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ब्रह्मन् n. एक पौराणिक देवता, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का स्त्रष्टा माना जाता है । इसने सर्वप्रथम प्रजापति बनाये, चिन्होंने आगे चल कर प्रजा का निर्माण किया । वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति देवता से इस पौराणिक देवता का काफी साम्य है एवं प्रजापति की बहुत सारी कथायें इससे मिलती जुलती है (प्रजापति देखिये) । सृष्टि के आदिकर्त्ता एवं जनक चतुर्मुख ब्रह्मन् निर्देश, जो पुराणों में अनेक बार आता है, वह वैद्क ग्रन्थों में अप्राप्य है । किन्तु वेदों में ‘धाता’, ‘विधाता’, आदि ब्रह्मा के नामांतर कई स्थानों पर आये है । उपनिषद् ग्रन्थों में ब्रह्मन् का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहॉं इसके सम्बन्ध में सारे निर्देश एक तत्त्वज्ञ एवं आचार्य के नाते से किये गये है । वहॉं उसे सृष्टि का सृजनकर्ता नहीं माना है । उपनिषदों के अनुसार यह परमेष्ठिन् ब्रह्म नामक आचार्य का शिष्य था [बृ.उ.२.६.३, ४.६.३] । सारी सृष्टि में यह सर्वप्रथम को ब्रह्मविद्या प्रदान की थी [मुं.उ.१.१.२] । इसी प्रकार इसने नारद को भी ब्रह्म विद्या का ज्ञान कराया थ [गरुड.उ.१-३] । छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्मोपनिषद् नामक एक छोटा उपनिषद् प्राप्त है, जो सुविख्यात ब्रह्मोपनिषद् से अलग है । इस उपनिषद् का ज्ञान ब्रह्मा ने प्रजापति को कराया, एवं प्रजापति ने ‘मनु’ को कराया था [छां.उ.३.११.३-४] । ब्रह्मन् नामक एक ऋत्विज का निर्देश भी उपनिषद् ग्रन्थों में प्राप्त है ।
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ब्रह्मन् n. पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु ने कमल रुपधारी पृथ्वी का निर्माण किया, जिससे आगे चल कर ब्रह्मन् उत्पन्न हुआ [मत्स्य.१६९.२] ;[म.व.परि.१ क्र.२७ पंक्ति.२८.२९] ;[भा.३.८.१५] । महाभारत के अनुसार, भगवान विष्णु जब सृष्टि के निर्माण के सम्बन्ध में विचारनिमग्न थे, उसी समय उनके मन में जो सृजन की भावना जागृत हुयी, उसीस ब्रह्मा का सृजन हुआ [म.शां.३३५.१८] । महाभारत में अन्यत्र कहा है कि, सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वत्र अन्धकार ही था । उस समय एक विशाल अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था । उस दिव्य एवं महान् अण्ड में से सत्यस्वरुप ज्योर्तिमय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रुप से प्रविष्ट हुआ । उस अण्ड से ही प्रथमदेहधारी प्रजापालन देवगुरु पितामह ब्रह्मा का अविर्भाव हुआ । एक तेजोमय अण्ड से सृष्टि का निर्माण होने की यह कल्पना, वैदिक प्रजापति से, चिनी ‘कु’ देवता से, एव मिस्त्र ‘रा’ देवता से मिलती जुलती है प्रजापति देखिये, म.आ.१.३०;[स्कंद.५.१.३] । विष्णु के अनुसार, विश्व के उत्पत्ति आदि के पीछे अनेक अज्ञात अगम्य शक्तियों का बल सन्निहित है, जो स्वयं ब्रह्मन् है । यह स्वयं उत्पत्ति आदि की अवस्था से अतीत है । इसी कारण इसकी उत्पत्ति की सारी कथाएँ औपचारिक हैं [विष्णु१.