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पितरः n. एक देवतासमूह । इन्हें ‘पिंड’ नामांतर भी प्राप्त है [म.शां.३५५.२०] । मनुष्य प्राणी के पूर्वजों एवं सारे मनुष्यजाति के निर्माणकर्ता देवतासमूह, इन दोनों अर्थो में ‘पितर’ शब्द का उपयोग ऋग्वेद, महाभारत एवं पुराणों में मिलता है । प्राचीन भारतीय वाङ्मय में प्राप्त ‘पितरों’ की यह कल्पना प्राचीन ईरानी वाङ्मय में निर्दिष्ट ‘फ्रवेशि’ से मिलती जुलती है । ऋग्वेदं में प्राप्त ‘पितृसूक्त’ में पितरों के उत्तम, मध्यम, एवं अधम प्रकार दिये गये है [ऋ.१०.१५.१] । ऋग्वेद में निम्नलिखित पितरों का निर्देश प्राप्त हैः
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पितरः n. वायुपुराण में पितरों की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार दी गयी है, कि सबसे पहले ब्रह्माजी ने देवों की उत्पत्ति की । आगे चल कर, देवों ने यज्ञ करना बंद किया । इस कारण क्रुद्ध हो कर, ब्रह्माजी ने देवों को शाप दिया, ‘तुम मूढ बनोंगे’। देवों को मूढता के कारण, पृथ्वी के तीनों लोकों का नाश होने लगा । फिर ब्रह्माजी ने देवों को अपने पुत्रोंकि शरण में जाने के लिये कहा । ब्रह्माजी की इस आज्ञा के अनुसार, देवगण अपने पुत्रों के पास गये । फिर देवपुत्रों ने देवगणों को प्रायश्चित्तादि विधि कथन किये । इस उपदेश से संतुष्ट हो कर, देवगणों ने अपने पुत्रों से कहा, ‘यह उपदेश कथन करनेवाले तुम हमारे साक्षात् ‘पितर’ ही हो । उस दिन से समस्त देवपुत्र ‘पितर’ नाम से सुविख्यात हुये, एवं स्वर्ग में देव भी उनकी उपासना करने लगे [वायु.२.१०] ;[ब्रह्मांड.३.९] । यहॉं पितरः---का प्रयोग ‘पाताः’ (संरक्षण करनेवाला) ऐसा अर्थ से किया गया है । बाकी सारे पुराणों में, पितरों को ब्रह्माजी का मानसपुत्र कहा गया है [विष्णु.१.५.३३] । पुराणों में निर्दिष्ट सात पितृगणों को सप्तर्षिको का पुत्र भी, कई जगह कहा गया है ।
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पितरः n. श्राद्ध के समय ‘प्राचीनावीति’ कर, एवं ‘स्वाध’ कह कर दिया गया अन्न एवं सोम, योगमार्ग के द्वारा पितर भक्षण करते हैं । इन्हें गंडक का मांस, चावल, यव, मूँग, सफेद, पुष्प, फल, दर्भ, उडद, गाय का दूध, घी, शहद आदि पदार्थ विशेष पसंद थे । इनके अप्रिय पदार्थों में मसूरी, सन एवं सेमी के बीज, राजमाष, कुलीथ, कमल, वेल, रुई, धतूरा, कडवा, नीम, अडुलसा, भेड बकरियॉं एवं उनका दूध प्रमुख था । इस कारण, ये सारे पदार्थ ‘श्राद्धविधि’ के समय निषिद्ध माना गया है ।
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पितरः n. पितरों को लोभ, मोह तथा भय ये विकार उत्पन्न होते हैं, किंतु शोक नहीं होता । ये जहॉं जी चाहे वहॉं ‘मनोवेग’ से जा सकते हैं, किंतु अपनी इच्छायें व्यक्त करनें में ये असमर्थ रहते हैं । हर एक कल्प के अंत मे, ये शाप के कारण नष्ट हो जाते हैं, एवं कल्पारंभ में, उःशाप के कारण, पुनः जीवित होते हैं [ब्रह्मांड३.९-१०] ;[वायु.७१.५९-६०] ;[पद्म. सृ.९] ;[ह.वं.१.१६-१८] ;[मत्स्य.१३-१५,१४१] । तैत्तिरीय संहिता के अनुसार, ‘स्मशानचिति’ करने से हरएक मनुष्य को ‘पितृलोक’ में प्रवेश प्राप्त हो सकता है [तै. सं.५.४.११] । धर्मशास्त्र के अनुसार, पितृकार्य से देवकार्य श्रेष्ठ माना गया है ।
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