बलि

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


किमात्मनानेन जहाति योऽनतः

किं रिवथहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः ।

जायया संसृतिहेतुभूतया

मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः ॥

( श्रीमद्भा० ८ । २२ । ९ )

भक्तश्रेष्ठ प्रह्लादके पुत्र विरोचनकी पत्नी सुरोचनासे दैत्यकुलकी कीर्तिको अमर करनेवाले उदारमना बलिका जन्म हुआ था । विरोचनके पश्चात् ये ही दैत्येश्वर हुए । जब दुर्वासा ऋषिके शापसे इन्द्रकी श्री नष्ट हो गयी, तब दैत्य - दानवोंकी सेना लेकर बलिने देवताओंपर चढ़ाई की और स्वर्गपर पूरा अधिकार कर लिया । देवता पराजित होकर ब्रह्माजीके पास गये । ब्रह्माजीने भगवानकी स्तुति की । वे प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने क्षीरसिन्धुके मन्थनका आदेश दिया । भगवान् विष्णुकी सम्मतिसे इन्द्रने बलिसे सन्धि कर ली । अमृतकी प्राप्तिके लिये देवता एवं दैत्य दोनोंने मिलकर समुद्रका मन्थन किया, परंतु सफलता तो सदा श्रीहरिके चरणोंमें ही रहती है । भगवानका आश्रय लेनेके कारण देवताओंको अमृत मिला और भगवानसे विमुख दैत्य उससे वञ्चित ही रह गये !

भगवानने मोहिनी रुप धारण करके क्षीरसमुद्रसे निकले अमृत - कलशको, जिसे दैत्योंने छीन लिया था, ले लिया और युक्तिपूर्वक देवताओंको अमृत पिला दिया । इस भेदके प्रकट होनेपर दैत्य बहुत ही क्रुद्ध हुए । देवताओं एवं दैत्योंमें बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया । भगवानकी कृपा देवताओंपर थी, अतः उनको विजयी होना ही था । दैत्य पराजित हुए । बहुत - से मारे गये । स्वयं दैत्यराज बलि तथा दूसरे सभी अपने पक्षके सैनिकोंके मृत या धाय शरीरोंको उठा लिया और वे उन्हें अस्ताचल पर्वतपर ले गये । वहाँ दैत्यगुरु शुक्राचार्यजीने अपनी संजीवनी विद्यासे सभी मृत दैत्योंको जीवित कर दिया ।

बलि पहलेसे ही ब्राह्मणोंके परम भक्त थे । अब तो आचार्य शुक्रने उन्हें जीवन ही दिया था । वे सब प्रकारसे गुरु एवं विप्रोंकी सेवामें लग गये । उनकी निश्छल सेवासे आचार्य बड़े ही प्रसन्न हुए । शुक्राचार्य जीने बलिसे यज्ञ कराना प्रारम्भ किया । उस विश्वजित् यज्ञके सम्पूर्ण होनेपर सन्तुष्ट हुए अग्निने प्रकट होकर बलिको घोड़ोसे जुता रथ, दिव्य धनुष, अक्षय त्रोण एवं अभेद्य कवच प्रदान किये । आचार्यकी आज्ञासे उनको प्रणाम करके बलि उस रथपर सवार हुए और उन्होंने स्वर्गपर चढ़ाई कर दी । इस बार उनका तेज असह्य था । देवगुरु बृहस्पतिके आदेशसे देवता बिना युद्ध किये ही स्वर्ग छोड़कर भाग गये । बलि अमरावतीको अधिकारमें करके त्रिलोकीके अधिपति हो गये । आचार्य शुक्रने उनसे अश्वमेधयज्ञ कराना प्रारम्भ किया । बिना सौ अश्वमेधयज्ञ किये कोई इन्द्र नहीं बन सकता, आचार्य शुक्र सौ अश्वमेध कराके बलिको नियमित इन्द्र बना देना चाहते थे ।

