भृगु
भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।
भृगुजी ब्रह्माके मानसपुत्रोंमेसे एक हैं । वे एक प्रजापति भी हैं, चाक्षुष मन्वन्तरमें इनकी सप्तर्षियोंमे गणना होती है । इनकी तपस्याका अमित प्रभाव है । दक्षकी कन्या ख्यातिको इन्होंने पत्नीरुपमें स्वीकार किया था; उनसे धाता, विधाता नामके दो पुत्र और श्री नामकी के कन्या हुई । इन्हीं श्रीका पाणिग्रहण भगवान् नारायणने किया था । इनके और बहुतसे पुत्र हैं, जो विभिन्न मन्वन्तरोंमें सप्तर्षि हुआ करते हैं । वाराहकल्पके दसवें द्वापरमें महादेव ही भृगुके रुपमे अवतीर्ण होते हैं । कहीं - कहीं स्वायम्भुव मन्वन्तरके सप्तर्षियोंमें भी भृगुकी गणना है । सुप्रसिद्ध महर्षि च्यवन इन्हीके पुत्र हैं । इन्होंने अनेकों यज्ञ किये - कराये हैं और अपनी तपस्याके प्रभावसे अनेकोंको सन्तान प्रदान की है । ये श्रावण और भाद्रपद दो महीनोंमे भगवान् सूर्यके रथपर निवास करते हैं । प्रायः सभी पुराणोंमें महर्षि भृगुकी चर्चा आयी है । उसका अशेषतः वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता । हाँ, उनके जीवनकी एक बहुत प्रसिद्ध घटना, जिसके कारण सभी भक्त उन्हें याद करते हैं, लिख दी जाती है ।
एक बार सरस्वती नदीके तटपर ऋषियोंकी बहुत बड़ी परिषद बैठी थी । उसमें यह विवाद छिड़ गया कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश - इन तीनोंमें कौन बड़ा है । इसका जब कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं हुआ, तब इस बातका पता लगानेके लिये सर्वसम्मतिसे महर्षि भृगु ही चुने गये । ये पहले ब्रह्माकी सभाभें गये और वहाँ अपने पिताको न तो नमस्कार किया और न उनकी स्तुति की । अपने पुत्रकी इस अवहेलनाको देखकर ब्रह्माजीके मनमें बड़ा क्रोध आया; परन्तु उन्होंने अपना पुत्र समझकर इन्हें क्षमा कर दिया, अपने क्रोधको दबा लिया । इसके बाद ये कैलासपर्वतपर अपने बड़े भाई रुद्रदेवके पास पहुँचे । अपने छोटे भाई भृगुको आते देखकर आलिङ्गन करनेके लिये वे बड़े प्रेमसे आगे बढ़े, परन्तु भृगुने यह कहकर कि ' तुम उन्मार्गगामी हो ' - उनसे मिलना अस्वीकार कर दिया । उन्हें बड़ा क्रोध आया और वे त्रिशूल उठाकर इन्हें मारनेके लिये दौड़ पड़े । अन्ततः पार्वतीने उनके चरण पकड़कर प्रार्थना की और क्रोध शान्त किया । अब विष्णु भगवानकी बारी आयी । ये बेखटके वैकुण्ठमें पहुँच गये । वहाँ ब्राह्मण - भक्तोंके लिये कोई रोक - टोक तो है नहीं । ये पहुँच गये भगवानके शयनागारमें । उस समय भगवान् विष्णु सो रहे थे और भगवती लक्ष्मी उन्हें पंखा झल रही थीं, उनकी सेवामें लगी हुई थीं । इन्होंने बेधड़क वहाँ पहुँचकर उनके वक्षःस्थलपर एक लात मारी । तुरंत भगवान् विष्णु अपनी शय्यापरसे उठ गये और इनके चरणोंपर अपना सिर रखकर नमस्कार किया और बोले - ' भगवन् ! आइयेआइये, विराजिये । आपके आनेका समाचार न जाननेके कारण ही मैं आपके स्वागतसे वञ्चित रहा । क्षमा कीजिये । क्षमा कीजिये ! कहाँ तो आपके बड़ा कष्ट हुआ ।' यह कहकर उनके चरण अपने हाथों दबाने लगे । उन्होंने कहा - ' ब्राह्मणदेवता ! आपने मुझपर बड़ी कृपा की । आज मैं कृतार्थ हो गया । अब यह आपके चरणोंकी धूलि सर्वदा मेरे हदयपर ही रहेगी ।' कुछ समय बाद महर्षि भृगु वहाँसे लौटकर ऋषियोंकी मण्डलीमें आये और अपना अनुभव सुनाया । इनकी बात सुनकर ऋषियोंने एक स्वरसे यह निर्णय किया कि जो सात्त्विकताके प्रेमी हैं, उन्हें एकमात्र भगवान् विष्णुका ही भजन करना चाहिये । महर्षि भृगुका साक्षात् भगवानसे सम्बन्ध है, ये परम भक्त हैं । इनकी स्मृति हमें भगवानकी स्मृति प्रदान करती हैं ।
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Last Updated : January 22, 2014
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