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द्रुपद n. (सो. अज.) पांचाल देश का सुविख्यात राजा एवं द्रौपदी का पिता । उत्तर पांचाल देश के सोमक राजवंश के पृषत् राजा का यह पुत्र था । इस लिये, इसे ‘सौमकि’ नामांतर भी प्राप्त था [म.आ.परि.१.७५.२७] । पांचालाधिपति पृषत् राजा को काफी वर्षो तक पुत्र नहीं हुआ, पुत्रप्राप्ति के लिये उसने तपस्या की । तप करते समय, एक बार मेनका नामक अप्सरा वहॉं आयी । उसका लावण्य देख कर पृषत् मोहित हो गया, एवं उसका वीर्य स्खलित हो गया । उस वीर्य से एक बालक का जन्म हुआ । वही द्रुपद है [म.आ.परि.१ क्र. ७९, पंक्ति १५२-१७५] । यह मरुद्गणों के अंश से हुआ [म.आ.६१.७४] । द्रुपद को यज्ञसेन [म.आ.१२२.२६] , पांचाल, तथा पार्षत नामांतर भी प्राप्त थे ।
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द्रुपद n. द्रुपद ने अस्त्रशिक्षा तथा धनुर्विद्याशिक्षा, द्रोणाचार्य के पिता भरद्वाज के निरीक्षण में प्राप्त की थी । इसलिये द्रोण द्रुपद का गुरुबंधु था । धनुर्विद्या पूर्ण होने पर द्रुपद ने भरद्वाज को गुरु दक्षिणा दी, एवं वचन दिया, ‘मेरे राज्यारुढ होने पर यदि तुम या तुम्हारा पुत्र द्रोण मेरे पास सहायता मॉंगने आओगे, तो मैं तुम्हें अवश्य सहायता करुँगा’। बाद में द्रुपद अपने राज्य में चला गया । द्रुपद को राज्याधिकार प्राप्त होने के बाद, पूर्ववचना नुसार इसकी सहायता मॉंगने के लिये, द्रोण इसके पास आया । परन्तु मदांध हो कर, द्रुपद ने सहायता की जगह द्रोण का अत्यंत उपहास किया । इस अपमान का बदला लेने के लिये, द्रोन ने पांडवों का आचार्यत्व मान्य किया, एवं उनके द्वारा द्रुपद से प्रतिशोध लिया (द्रोण देखिये) । बाद में द्रोण ने इसका आधा (उत्तर पांचाल) राज्य स्वयं ले कर, दूसरा आधा (दक्षिण पांचाल) राज्य वापस दे दिया । द्रुपद गंगातट पर दक्षिण पांचाल में माकंदी में राज्य करने लगा [म.आ.१२८.१५] । प्राचीन पांचाल ही आधुनिक रोहिलखंड है । सोमक एवं सृंजय राजवंश के लोग भी इसके साथ दक्षिण पांचाल पधारे । ये सारे लोग भारतीय युद्ध में द्रुपद के साथ पांडवों के पक्ष में शामिल थे ।
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द्रुपद n. द्रोण ने अपने शिष्यों के द्वारा इसकी दुर्दशा करने के कारण, द्रुपद द्रोण पर अत्यंत क्रोधित हुआ, तथा उसके नाश के लिये उपाय ढूँढने लगा । द्रोणविनाशक पुत्र की प्राप्त के लिये यह ऋषियों के एवं ब्राह्मणों के आश्रम में घूमने लगा । एक बार उपयाज ऋषि के कहने पर, याज नामक काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण के आश्रम में यह गया । वह ब्राह्मण अत्यंत लोभी होने के कारण, कौनसा भी असूक्त कर्म करने के लिये सदा तैयार रहता था । द्रुपद ने उसे पुत्रप्राप्ति का उपाय पूछा, एवं पुत्र होने पर एक अर्बुद धेनु दान देने का प्रलोभन उसे दिखाया [म.