही आसा लागे बहुत दिनन तें छाये ॥
ते पहिरैं कंचन मनि मुकता नाना बसन अनूप ।
मोहि मिले मारगमें मानो जात कहूके भूप ॥
तुम तौ परम उदार नंदजू जोइ माँग्या सोइ दीनौं ।
ऐसौ और कौन त्रिभुवनमें तुम सरि साकौ कीनौं ॥
लच्छ हेतु तौ पर्यौ रहौं हौं बिनु देखे नहिं जैहौं ।
नंदराइ सुनि बिनती मेरी तबै बिदा भलि ह्वैहौं ॥
दीजै मोहि कृपा करि साईं जो हौं आयौ माँगन ॥
जसुमति सुत अपने पाइनि चलि खेलत आवै आँगन ॥
जब तुम मदनमोहन कहि टेरौ यह सुनि हौं घर जाउँ ।
हौं तौ तेरो घरकौ ढाढ़ी सूरदास मो नाउँ ॥
प्रगट भई सोभा त्रिभुवनकी भानु गोपके आइ ।
अदभुत रुप देखि ब्रजबनिता रीझीं लेत बलाइ ॥
नहिं कमला, नहिं सची, नहीं रति उपमाहू न समाइ ।
जा हित प्रगट भये ब्रजभूषन धन्य पिता धन माइ ॥
जुग जुग राज करो दोऊ जन इत तुव उत नँदराइ ।
उनके मदनमोहन तेरे स्यामा सूरदास बलि जाइ ॥