विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. एक आचार्य, जो कौटिलीय ‘अर्थशास्त्र’नामक सुविख्यात राजनैतिक ग्रंथ का कर्ता माना जाता है । यह एक ऐसा अद्भुत राजनीतिज्ञ था कि, एक ओर इसने मगध देश के नंद राजाओं के द्वारा शासित राजसत्ता को विनष्ट कर, उसके स्थान पर मौर्य साम्राज्य की प्रतिष्ठापना की, एवं दुसरी ओर ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ जैसे राजनीतिशास्त्रविषयक अपूर्व ग्रंथ की रचन कर, संस्कृत साहित्य के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।
[विष्णु. ४.२४.६-७] ;
[भा. १२.१.१२-१३] । इसी कारण कौटिलीय अर्थशास्त्रीय के अन्त में इसने स्वयं के संबंध में जो कथन किया है वह योग्य प्रतीत होता हैः-- येन शास्त्रं च शस्त्रं च नंदराजगता च भूः। अमर्षेणाद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदं कृतभ्।।
[कौ. अ. १५.१.१८०] । (नंदराजाओं जैसे दुष्ट राजवंश के हाथ में गये पृथ्वी, शस्त्र एवं शास्त्रों को जिसने विमुक्त किया, उसी आचार्य के द्वारा इस ग्रंथ की रचना की गयी है) । राजनीतिशास्त्र जैसे अनूठे विषय की चर्चा करने के कारण ही केवल नही, बल्कि चंद्रगुप्त मौर्यकालीन भारतीय शासनव्यवस्था की प्रामाणिक सामग्री प्रदान करने के कारण, ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है । उसकी तुलना मेगॅस्थिनिस के द्वारा लिखित ‘इंडिका’ से ही केवल हो सकती है, जो ग्रंथ अपने संपूर्ण स्वरूप में नही, बल्कि टूटेफूटे एवं पुनरुद्धृत रूप में आज उपलब्ध है ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. यद्यपि इसे चाणक्य, कौटिल्य आदि नामान्तर प्राप्त थे, फिर भी इसका पितृप्रदत्त नाम विष्णुगुप्त था । ई.स. ४०० में रचित ‘कामंदकीय नीति-सार’ में इसका निर्देश विष्णुगुप्त नाम से ही किया गया हैः--नीतिशास्त्रमृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः।। समुद्दधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे।। (अर्थशास्त्ररूपी समुद्र से जिसने नीतिशास्त्ररूपी नवनीत का दोहन किया, उस विष्णुगुप्त आचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ) । चणक नामक किसी आचार्य का पुत्र होने के कारण, इसे संभवतः ‘चाणक्य’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। कौटिलीय अर्थशास्त्र में इसने स्वयं का निर्देश अनेक बार ‘कौटिल्य’ नाम से किया है, जो संभवतः इसका गोत्रज नाम था । कई अभ्यासकों के अनुसार, यह राजनीतिशास्त्र में कुटिल नीति का पुरस्कर्ता था, जिस कारण इसे ‘कौटिल्य’ नाम प्राप्त हुआ था । म. म. गणपतिशास्त्री के अनुसार, इसके नाम का सही पाठ ‘कौटल्य’ था, जो इसके ‘कुटल’ नामक गोत्रनाम से व्युत्पन्न हुआ था ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. हेमचंद्र के ‘अभिधानचिंतामणि’ में इसके निम्नलिखित नामांतर प्राप्त हैः-- वात्स्यायन, मल्लनाग, कुटिल, चणकात्मज, द्रामिल, पक्षिलस्वामिन्, विष्णुगुप्त, अंगुल
