बाणासुर

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः ।

बेन वामनरुपाय हरयेऽदायि मेदिनी ॥

तस्यौरसः सुतो बाणः शिवभक्तिरतः सदा ।

मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः ॥

 

' जिन्होंने वामनरुपधारी श्रीविष्णुभगवानको यह समस्त पृथ्वी दान दे दी, उन्हीं महात्मा बलिके सौ पुत्र थे; उन सौमें बाणासुर सबसे बड़े थे । ये बड़े मान्य, उदार, बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ, दृढव्रत और शिवजीके परम भक्त थे ।'

असुरवंशमें प्रह्लादजी ऐसे कुलदीपक हुए कि उनके प्रभावसे उनका सारा वंश ही भक्त हो गया । प्रह्लादजी स्वयं परम भागवत विष्णुभक्त थे । पुण्यवान् परम भागवतोंकी जहाँ गणना होती है, वहाँ प्रह्लादजीका सर्वप्रथम नाम लिया जाता है । इनके पुत्र विरोचन थे; विरोचनके पुत्र बलि दानिशिरोमणि और इतने सत्यवादी हुए कि साक्षात् विष्णुभगवानको उनके यज्ञमें आना पड़ा और छदमवेशसे उन्हें बाँधकर अन्तमें स्वयं बलिके प्रेमपाशमें बँध जाना पड़ा । और तबसे अबतक उनके दरवाजेपर द्वारपाल बनकर आप विराजमान हैं । बलिके सौ पुत्र हुए, उनमें बाणासुर सबसे ज्येष्ठ थे । इन्होंने हिमालय प्रान्तमें केदारनाथजीके पास शोणितपुरको अपनी राजधानी बनाया । ये परम शिवभक्त और दृढप्रतिज्ञ थे । इनके हजार हाथ थे । ये हजारों वर्षोतक शिवजीकी आराधना करते रहे । जब ताण्डव - नृत्यके समये शंकरजीलयके साथ नाचते, तब ये हजार हाथोंसे बाजे बजाते । इनकी सेवासे भूतनाथ भवानीपति परम प्रसन्न हुए । उन्होंने इन्हें वरदान माँगनेको कहा । इन्होंने प्रार्थना की -- ' प्रभो ! मुझे तो आपकी कृपा चाहिये । जैसे मेरे पिताके यहाँ सदा विष्णुभगवान् विराजमान रहकर उनकी पुरीकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी मेरी राजधानीके निकट सदा निवास करें और मेरी रक्षा करते रहें ।' आशुतोष भगवानने कहा, ' अच्छी बात है, ऐसा ही होगा ।' यह कहकर शंकरजी वहाँ रहने लगे ।

अधिक बल, विद्या, धन, वैभव आदि पाकर अभिमानका होना स्वाभाविक है; किंतु जिनके कोई इष्ट हैं, जो भक्त हैं, उनके अभिमानरुपी रोगको कल्याणकारी श्रीइष्टदेव शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं । इसी प्रकार बाणासुरको भी अपने बलका और हजार भुजाओंका अभिमान हो गया था । वह पृथ्वीमें लड़ाईके लिये अपने समान बलवालेको खोजता रहा । दिग्गज उसके बलको देखकर भाग गये, देवता डर गये और इन्द्रने हार मान ली । तीनों लोकोंमें बाणासुरको कोई भी परास्त नहीं कर सका । इससे उसका अभिमान और बढ़ गया । उसने शिवजीके पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा -- ' भगवन् ! ये सहस्र बाहु मेरे लिये भाररुप ही हैं, इनसे युद्ध करनेके लिये कोई बली मुझे मिलता ही नहीं । क्या करुँ ? कैसे इनकी खुजली मिटाऊँ ?'

