जगज्जोतिनाम - ॥ समास दसवां - चलाचलनिरूपणनान ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
गगनसमान खोखल । अत्यंत उच्च अंतराल । निर्गुण निर्मल निश्चल । सदोदित ॥१॥
उसे परमात्मा कहते । और नाम ना जाने कितने । मगर उसे जानो आदि अंत में । जैसे के वैसा ॥२॥
विस्तीर्ण विस्तृत हुआ फैलाव । घेरकर अवकाश व्याप्त । भास ही नहीं निराभास । आकाश जैसे ॥३॥
चारों ओर पाताल के तल में । अंत ही नहीं अंतराल में । कल्पांतकाल में सर्वकाल । व्याप्त ही रहे ॥४॥
ऐसा जो कुछ अचंचल । उस अचंचल में भासे चंचल । उसके नाम भी विपुल । त्रिविध प्रकार के ॥५॥
न दिखने पर नाम देना । न देखते भी चिन्ह बताना । ऐसे जाना जाये इस कारण । है नामाभिधाने ॥६॥
मूलमाया मूलप्रकृति । मूलपुरुष ऐसे कहते । शिवशक्ति नाम कितने ही । नाना प्रकार के ॥७॥
परंतु जो नाम दिया जिसे । पहले उसे पहचाने । प्रचीति बिन किस कारण । से करे वल्गना ॥८॥
रूप का ज्ञान बिना जाने । केवल नाम से ना बहके । गडबड होगी बिना प्रत्यय के । अनुमान ज्ञान से ॥९॥
निश्चल गगन में चंचल बयार । बहने लगे करके शोर । परंतु गगन और समीर । में भेद है ॥१०॥
वैसे निश्चल परब्रह्म । चंचल माया भासित भ्रम । उस भ्रम का ही संभ्रम । करके दिखलाऊं ॥११॥
जैसे गगन में चला पवन । वैसे निश्चल में हुआ चलन । इच्छा स्फूर्तिलक्षण । स्फुरणरूप ॥१२॥
अहंभाव से ज्ञातृत्व आया । उसे ही मूलप्रकृति कहा । रची गई महाकारणकाया । ब्रह्मांड की ॥१३॥
महामाया मूलप्रकृति । कारण जो अव्याकृति । सूक्ष्म को हिरण्यगर्भ कहते । विराट वह स्थूल ॥१४॥
ऐसा पंचीकरण शास्त्रप्रमेय । ईश्वरतनुचतुष्टय । इस कारण यह कहना होये । ज्ञातृत्व है मूलमाया ॥१५॥
परमात्मा परमेश्वरु । परेश ज्ञानघन ईश्वरु । जगदीश जगदात्मा जगदेश्वरु । पुरुष नाम ॥१६॥
सत्तारूप ज्ञानस्वरूप । प्रकाशरूप ज्योतिरूप । कारणरूप चिद्रूप । शुद्ध सूक्ष्म अलिप्त ॥१७॥
आत्मा अंतरात्मा विश्वात्मा । दृष्टा साक्षी सर्वात्मा । क्षेत्रज्ञ जीवात्मा शिवात्मा । देह में कूटस्थ कहलाता ॥१८॥
इंद्रात्मा ब्रह्मात्मा हरिहरात्मा । यमात्मा धर्मात्मा नैऋत्यात्मा । वरूणवायुकुबेरात्मा । ऋषिदेवमुनिधर्ता ॥१९॥
गणगंधर्वविद्याधर । यक्षकिन्नरनारद तुंबर । सर्व लोगों के भीतर । वह सर्वांतरात्मा कहलाता ॥२०॥
चंद्रसूर्य तारा मंडल । भूमंडल मेघमंडल । इक्कीस स्वर्ग सप्त पाताल । अंतरात्मा ही चलाये ॥२१॥
गुप्त वल्ली पल्लवित हुई । उसकी पुरुष नाम कही गई । अब स्त्री नाम सुननीं । चाहिये श्रोताओं ने ॥२२॥
मूलमाया जगदीश्वरी । परमविद्या परमेश्वरी । विश्ववंद्या विश्वेवरी । त्रैलोक्यजननी ॥२३॥
