सप्तसप्तमी
( सूर्योरुण - हेमाद्रि ) - जिस प्रकार योगविशेषसे वारुणी, महावारुणी, महामहावारुणी या माघी, महामाघी, महामहामाघी अथवा जया, विजया, महाजया आदि होती हैं उसी प्रकार वारादिके योगविशेषसे माघ शुक्ल सप्तमीके भी कई भेद होते हैं । यथा १ जया, २ विजया, ३ महाजया, ४ जयन्ती, ५ अपराजिता, ६ नन्दा और ७ भद्रा । अथवा १ अर्कसम्पुटक, २ मरीचि, ३ निम्बपत्र, ४ सुफला, ५ अनोदना, ६ विजया और ७ कामिका - ये सब रविवारको पञ्चतारक ( रो० श्ले० म० ह० ) अथवा पुन्नाम ( मृ० पुन० पु० ह० अनु० ) नक्षत्र होनेसे सिद्ध होती हैं । इनमें व्रत - उपवास, पूजा - पाठ, दान - पुण्य, हवन और ब्राह्मण - भोजनादि करने - करानेसे अनन्त फल होता है । विशेषकर १ अर्कसम्पुटकसे धनवृद्धि, २ मरीचिसे प्रियपुत्रादिका सङ्गम, ३ निम्बपत्रीसे रोगनाश, ४ सुफलासे पुत्र - पौत्र - दौहित्रादिकी अपूर्व अभिवृद्धि, ५ अनोदनासे धन - धान्य, सुवर्ण, चाँदी और आरोग्यलाभ, ६ विजयासे शत्रुनाश और ७ कामिकासे सब प्रकारकी अभीष्टसिद्धि होती है । इनके निमित्त माघ शुक्ल सप्तमीको प्रातःस्त्रानादिके पश्चात् आकाशस्थ सूर्यका अथवा सुवर्णादिनिर्मित सूर्यमूर्तिका यथालब्ध उपचारोंसे पूजन करके खीर, मालपुआ, दाल - भात, दूध - दही अथवा दध्योदनादिका नैवेद्य अर्पण करे और पीछे ब्राह्मणोंको भोजन कराकर स्वयं भोजन करे तो यथोक्त फल मिलता है ।