सर्वान्तर्यामी शिव उसकी दर्पभरी वाणीका अभिप्राय समझ गये । वे तो दर्पहारी हैं ही, उन्होंने बाणासुरको एक पड़ेगी, उसी दिन समझना कि तुझसे अधिक बली तुझसे वाणासुर प्रसन्नताके साथ घर लौट गया । कालान्तरमें भगवान् वासुदेवने आकर उसके मदको चूर्ण किया और उसकी हजार भुजाओंमेंसे केवल चारको छोड़कर सभीको काट डाला । इतिहास इस प्रकार हैं --

बाणासुरकी एक ऊषा नामकी षोडशवर्षीचा विवाहयोग्य कल्पा थी, उसने एक दिन भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीके पौत्र अनिरुद्वको स्वप्नमें देखा । ऐसी मनोहर मूर्तिको देखते ही वह उसपर अनुरक्त हो गयी । उसकी एक चित्ररेखा नामकी सखी थी, वह चित्रविद्या और आकाशमें उड़नेकी विद्या सबके जानती थी । जब ऊषा जागी और घबरायी, तब चित्रानें सबके चित्र बनाये । जब अनिरुधजीका चित्र बनाया, तब ऊषाने कहा -- ' येही हे हैं !' चित्ररेखा योगबलसे वहाँ गयी और रात्रीमें सोते हुए अनिरुद्धको उठा लायी और उन्हें ऊषाके महलोंके रख दिया ।

बहुत दिनोंतक अन्तःपुरमें रहनेसे धीरे - धीरे यह बात ऊषाके पिता बाणासुरके कानोंतक पहुँची । उसे बड़ा क्रोध आया और उसने एक दिन स्वयं जाकर अनिरुद्धको पकड़ लिया और उसने एक दिन स्वयं जाकर अनिरुद्धको पकड़ लिया और उन्हें कारागारमें बाँधकर डाल दिया । इधर - की - उधर खबर देनेवाले, वायुसे भी अधिक वेगवान्, चतुर्दश भुवनोंमें बिना रोक - टोक घूमनेवाले देवर्षि नारदजीने यह सब वृतान्त द्वारकापुरीमें जाकर समस्त यादवोंसे और श्रीकृष्णभगवानसे कहा । इसे सुनकर भगवान् बड़ी भारी सेनासहित शोणितपुर पर चढ़ आये । आकर बाणासुरसे युद्ध किया । अन्तमें उसने अपने इष्टदेव शंकरजीको स्मरण किया । शंकरजी तो औढरदानी ठहरे, भक्तसे पूछा -- ' क्या चाहते हो ?' उसने कहा, ' मेरे लिये आप युद्ध करें ।' ' एवमस्तु ' कहकर भगवान् भोलेनाथ युद्ध करने लगे । भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीका और शिवजीका परस्पर बड़ा घोर युद्ध हुआ । दोनों ही ईश्वर थे । एक ही भगवान् दो रुपोंमें प्रकट थे । उनका युद्ध ही क्या था, भक्तको मान देने और भक्तिकी मर्यादा बढ़ानेके लिये ही उन्होंने यह लीला रची थी । अन्तमें दोनों ओरसे प्रेमसन्धि उन्होंने यह लीला रची थी । अन्तमें दोनों ओरसे प्रेमसन्धि हुई । शिवजीने भगवानने कहा -- ' प्रभो ! आपको भला, कौन जीत सकता है ! यह बाणासुर मेरा बड़ा भक्त है, इसपर कृपा कीजिये, इस अभयदान दीजिये ।'

भगवानने कहा -- ' एक तो यह आपका भक्त दूसरे प्रह्लादका प्रपौत्र, मैं इसे मारुँगा नहीं । मैंने प्रह्लादके वंशजोंको न मारनेकी प्रतिज्ञा की है । इसकी भाररुप जो ये हजार भुजाएँ हैं, उन्हें मैं काटे देता हूँ; केवल चार भुजाएँ इसकी सदा रहेंगी । यह आजसे आपका प्रधान पार्पद माना जायना और सदा अजर - अमर रहेगा ।' यह कहकर भगवनने बाणासुरको अभयदान दे किया । उसी दिनसे परम शिवभक्त बाणासुर अजर - अमर हो गये ।

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Last Updated : January 22, 2014

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