३] । महाभारत में ब्रह्मन् के अनेक अवतारों का वर्णन प्राप्त है, जहॉं इसके निम्नलिखित अवतारों का विवरण दिया गया हैः---मानस, कायिक, चाक्षुष, वाचिक. श्रवणज, नासिकाज, अंडज, पद्मज (पाद्म) । इनमें से ब्रह्मन् का पद्मज अवतार अत्यधिक उत्तरकालीन माना जाता है [म.शां.३५७.३६-३९] । सृष्टि के सृजन के समय, इसने सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा, सिंचनकर्ता विष्णु, एवं संहारकर्ता रुद्र ये तीनों रुप स्वयं धारण किये थे । यही नहीं, सृष्टि के पूर्व मत्स्य, तथा सृष्टि के सृजनोपरांत वाराह अवतार भी लेकर इसने पृथ्वी का उद्धार भी किया था ।
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ब्रह्मन् n. यह मूलतः एक मुख का रहा होगा, किन्तु पुराणों में सर्वत्र इसे चतुर्मुख कहा गया है, एवं उसकी कथा भी बताई गयी है । इसने अपने शरीर के अर्धभाग से शतरुपा नामक एक स्त्री का निर्माण किया, जो इसकी पत्नी बनी । शतरुपा अत्यधिक रुपवती थी । यह उसके रुप के सौन्दर्भ में इतना अधिक डूब गया कि, सदैव ही उसे देखते रहना ही पसन्द करता था । एक बार अनिंद्य-सुंदरी शतरुपा इसके चारों ओर परिक्रमा कर रही थी । वहीं पास में इसके मानसपुत्र भी बैठे थे । अब यह समस्या थी कि, शतरुपा को किस प्रकार देखा जाये कि, वह कभी ऑंखो से ओझल न हो । बार बार मुड मुडकर देखना पुत्रों के सामने अभद्रता थी । अतएव इसने एक मुख के स्थान पर चार मुख धारण किये, जो चारों दिशाओं की ओर देख सकते थे । शतरुपा एक बार आकाशमार्ग से ऊपर जा रही थी । अतएव इसने जटाओं के उपर एक पॉंचवॉं मुख भी धारण किया था, किन्तु वह बाद को शंकर द्वारा तोड डाला गया । इसे स्त्री के रुप सौन्दर्य में लिप्त होने कारण, अपने उस समस्त तप को जडमूल से खों देना पडा, जो इसने अपने पुत्रप्राप्ति के लिए किया था [मत्स्य.३.३०-४०] । ‘जैमिनिअश्वमेध’ में ब्रह्मा की एक कथा प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, अति प्राचीन काल में ब्रह्म को चार से भी अधिक मुख प्राप्त थे । बक दाल्भ्य नामक ऋषि को यह अहंकार हो गया था कि, मैं ब्रह्मा से भी आयु में ज्येष्ठ हूँ । उसका यह अहंकार चूर करने के लिए, ब्रह्मा ने पूर्वकल्प में उत्पन्न हुए ब्रह्माओं का दर्शन उसे कराया । उन ब्रह्माओं को चार से भी अधिक मुख थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश प्राप्त है [जै.अ.६०-६१] ।
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ब्रह्मन् n. शंकर ने इसका पॉंचवा मुख क्यों तोडा इसकी विभिन्न कथायें पुराणों में प्राप्त हैं । मत्स्य के अनुसार, एक बार शंकर की स्तुति कर ब्रह्मा ने उसे प्रसन्न किया एवं यह वर मॉंग कि वह उसका पुत्र बने । शंकर को इसका यह अशिष्ट व्यवहार सहन न हुआ, और उसने क्रोधित होकर शाप दिया, ‘पुत्र तो तुम्हारा मैं बनूँगा, किन्तु तेरा यह पॉंचवा मुख मेरे द्वारा ही तोडा जायेगा’। सृष्टिनिर्माण के समय इसने ‘नीललोहित’ नामक शिवावतार का निर्माण किया । शेष सृष्टि का निर्माण करते समय, इसने उस शिवावतार का स्मरण न किया, जिसकारण क्रुद्ध होकर उसने इसे शाप दिया, ‘तुम्हारा पॉंचवॉं मस्तक शीघ्र ही कटा जायेगा’। मत्स्य में अन्यत्र लिखा है कि, इसके पॉंचवें मुख के कारण बाकी सारे देवों का तेज हरण किया गया । एक दिन यह अभिमान में आकर शंकर से