[अभिधान. ८३५-८५४] ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. इसके जीवन के संबंध में प्रामाणिक सामग्री अनुपलब्ध है, एवं जो भी सामग्री उपलब्ध है वह प्रायः सारी आख्यायिकात्मक है । उनमें से बहुतसारी सामग्री विशाखदत्त कृत ‘कुद्राराक्षस’ नाटक में प्राप्त है, जहाँ यह ‘ब्राह्मण’ चित्रित किया गया है, एवं महापद्म नंद राजा के द्वारा किये अपमान का बदला लेने के लिए, इसने चंद्रगुप्त मौर्य को मगध देश के राजगद्दी पर प्रतिष्ठापित करने की कथा वहाँ प्राप्त है ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. यह एक राजनीतिशास्त्रविषयक ग्रंथ है, जिसमें राज्यसंपादन एवं संचालन के शास्त्र को ‘अर्थशास्त्र’ कहा गया है । इस ग्रंथ में पंद्रह अधिकरण, एक सौ पचास अध्याय, एक सौ अस्सी प्रकरण एवं छः हजार श्र्लोक है । यह ग्रंथ प्रायः गद्यमय है, जिस कारण इसकी श्र्लोकसंख्या अक्षरों की गणना से दी गयी है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्यशासन से संबंधित समस्त अंगोपांगो का सविस्तृत परामर्ष लिया गया है । इस ग्रंथ में चर्चित प्रमुख विषय निम्नप्रकार है, जो उसमें प्राप्त अधिकरणों के क्रमानुसार दिये गये हैः--१. विनयाधिकारिक (राजा के लिए सुयोग्य आचरण);२. अध्यक्षप्रचार (सरकारी अधिकारियों के कर्तव्य);३. धर्मस्थीय (न्यायविधि); ४. कंटकशोधन (राज्य की अंतर्गत शांति एवं सुव्यवस्था); ५. योगवृत्त (फितुर लोगों का बंदोबस्त); ६. मंडलयोनि (राजा, अमात्य आदि ‘प्रकृतियों’ के गुणवैशिष्ट्य); ७. षाड्गुण्य (परराष्ट्रीय राजकारण); ८. व्यसनाधिकारिक (प्रकृतियों के व्यसन एवं उनका प्रतिकार); ९; अभियास्त्कर्म (युद्ध की तैयारी); १०. सांग्रमिक (युद्धशास्त्र); ११. संघवृत्त (राज्य के नानाविध संघटनाओं के साथ व्यवहार); १२. आबलीयस (बलाढ्य शत्रु से व्यवहार); १४. दुर्गलंभोपाय (दुर्गो पर विजय प्राप्त करना); १४. औपनिषदिक (गुप्तचरविद्या); १५. तंत्रयुक्ति (अर्थशास्त्र की युक्तियाँ) । इस प्रकार इस ग्रंथ में, राज्यशासन के अंतर्गत परराष्ट्रीय, युद्धशास्त्रीय, आर्थिक, वैधानिक, वाणिज्य आदि समस्त अंगो का सविस्तृत परामर्ष लिया गया है, यहाँ तक की, राज्य में उपयोग करने योग्य वजन, नाप एवं काल-मापन के परिमाण भी वहाँ दिये गये है ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. इस ग्रंथ की भाषाशैली आपस्तंब, बौधायन आदि सूत्रकारों से मिलती जुलती है । इस ग्रंथ में उपयोग किये गये अनेक शब्द पाणिनीय व्याकरण, एवं प्रचलित संस्कृत भाषा में अप्राप्य है । उदाहरणार्थ, इस ग्रंथ में प्रयुक्त ‘प्रकृति’ (सम्राट्); ‘युक्त’ (सरकारी अधिकारी); ‘तत्पुरुष’ (नोकर); ‘अयुक्त’ (बिनसरकारी नोकर) ये शब्द संस्कृत भाषा में अप्राप्य, एवं केवल अशोक शिलालेख में ही निर्दिष्ट है ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. अपने ग्रंथ में इसने अर्थशास्त्रसंबंधी ग्रंथ रचना करनेवाले अनेकानेक पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है, एवं लिखा है, ‘पृथिवी की प्राप्ति एवं उसकी रक्षा के लिए पुरातन आचार्यों ने जितने भी अर्थशास्त्रविषयक ग्रंथों का निर्माण किया है, उन सब का सार-संकलन कर प्रस्तुत अर्थशास्त्र की रचना की गयी है’
[कौ. अ. १.१.११] । इसके द्वारा निर्देशित पूर्वाचार्यों में मनु, बृहस्पति, द्रोण-भरद्वाज, उशनस्, किंचलक, कात्यायन, घोटकमुख, बहुदंतीपुत्र, वातव्याधि, विशालाक्ष, पाराशर, पिशुन (नारद), शुक्राचार्य, कौणपदन्त प्रमुख है । महाभारत के अनुसार, प्रारंभ में धर्म, अर्थ एवं काम इन तीन शास्त्रों का एकत्र विचार ‘त्रिवर्गशास्त्र’ नाम से किया जाता था । इस त्रिवर्गशास्त्र का आद्य निर्माता ब्रह्मा था, जिसका संक्षेप सर्वप्रथम शिव ने ‘वैशालाक्ष’ नामक ग्रंथ में किया, उसी ग्रंथ का पुनःसंक्षेप इंद्र ने ‘बाहुदंतक’ नामक ग्रंथ में किया। आगे चल कर बृहस्पति ने इस ग्रंथ का पुनः एक बार संक्षेप किया, जिसमें अर्थवर्ग को प्रधानता दी गयी थी । ये सारे ग्रंथ ‘कोटिलीय अर्थशास्त्र’ के रचनाकाल में यद्यपि अनुपलब्ध थे, फिर भी उशनस् का ‘औशनस अर्थशास्त्र,’ पिशुन का ‘अर्थशास्त्र’ एवं द्रोण भारद्वाज का ‘अर्थशास्त्र’ उस समय उपलब्ध था, जिसके अनेक उद्धरण ‘कोटिलीय अर्थशास्त्र’ में प्राप्त है
[कौ. अ. १.७, १५-१६, ५.६, ८.३] ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. प्राचीन भारतीय साहित्य में से वात्स्यायन, विशाखादत्त, दण्डिन्, बाण्, विष्णुशर्मन् आदि अनेकानेक ग्रंथकार एवं मल्लिनाथ, मेधातिथिन् आदि टीकाकार ‘कोटिलीय अर्थशास्त्र’ से प्रभावित प्रतीत होता है, जो उनके ग्रंथों में प्राप्त उद्धरणों से स्पष्ट है । दण्डिन् के ‘दशकुमारचरित’ में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत होता है कि, राजकुल में उत्पन्न राजकुमारों के अध्ययनग्रंथों में भी इस ग्रंथ का समावेश होता था (दशकुमार. ८) । आगे चल कर ‘कोटिल्य अर्थशास्त्र’ में प्रतिपादित व्यापक राजनीतिशास्त्रविषयक सिद्धान्तों को लोग भूल बैठे, एवं इस ग्रंथ में प्राप्त विषप्रयोगादि कुटिल उपचारों के लिए ही इस ग्रंथ का पठनपाठन होने लगा। इस कारण, इस ग्रंथ को कुख्याति प्राप्त हुई, एवं समाज में इसकी प्रतिष्ठा कम होने लगी। इसी कारण, बाणभट्ट ने अपनी ‘कादम्बरी’ में इस ग्रंथ को अतिनृशंस कार्य को उचित माननेवाला एक हीन श्रेणी का ग्रंथ कहा है । यही कारण है कि, मेधातिथिन् के उत्तरकालीन ग्रंथों में ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ के कोई भी उद्धरण प्राप्त नहीं होते है, जो इस ग्रंथ के लोप का प्रत्यंतर माना जा सकता है । ‘कोटिलीय अर्थशास्त्र’ के आधुनिक कालीन पुनरुद्धार का श्रेय सुविख्यात दाक्षिणात्य पण्डित डॉ. श्यामशास्त्री को दिया जाता है, जिन्होंने इस ग्रंथ की प्रामाणिक आवृत्ति सानुवाद रूप में ई. स. १९०९ में प्रथम प्रकाशित की थी ।
विष्णुगुप्त (चाणक्य) n. कौटिलीय अर्थशास्त्र एवं मेगॅस्थिनिस के ‘इंडिका’ में अनेक साम्यस्थल प्रतीत होते है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैः-- १. इन दोनों ग्रंथों में गुलाम लोगों का निर्देश प्राप्त हैः २. राज्य की सारी जमीन का मालक स्वयं राजा है, जो उसे अपने प्रजाजनो को उपयोग करने के लिए देता है; ३. इन दोनों ग्रंथों में निर्दिष्ट मजदूर एवं व्यापार विषयक विधि-नियम एक सरीखे ही है । इन साम्यस्थलों से प्रतीत होता है कि, उपर्युक्त दोनों ग्रंथों का रचनाकाल एक ही था, जो मनु, नारद, याज्ञल्क्य आदि स्मृतियों से काफ़ी पूर्वकालीन था । इस प्रकार इस ग्रंथ का रचनाकाल ३०० ई. पू. माना जाता है ।