जगज्जोतिनाम - ॥ समास नववां- प्रचीतनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
आकाश में वायु हुआ निर्माण । वैसे ब्रह्म में मूलमाया जान । उस वायु में त्रिगुण । और पंचभूत ॥१॥
वटबीज में रहे प्रचंड । फोड़कर देखें तो न दिखे पेड । नाना वृक्षों का झुंड । बीज से ही होते ॥२॥
वैसी ही बीजरूप मूलमाया । वहीं से विस्तार हुआ । खोजकर स्वरूप उसका । देखें भली तरह ॥३॥
वहां दोनों भेद दिखते । विवेक से देखें प्रचीति । निश्चल में जो चंचल स्थिति । वही वायु ॥४॥
उसमें ज्ञातृत्वकला । जगज्जोति की आत्मीयता । वायु ज्ञातृत्व मिलकर मेला । मूलमाया कहलाये ॥५॥
सरिता कहते ही नारी भासे । वहां देखे तो पानी ही रहें । हे विवेकी जन समझो वैसे । मूलमाया को ॥६॥
वायु ज्ञातृत्व जगज्जोति । उसे मूलमाया कहते । पुरुष और प्रकृति । इसके ही नाम ॥७॥
वायु को कहते प्रकृति । और पुरुष को कहते जगज्जोति । पुरुषप्रकृति शिवशक्ति । इनके ही नाम ॥८॥
वायु में ज्ञातृत्व विशेष । वही प्रकृतिं में पुरुष । इस बात का विश्वास । करना चाहिये ॥९॥
वायु शक्ति ज्ञातृत्व ईश्वर । अर्धनारी नटेश्वर । लोग कहते निरंतर । इस प्रकार से ॥१०॥
वायु में ज्ञातृत्व गुण । वही ईश्वर का लक्षण । उनके पासे से त्रिगुण । आगे हुये ॥११॥
इन गुणों में सत्त्वगुण । शुद्ध ज्ञातृत्वलक्षण । उसका देहधारी स्वयं । हुआ विष्णु ॥१२॥
उसके अंश से जग चले । ऐसे भगवद्गीता बोले । उलझे वे ही सुलझे । विचार देखने पर ॥१३॥
एक ज्ञातृत्व को बांट दिया । प्राणिमात्र में विभाजित किया । समझबूझ कर बचाया। सर्वत्र काया ॥१४॥
उसका नाम जगज्जोति । उसीसे प्राणिमात्रों हैं जीतें । इसकी रोकडी प्रचीति । प्रत्यक्ष देखें ॥१५॥
पक्षी श्वापद चीटीं कीडे । कोई भी प्राणी जग में । ज्ञातृत्व रहे उनके शरीर में । निरंतर ॥१६॥
जानकर काया को दौडाते । इसी गुण से बच पाते । लुकते और छुपते । समझबूझकर ॥१७॥
सारे जग को बचाती । इस कारण नाम जगज्जोति । उसके जाने से मरते प्राणी । जहां के वहां ॥१८॥
मूल के ज्ञातृत्व का आधार । आगे हुआ विस्तार । जैसे उदक के तुषार । अनंत रेणु ॥१९॥
वैसे देव दैवी देवता भूत । न कहें उन्हें मिथ्य । अपने अपना सामर्थ्य । से घूमते वे सृष्टि में ॥२०॥
सदा वायुस्वरूप में विचरते । स्वईच्छा से रूप पलटते । अज्ञानी प्राणी भ्रम संकल्प में रहते । उन्हें बाधा करते ॥२१॥
ज्ञाता को संकल्प ही रहे ना । इस कारण उन्हें बाधा होये ना । इस कारण आत्मज्ञान का । अभ्यास करें ॥२२॥
करने पर आत्मज्ञान का अध्ययन । सभी कर्मों का होता खंडन । यह रोकडी प्रचित प्रमाण । संदेह नहीं ॥२३॥
ज्ञानबिन कर्म टूटे । यह तो कदापि ना होये । सद्गुरूबिन ज्ञान जुड़े । यह भी अघटित ॥२४॥
इसकारण सद्गुरू करें । सत्संग खोजकर धरें । तत्त्वविचारों का विवरण करें । अंतर्याम में ॥२५॥
निरसन होते ही तत्त्व से तत्त्व का । अपना आप ही तत्त्वतः । अनन्यभाव से सार्थकता । सहज ही हुई ॥२६॥
विचार न कर जो जो किया । वह सब खोटा व्यर्थ गया । इस कारण विचार में प्रवर्तन का । पहले होना चाहिये ॥२७॥
विचार देखे वह पुरुषु । विचार न देखे वह पशु । ऐसे वचन सर्वेशु । ने कहे ठाई ठाई ॥२८॥
सिद्धांत साधने के कारण । पूर्वपक्ष करना पडे खंडन । परंतु साधक को निरूपण । में साक्षात्कार ॥२९॥
श्रवण मनन निजध्यास । प्रचीति से दृढ होते ही विश्वास । नगद साक्षात्कार सायास । करना ही न पडे ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे प्रचीतनाम समास नववा ॥९॥

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Last Updated : December 05, 2023

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