कहने लगा, ‘इस पृथ्वी पर तुम्हारे अस्तित्त्व होने के पूर्व मैं यहॉं निवास करता हूँ, मैं तुमसे हर प्रकार ज्येष्ठ हूँ’। यह सुनकर क्रोधित हो कर शंकर ने सहजभाव से ही इसके मस्तक को अपने अँगूठे से मसल कर पृथ्वी पर ऐसा फेंक दिया, मानों किसी ने फूल को क्रूरता के साथ डाली से नोच कर जुदा कर दिया हो [मत्स्य. १८३. ८४-८६] । इसका मस्तक तोडने के कारण, शंकर को ब्रह्महत्य का पाप लगा । उस पाप से छुटकारा पाने के लिये, ब्रह्मा के कपाल को लेकर उसने कपालीतीर्थ में उसका विसर्जन किया [पद्म. सृ.१५] । पॉंचवे मस्तक के कट जाने के उपरांत, इसके अन्य मस्तक स्तम्भित हो गये । उनमें से स्वेदकण निकल कर मस्तक पर छा गये । जिसे देखकर इसने उन स्वेदकणों को हाथ से निचोड कर जमीन में फेंका । फेंकते ही उससे एक रौद्र पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसको इसने शंकर के पीछे पीछे छोड दिया । अंत में शंकर ने उसे पकड कर विष्णु के हवाले किया [स्कंद ५.१.३-४] । ब्रह्मा एवं शंकर के आपसी विरोध की और अन्य कथाएँ भी पुराणों में प्राप्त हैं । एक बार शिवपत्नी सती के रुपयौवन पर यह आकृष्ट हुआ, जिस कारण क्रुद्ध हो कर शंकर इसे मारने दौडा । किन्तु विष्णु ने शंकर को रोकने का प्रयत्न किया । फिर भी शंकर ने इसे ‘ऐंद्रशिर’ एवं’ विरुप’ बनाया । इसकी विरुपता के कारण सारे संसार में यह अपूज्य ठहराया गया [शिव. रुद्र. स.२०] । एक बार शंकर ने अपनी संध्या नामक कन्या का दर्शन इसे कराया । उसे देखते ही ब्रह्मा मोहित हो गया । शंकर ने इसका यह अशोभनीय एवं अनुवित कार्य इसके पुत्रों को दिखा कर, उनके द्वारा इसका उपहास कराया । अपने इस अपमान का बदला लेने के लिये, ब्रह्मा ने दक्षकन्या सती का निर्माण कर, दक्ष द्वारा शंकर का अत्यधिक अपमान कराया [स्कंद २.२.२३] । इसे दाहिने अँगूठे से दक्ष का, एवं बाये से दक्षपत्नी का निर्माण हुआ था [म.आ.६०.९] । स्कंद.के अनुसार, सृष्टि का निर्माण करने के लिए ब्रह्मा एवं नारायण सर्वप्रथम उत्पन्न हुए थे । सृष्टि निर्माण करने के पश्चात् ब्रह्मा तथा नारायण में यह विवाद हुआ कि, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह झगडा जब तय न हो सका, तो दोनों शंकर के पास गये । वहॉं शंकर ने दोनों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि, जो व्यक्ति शिवलिंग के आदि एवं अन्त को शोध कर, सर्वप्रथम उसकी सूचना उसे देगा, वही ज्येष्ठ बनने का अधिकारी होगा । ब्रह्मा ने उर्ध्वमार्ग से शोध करना आरम्भ किया, किन्तु इसे सफलता न मिली । तब इसने ‘गौ’ एवं ‘केतकी’ को अपना झूठा गवाह बना कर, शंकर के सामने पेश करते हुए कहा, ‘मैं ने शिवलिंग के आदि एवं अन्त शोध किया है, जिसके प्रत्यक्ष गवाह देनेवाले गौ एवं ‘केतकी’ सम्मुख है’। यह सुन कर ब्रह्मा को ज्येष्ठपद दिया गया । किन्तु बाद में असलियत मालूम होने के उपरांत, शंकर ने नारायण को ज्येष्ठ, एवं इसे कनिष्ठ एवं अपूज्य ठहराया । पश्चात्, शंकर के कथनानुसार, इसने गंधमादन पर्वत पर एक यज्ञ किया, जिस कारण श्रौत एवं स्मार्त धर्मविधियों में इसे पूज्यत्व प्रदान किया गया [स्कंद.१.१.६, १.३.२,९-१५,३.१.१४] ।
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