देवमाता अदितिको बड़ा दुःख हुआ कि मेरे पुत्रोंको स्वर्ग छोड़कर इधर - उधर पर्वतोंकी गुफाओंमें छिपे हुए बड़े कष्टसे दिन बिताने पड़ते हैं । वे महासती अपने पति महर्षि कश्यपकी शरण गयीं और महर्षिके आदेशानुसार उन्होंने भगवानकी आराधना की । भगवानने दर्शन देकर देवमाताको बताया -- ' माता ! जिसपर देवता तथा ब्राह्मण प्रसन्न हों, जो धर्मपर स्थिर हो, उसके विरुद्ध बलप्रयोग सफल नहीं होता । वहाँ तो विरोध करके कष्ट ही मिलता है । बलि धर्मात्मा और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं । मैं भी उनका तिरस्कार नहीं कर सकता, किंतु मेरी आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती । मैं आपकी इच्छा किसी प्रकार अवश्य पूरी करुँगा ।'

भगवान् वामनरुपसे देवमाता अदितिके यहाँ पुत्र बनकर प्रकट हुए । महर्षि कश्यपने ऋषियोंके साथ उन वामनजीका यज्ञोपवीत -- संस्कार कराया । वहाँसे भगवान् बलिकी यज्ञशालाकी ओर चले । नर्मदाके उत्तर तटपर शुक्राचार्यकी अध्यक्षतामें बलिका सौवाँ ( १०० वाँ ) अश्वमेधयज्ञ चल रहा था । निन्यानवे अश्वमेध वे पूरे कर चुके थे । सबने देखा कि सूर्यके समान तेजस्वी, वामनरुपके एक ब्रह्मचारी छत्ता, पलाशदण्ड तथा कमण्डलु लिये यज्ञशालामें पदार्पण कर रहे हैं । शरीरके अनुरुप बड़े ही सुन्दर छोटे - छोटे सुकुमार अङ्गवाले भगवानको देखकर सभी लोग खड़े हो गये । बलिने वामन ब्रह्मचारी -- रुपधारी भगवानको सिंहासनपर बैठाकर उनके चरण धोये । वह पवित्र चरणोदक मस्तकपर चढ़ाया । भलीभाँति पूजन करके बलिने कहा -- ' ब्रह्मचारीजी ! आप के आगमनसे आज मैं कृतार्थ हो गया । मेरा कुल धन्य हो गया । अब आप जिस लिये पधारे हैं, वह निःसंकोच कहें; क्योंकि मुझे लगता है कि आप किसी उद्देश्यसे ही यहाँ आये हैं ।'

भगवानने बलिकी प्रशंसा की । उनके कुलकी शूरता, दानशीलताकी प्रशंसा की और तब तीन पद भूमि माँगी । बलिको हँसी आ गयी । उन्होंने अधिक भूमि माँग लेनेका भगवानसे आग्रह किया । भगवानने कहा -- ' राजन् ! तृष्णाकी तृप्ति तो कभी होती नहीं । मनुष्यको अपने प्रयोजनसे अधिककी इच्छा नहीं करनी चाहिये; अन्यथा उसे कभी शान्ति न मिलेगी । जिसकी भूमिमें कोई तप, जप आदि किया जाता है, उस भूस्वामीको भी उसका भाग मिलता है; अतः मैं तीन पद भूमि अपने लिये चाहता हूँ । मुझे इससे अधिक नहीं चाहिये ।'

बलि जब भूमिदानका संकल्प देने लगे, तब आचार्य शुक्रने उन्हें रोका । शुक्राचार्यने बताया कि ' ये ब्रह्मचारीरुपमें साक्षात् विष्णु हैं और त्रिलोकी नाप लेने आये हैं ।' आचार्यने यह भी कहा कि ' तीनों लोक इनके दो पदमें ही आ जायँगे । तीसरे पदको स्थान नहीं रहनेसे दानका संकल्प पूरा न होगा और उसके फलस्वरुप तुम्हें नरक भी मिल सकता है ।' परंतु बलिने सोचकर आचार्यसे कह दिया कि ' मुझे ऐश्वर्यके नाश या नरकका भय नहीं है । मैं दान देनेको कहकर अस्वीकार नहीं करुँगा ।' शुक्राचार्यने रुष्ट होकर बलिको शाप दे दिया -- ' तू मेरी आज्ञा नहीं मानता, अतः तेरा यह ऐश्वर्य नष्ट हो जायगा ।'