अंतर्हेतु अंतर्कला । मौन्यगर्भ ज्ञातृत्वकला । चपल जगज्जोति जीवनकला । परा पश्यंति मध्यमा ॥२४॥
युक्ति बुद्धि मति धारणा । सावधानता नाना छानना । भूत भविष्य वर्तमान । सुलझाकर दिखलाये ॥२५॥
जागृति स्वप्न सुषुप्ति जाने । तुर्या तटस्थ अवस्था जाने । सुख दुःख सकल जाने । मानापमान ॥२६॥
वह परम कठिन कृपालु । वह परम कोमल स्नेहालु । वह परम क्रोधी लोभालू । मर्यादातीत ॥२७॥
शांति क्षमा विरक्ति भक्ति । अध्यात्मविद्या सायुज्यमुक्ति। विचारणा सहजस्थिति। जिससे ही ॥२८॥
पहले पुरुषनाम कथन किये । पश्चात स्त्रीनाम निरूपित किये । अब नपुंसक नाम सुनने चाहिये । चंचल के ॥२९॥
ज्ञातृत्व अंतःकरण चित्त । श्रवन मनन चैतन्य जीवित । आते जाते सुचित । होकर देखो ॥३०॥
मैंपन तूपन जानपन । ज्ञातापन सर्वज्ञपन । जीवपन शिवपन ईश्वरपन । अलिप्तपन कहिये ॥३१॥
ऐसे नाम है उदंड । परंतु जगज्जोति वही एक । जानते है विचारवंत । सर्वांतरात्मा ॥३२॥
आत्मा जगज्जोति सर्वज्ञपन । तीनो मिलाकर एक ही जान । अंतर्कला ही प्रमाण । ज्ञाप्तिमात्र ॥३३॥
ढेर लगे पदार्थों के । पुरुष स्त्री नपुंसक नामों के। मगर सृष्टिरचना के । कहे भी तो कितने ॥३४॥
सब छानने के बाद एक । अंतरात्मा चलाये अनेक । चींटी से ब्रह्मादि तक । गतिमान उससे ही ॥३५॥
वह अंतरात्मा है कैसा । प्रस्तुत पहचानें थोडा सा । कई प्रकार का तमाशा । है यहीं ॥३६॥
बह समझ में आये मगर दिखे ना । प्रचीति आती मगर भासे ना । शरीर में रहे मगर बसे ना । एक जगह ॥३७॥
तीक्ष्णता से गगन में भरे । सरोवर पसरे देखते ही । पदार्थ में भेदकर भी बाकी रहे । चारों ओर ॥३८॥
जैसा पदार्थ दिखें दृष्टि से । वह उस जैसा ही होये । वायु से भी विशेष वह है। चंचलता में ॥३९॥
अनेक दृष्टि से देखे । अनेक रसना से चखे । अनेकों को पहचाने । मन से ॥४०॥
कान में बैठकर शब्द सुने । घ्राणेंद्रियों से सूंघ ते । त्वचा इंद्रियो से जाने । शीतोष्णादि ॥४१॥
ऐसे जाने अंतर्कला । है सबमें फिर भी निराला । देखो तो उसकी अगाध लीला । वही जाने ॥४२॥
वह पुरुष ना सुंदरी । बाल तरूण ना कुमारी । नपुंसक का देहधारी । मगर नपुंसक नहीं ॥४३॥
वह चलाये सकल शरीरों को । करके अकर्ता कहते उसको । क्षेत्रज्ञ क्षेत्रवासी वे । देह में कूटस्थ कहलाये ॥४४॥

॥ श्लोक ॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणी भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥छ॥

लोक में दोनों पुरुष रहते । क्षराक्षर कहलाते । सर्व भूतों को क्षर कहते । अक्षर कूटस्थ कहलाता ॥४५॥
उत्तम पुरुष वह अलग। निष्प्रपंच निष्कंलक । निरंजन परमात्मा एक । निर्विकारी ॥४६॥
चारों देह का निरसन करें । साधक देहातीत बनें । देहातीत होते ही जाने । अनन्यभक्त ॥४७॥
देहमात्र का निरसन हुआ । वहां अंतरात्मा कैसे बचा । निर्विकारी में विकार । ठांव नहीं ॥४८॥
निश्चल परब्रह्म एक । चंचल जानिये मायिक । ऐसा प्रत्यय निश्चयात्मक । देखें विवेक से ॥४९॥
यहां न लगे बहुत खटपट । एक चंचल एक निश्चल । शाश्वत कौन यह केवल । ज्ञाता पहचानते ॥५०॥
असार त्यागकर लें सार । इस कारण सारासारविचार । नित्यानित्य निरंतर । देखने पर ज्ञानी ॥५१॥
जहां ज्ञान ही होता विज्ञान । जहां मन ही होता उन्मन । वहां कैसा चंचलपन । आत्मा को ॥५२॥
कही सुनी का काम नहीं। जाने अपने अनुभव से ही । प्रत्यय बिना श्रम जो भी । वहीं पाप ॥५३॥
सत्यसमान सुकृत नहीं । असत्य समान पाप नहीं । प्रचित बिन कहीं भी नहीं । समाधान ॥५४॥
सत्य याने स्वरूप जान । असत्य माया यह प्रमाण । यहां निरूपित किये पापपुण्य । रूपोंसहित ॥५५॥
दृश्य पापों के अंत हुये । पुण्य परब्रह्म शेष रहे । अनन्य होते ही हुये । नामातीत ॥५६॥
स्वयं पस्तु स्वतःसिद्ध । वहां नहीं देहसंबंध । पापराशी होती दग्ध । इस तरह से ॥५७॥
अन्यथा ब्रह्मज्ञान बिन । जो जो साधन वह सारी थकान । नाना दोषों का क्षालन । होगा कैसे ॥५८॥
पाप से बना शरीर । पाप ही होते तदनंतर । अंतरंग में रोग ऊपर ऊपर उपचार । क्या करेंगे ॥५९॥
नाना क्षेत्रों में इसे मुंडन कराया । नाना तीर्थों में दंडित कराया । नाना निग्रहों से खंडित कराया । ठाई ठाई ॥६०॥
नाना मृत्तिकाओं से विसा । अथवा तप्तमुद्राओं से जलाया । ऊपर ऊपर से तराशा । फिर भी शुद्ध नहीं ॥६१॥
गोबर के गोल निगल गये । गोमूत्र के हंडे पिये । रुद्राक्षमाला पहन लिये । काष्ठमणी ॥६२॥
वेष ऊपर ऊपर किया । मगर अंतरंग में दोष भरा । दहन के लिये उस दोष का । आत्मज्ञान चाहिये ॥६३॥
नाना व्रत नाना दान । नाना योग तीर्थाटन । सबसे भी कोटि गुन । महिमा आत्मज्ञान की ॥६४॥
आत्मज्ञान देखे सदा । उसके पुण्य की नहीं मर्यादा । दुष्ट पातक की बाधा । हुई निरसित ॥६५॥
वेदशास्त्रों में सत्यस्वरूप । वही ज्ञानियों का रूप । पुण्य हुआ अमाप । सुकृतों ने सीमा लांघी ॥६६॥
बातें प्रचिती की ये । प्रचीति देखे आत्मदृष्टि से । दुःखी बिना प्रचीति के । होना ही नहीं ॥६७॥
सुनो हे प्रचीति के लोगों । प्रचीत न हो तो सारा शोक हो । रघुनाथ कृपा से हो । प्रत्यय निश्चय का ॥६८॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चलाचलनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥

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Last Updated : December 05, 2023

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