आ.१६.२१] । उसपर पुत्रप्राप्ति के लिये, यज्ञ करने की सलाह याज ने इसे दी । उपयाज के उस सलाह के अनुसार, उपयाज तथा उसका भाई याज दोनों को अपने साथ नगर में ला कर, इसने यज्ञ किया । यज्ञसमाप्ति पर सिद्ध किया गया चरु खाने के लिये, याज ने द्रुपद की पत्नी सौत्रामणि को बुलाया । परन्तु उसके आने में विलंब होने पर, याज ने वह चरु अग्नि में झोंक दिया । तत्काल अग्नि में से एक कवचकुंडलधारी दिव्य पुरुष, तथा एक श्यामवर्णा स्त्री प्रकट हुई । उन्हें अपने पुत्र एवं पुत्री मान मान कर, इसने उनके नाम धृष्टद्युम्न तथा द्रौपदी रख दिये [म.आ.१५५] ।
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द्रुपद n. द्रौपदी उपवर होते ही द्रुपद ने उसके स्वयंवर की तैयारी की । मत्स्ययंत्र का, धनुष्य द्वारा वेध करने वाले को ही द्रौपदी दी जायेगी, ऐसी शर्त इसने रखी थी । ब्राह्मण भेष में पांडव इस स्वयंवर में आये थे । अर्जुन ने शर्त पूरी की । इसे द्रुपद ने द्रौपदी दी । ‘क्षत्रियों को छोड कर द्रुपद ने एक ब्राह्मण को अपनी कन्या दी, एवं हमारा अपमान किया,’ ऐसी सारे क्षत्रिय राजाओं की कल्पना हुई । उस कारण वें द्रुपद से लडने के लिये प्रवृत्त हो गये । किंतु पांडवों ने उन सब का पराजय किया । बाद में द्रुपद ने अपना पुरोहित पांडवों के निवासस्थान पर भेजा । द्रौपदीस्वयंवर का प्रण जीतने वाले पांडव ही हैं, यह जान कर इसे अत्यंत आनंद हुआ । बाद में बडे ही समारोह के साथ, इसने पॉंच पांडवों के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया [म.आ.१९०] । भारतीय युद्ध में द्रुपद, पांडवों के पक्ष में प्रमुख था । इसने पांडवों की ओर से मध्यस्थता करने के लिये, अपने पुरोहित को धृतराष्ट्र के पास भेजा था । परंतु समझौते के सारे प्रयत्न निष्फल हो कर युद्ध प्रारंभ हुआ । तब अपने पुत्र, बांधव तथा सेना के सहित द्रुपद, पांडवो की सहायता के लिये, युद्ध में शामिल हुआ । भारतीय युद्ध में इसने काफी पराक्रम दर्शाया । भारतीय युद्ध के पंद्रहवे दिन हुए, रात्रियुद्ध में, मार्गशीर्ष वद्य एकादशी के दिन प्रभात समय में, द्रोण के हाथों इसकी मृत्यु हुई [म.द्रो.१६१.३४] ; भारत-सावित्री । द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न के सिवा, द्रुपद को शिखंडी, सुमित्र, प्रियदर्शन, चित्रकेतु, सुकेतु, ध्वजकेतु [म.आ.परि.१.क्र.१०३. पंक्ति.१०८-११०] , वीरकेतु [म.द्रो.९८.३३] , सुरथ एवं शत्रुंजय [म.द्रो.१३१. १२६] , नामक अन्य पुत्र थे । धृष्टकेतु नामक पौत्र भी इसे था । इसके पुत्रों में से शिखंडी जन्म के समय स्त्री था । बाद में एक यक्ष के प्रसाद से उसे पुरुषत्व प्राप्त हुआ । द्रुपद ने उसे शंकर से भीष्म के वध के लिये मॉंग लिया था (सौत्रामणि देखिये) ।
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