आचार्यके शापसे भी बलि डरे नहीं । उन्होंने स्थिर चित्तसे श्रद्धापूर्वक वामनभगवानको भूमिका दान किया । भूमि - दानका संकल्प हो जानेपर वामनभगवानने अपना रुप बढ़ाया । वे विराटरुप हो गये । उन्होंने एक पदमें समस्त पृथ्वी नाप ली और उनका दूसरा चरण ब्रह्मलोकतक पहुँच गया । आक्रमणके लिये उद्यत दैत्योंको भगवानके पार्षदोने मारकर भगा दिया । वे सब पाताल चले गये । भगवानकी आज्ञासे गरुड़जीने बलिको वरुणपाशमें बाँध लिया । अब भगवानने कहा -- ' बलि ! तुम्हें अपनी सम्पत्तिका बड़ा गर्व था । तुमने मुझे तीन पद भूमि दी थी; किंतु तुम्हारा समस्त राज्य दो पदमें तुम्हारे सामने मैंने नाप लिया । अब मेरी एक पद भूमि और दो ।'

धर्मात्मा, सत्यवादी, ब्राह्मण - भक्त बलि राज्य छिन जाने और बन्धनमें होनेपर भी स्थिर थे । उन्हें तनिक भी दुःख या क्षोभ नहीं हुआ था । उन्होंने नम्रतासे कहा -- ' भगवान् ! सम्पत्तिका स्वामी उस सम्पत्तिसे बड़ा होता है । आपने दो पदमें मेरा राज्य ले लिया, अब एक पदमें मेरा शरीर ले लें । तीसरा पद आप मेरे मस्तकपर रक्खें ।' बलि धन्य हो गये !

भगवानने तीसरा पद बलिके मस्तकपर रख दिया । भगवान् ब्रह्मा यह सब देखकर स्वयं आये । यदि धर्मात्मा पुरुष बन्धनमें पड़े तो धर्मके आधारपर स्थित विश्व कैसे रहेगा । ब्रह्माजीने भगवानसे प्रार्थना की -- ' प्रभो ! आपके चरणोंमें जो श्रद्धापूर्वक एक चुल्लू जल और दूर्वाके कुछ अंकूर चढ़ाता है; वह भी सम्पूर्ण बन्धनोंसे सदाके लिये छूट जाता है, फिर जिसने स्थिरचित्तसे श्रद्धापूर्वक आपको त्रिलोकीका राज्य दान कर दिया, वह बन्धनमें कैसे रह सकता है ।'

यह बलिका बन्धन थोड़े ही था, यह तो वस्तुतः भगवानने स्वयं अपने बँधनेके लिये ही अपने मनका एक प्रकारका बन्धन - रज्जु प्रस्तुत किया था ।

भगवानने ब्रह्माजीकी ओर देखा और फिर स्नेहसे बलिकी ओर देखते हुए वे बोले -- ' ब्रह्माजी ! धर्मका फल ही है मुझे सन्तुष्ट करना । मैं प्रह्लादके इस धर्मात्मा पौत्रकी परीक्षा ले रहा था । आप जानते ही हैं कि जो अपने आपको मुझे दे देता है, मैं भी अपनेको उसे दे देता हूँ । इस बलिने मुझे जीत लिया है । बेटा बलि ! उठो ! अब तुम अपने पितामह प्रह्लादके साथ सुतलमें जाओ । उस सुतलका राज्य करो, जिसके वैभवकी तुलनामें स्वर्ग किसी गणनामें नहीं है । मैं स्वयं अब बराबर गदा लिये वहाँ सदासर्वदा तुम्हारे द्वारपर उपस्थित रहूँगा । जो भी दैत्य - दानव तुम्हारी आज्ञा नहीं मानेंगे, उन्हें मेरा चक्र दण्ड देगा । तुम्हें नित्य मेरे दर्शन होंगे । पुत्र ! तुम्हें इन्द्र ही तो होना था । मैं स्वयं तुम्हें अगले सावर्णि मन्वन्तरमें इन्द्रपदपर बैठाऊँगा ।'

बलिके नेत्रोंसे अश्रुका प्रवाह चलने लगा । वे बोलनेमें असमर्थ हो गये । ' ये करुणामय प्रभु इतनी तुच्छ सेवासे द्रवित हो गये । ये सम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी अब दैत्योंके द्वारपर द्वाररक्षक बनेंगे ।' बलिने भगवानके चरणोंपर मस्तक रख दिया । भगवानकी आज्ञासे शुक्राचार्यने वह यज्ञ पूर्ण कराया । बलि अब सुतलमें भगवान् वामनके द्वारा सुरक्षित विराजते हैं ।

N/A

References : N/A
Last Updated : January 22, 2014

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP