संक्रमणव्रत
( गर्ग - गालव - गौतमादि ) - मेषादि किसी भी अधिकृत राशिको छोड़कर सूर्य दूसरी राशिमें प्रवेश करे ( अथवा सौम्य या याम्यायनकी प्रवृत्ति हो ) उस समय दिन - रात्रि, पूर्वाह्ण - पराह्ण, पूर्वापरिनिश्यर्द्ध या अर्धरात्रिका कुछ भी विचार न करके तत्कल ३ स्त्रान करे और सफेद वस्त्र धारण करके अक्षतादिके अष्टदलपर स्थापित किये हुए सुवर्णमय सूर्यका उपर्युक्त प्रकारसे पूजन करे । साथ ही ' ॐ आकृष्णेन ०' या ' ॐ नमो भगवते सूर्याय ' अथवा ' ॐ सूर्याय नमः ' का जप और आदित्यहदयादिका पाठ करके घी, शक्कर और मेवा मिले हुए तिलोंका हवन करे और अन्न - वस्त्रादि देय वस्तुओंका दान दे तो इनमेंसे एक - एक भी पावन १ करनेवाला होता है । स्मृत्यन्तमें रात्रिको स्त्रान और दान वर्जित किये हैं । इसका ' विष्णु ' ने यह समाधान किया है कि विवाह, व्रत, संक्रान्ति, प्रतिष्ठा, ऋतुस्त्रान, पुत्रजन्म, चन्द्रादित्यके ग्रहण और व्यतीपात - इनके निमित्तका ' रात्रिस्त्रान ' २ और ग्रहण, उद्वाह ( विवाह ) , संक्रान्ति, यात्रा, प्रसवपीडा और इतिहासोंका श्रवण - इनके निमित्तका ' रात्रिदान ' ३ वर्जित नहीं है । यही नहीं, यदि कोई ग्रहणादि उक्त अवसरोंमें रात्रिके विचारसे स्त्रान ( और दान ) न ४ व्रतसंख्यामें यह विशेषता है कि वृद्धवसिष्ठके मतानुसार अयन ५ ( मकर - कर्क - संक्रमण ) और विषुव ( मेष - तुला - संक्रमण ) - इनमें तीन रात्रिका और आपस्तम्बके मतानुसार अयन, ६ विषुव और दोनों ग्रहण - इनमें अहोरात्र ( सूर्योदयसे सूर्योदयपर्यन्त ) का उपवास करनेसे सब पाप छूट जाते हैं । परंतु पुत्रवान् १ गृहस्थीके लिये रविवार, संक्रान्ति, चन्द्रादित्यके ग्रहण और कृष्णपक्षकी एकादशीका व्रत करनेकी आज्ञा नहीं है । अतः उनको चाहिये कि वह व्रतकी अपेक्षा स्त्रान और दान अवश्य करें । इनके करनेसे दाता और भोक्ता दोनोंका कल्याण होता है । षडशीति ( कन्या, २ मिथुन, मीन और धन ) तथा विषुवती ( तुला और मेष ) संक्रान्तिमें दिये हुए दानका अनन्तगुना, अयनमें दिये हुएका करोड़गुना, विष्णुपदीमें दिये हुएका लाखगुना, षडशीतिमें हजारगुना, इन्दुक्षय ( चन्द्रग्रहण ) में सौगुना, दिनक्षय ( सूर्यग्रहण ) में हजारगुना और व्यतीपातमें दिये हुए दानादिका अनन्तगुना फल होता है । देयके विषयमें ३ भी यह विशेषता है कि - १ ' मेष ' संक्रान्तिमें मेढा, २ ' वृष ' में गौ, ३ ' मिथुन ' में अन्न - वस्त्र और दूध - दही, ४ ' कर्क ' में धेनु, ५ ' सिंह ' में सुवर्णसहित छत्र ( छाता ), ६ ' कन्या ' में वस्त्र और गायें, ७ ' तुला ' में अनेक प्रकारके धान्य - बीज ( जौ, गेहूँ और चने आदि ), ८ ' वृश्चिक ' में घर - मकान या झोंपड़े ( पर्णकुटी ), ९ ' धनु ' में बहुवस्त्र और सवारियाँ, १० ' मकर ' में काष्ठ और अग्नि, ११ ' कुम्भ ' में गायोंके लिये जल और घास तथा १२ ' मीन ' में उत्तम प्रकारके माल्य ( तेल - फुलेल - पुष्पादि ) और स्थानका दान करनेसे सब प्रकारकी कामनाएँ सिद्ध होती हैं और संक्रान्ति आदिके अवसरोंमें हव्य - कव्यादि १ जो कुछ दिया जाता है, सूर्यनारायण उसे जन्म - जन्मान्तरपर्यन्त प्रदान करते रहते हैं ।
१. रवेः संक्रमणं राशौ संक्रान्तिरिति कथ्यते ।
स्त्रानदानजपश्राद्धहोमादिषु महाफला ॥ ( नागरखण्ड )
२. अत्र स्त्रानं जपो होमो देवतानां च पूजनम् ।
उपवासस्तथा दानमेकैकं पावनं स्मृतम् ॥ ( संवर्त )
३. विवाहव्रतसंक्रान्तिप्रतिष्ठाऋतुजन्मसु ।
तथोपरागपातादौ स्त्राने दाने निशा शुभा ॥ ( विष्णु )
४. ग्रहणोद्वाहसंक्रान्तियात्रार्तिप्रसवेषु च ।
श्रवणे चेतिहासस्य रात्रौ दानं प्रशस्यते ॥ ( सुमन्तु )
५. रविसंक्रमणे प्राप्ते न स्त्रायाद् यस्तु मानवः ।
चिरकालिकरोगी स्यान्निर्धनश्चैव जातये ॥ ( शातातप )
६. अयने विषुवे चैव त्रिरात्रोपोषितो नरः । ( वृद्धवसिष्ठ )
७. अयने विषुवे चैव ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ।
अहोरात्रोषितः स्त्रातः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ( आपस्तम्ब )
८. आदित्येऽहनि संक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ।
उपवासो न कर्तव्यो गृहिणा पुत्रिणा तथा ॥
' कृष्णैकादशीति ' विशेषः । ( नारद )
९. षडशीत्यां तु यद् दत्तं यद् दानं विषुवद्वये ।
दृश्यते सागरस्यान्तस्तस्यान्तो नैव दृश्यते ॥ ( भारद्वाज )
अर्यने कोटिपुण्यं च लक्षं विष्णुपदीफलम् ।
षडशीतिसहस्त्रं च षडशीत्यां स्मृतं बुधैः ॥
शतमिन्दुक्षये दानं सहस्त्रं तु दिनक्षये ।
विषुवे शतसाहस्त्रं व्यतीपाते त्वनन्तकम् ॥ ( वसिष्ठ )
१०. मेषसंक्रमणे भानोर्मेषदानं महाफलम् । ( विश्वामित्र )
११. संक्रान्तौ यानि दत्तानि हव्यकव्यानि दातृभिः ।
तानि नित्यं ददात्यर्कः पुनर्जन्मनिजन्मनि ॥ ( शातातप )