पापघट - दान
किसी पातक, उपपातक या महापातकके प्रभावसे पुत्र नहीं हुआ हो तो दम्पत्तिको चाहिये कि वे किसी तीर्थपर जाकर किसी शुभ दिनमें पापघट - दान करें । यथासामर्थ्य सोने, चाँदी या ताँबेका ६४ पलका कलश रखकर उसपर अग्न्युत्तारणकर पञ्चगव्यादिसे शुद्ध करें । साथ ही किसी ऐसे दूरस्थ ब्राह्मणको बुलावें जो दान लेकर चले जानेपर फिर कभी देखनेमें न आवे । इसके पूर्व दिन दोनों स्त्री - पुरुष एक बार भोजनकर ब्रह्मचर्य पालन करें । फिर दूसरे दिन शौच - स्त्रानादिसे निवृत्त होकर शुद्ध स्थानमें पूर्वाभिमुख बैठें । सामने किसी चौकी या वेदीपर लाल वस्त्र बिछाकर उसपर अक्षतसे अष्टदल कमल बनावें । फिर उसपर यथाविधि कलश स्थापनकर उसमें घी या शक्कर भरकर आम्रपल्लव अथवा अशोकादि पत्रोंसे सुशोभित कर ऊपर पूर्णपात्र स्थापित करें । उसके मध्यभागमेंख सुवर्णनिर्मित्त विष्णुमूर्ति और उसके समीप ही फणाकृति नागमूर्ति स्थापित करे । प्राङ्गणके मध्यभागमें स्थण्डिलके ऊपर पञ्चभू - संस्कारपूर्वक अग्नि - स्थापन करें । गणपतिपूजन, नान्दीश्राद्ध, पुण्याहवाचन एवं ग्रहस्थापनकर सबोंका पूजन करें । फिर भगवान् विष्णुकी षोडशोपचारपूजाकर नागकी पञ्चोपचारसे पूजा करे । फिर कुशकण्डिका करके विष्णुमन्त्नसे घीकी १००८ या १०८ आहुतियाँ दें और पूर्वोक्त ब्राह्मणका पूजनकर उसे भोजन करावें । इसी समय ' मनसा दुर्विनीतेन०१' आदि मन्त्नोंको पढ़ते हुए प्रति मन्त्र अक्षत या दूब कलशपर चढ़ाता जाय । मन्त्न समाप्त हो जानेपर हाथमें जल, फल, चन्दन, अक्षत पुष्पादि लेकर देश - कालादिका कीर्तनकर
' अमुकोऽहं मत्कर्तृकानेकजन्मर्जितज्ञाताज्ञातवाडमनः कायकृतमहापातकोपपातकादिपूरितमिमं घटं गन्धपुष्पाद्यार्चिंत तुभ्यं सम्प्रददे ।'
इस प्रकार संकल्पकर ब्राह्मणके हाथमें संकल्प छोड़ दे । साथ ही थोड़ा सुवर्ण देकर उस कलशको दोनों हाथोंसे उठाकर ब्राह्मणको दे और हाथ जोड़कर प्रार्थना करे -
महीसुर ! द्विजश्रेष्ठ ! जगतस्तापहारक ।
त्राहि मां दुःखसंतप्तं त्रिभिस्तापैः सदार्दितम् ॥
संसारकूपतस्त्वं मां समुद्धर नमोऽस्तु ते ।
त्वदन्यो नास्ति मां देव समुद्धर्तुं क्षमः क्षितौ ॥
इस प्रकार प्रार्थनाकर विसर्जन करे । फिर आचार्यको दक्षिणा देकर भोजन कराये । तदनन्तर दम्पति स्वयं भोजन करें ।
१. मनसा दुर्विनीतेन यन्मया पातकं कृतम् ।
तत्तिष्ठतु घटे चास्मिन् गुरुदेवप्रसादतः ॥१॥
व्रजता तिष्ठता वापि कर्मणा यदुपर्जितम् । तत्तिष्ठतु० ॥२॥
परस्वहरणेनापि पातकं यदुपार्जितम् । तत्तिष्ठतु० ॥३॥
सुवर्णस्तेयजं पापं मनोवाक्कायकर्मजम् । तत्तिष्ठतु० ॥४॥
रसविक्रयतः पापं ब्रह्मजन्मनि संचितम् । तत्तिष्ठतु० ॥५॥
क्षात्रधर्मविहीनेन क्षात्रजन्मनि यत्कृत्तम् । तत्तिष्ठतु० ॥६॥
वैश्यजन्मन्यपि मया तथा यत्पातकं कृतम् । तत्तिष्ठतु० ॥७॥
शूद्रजन्मनि यत्पापं सततं समुपार्जितम् । तत्तिष्ठतु० ॥८॥
गुरुदारभिगमनात् पातकं यन्मयार्जितम् । तत्तिष्ठतु० ॥९॥
अपेयपानसम्भूतं पातकं यन्मयार्जितम् । तत्तिष्ठतु० ॥१०॥
वापीकूपतडागानां भेदनेन कृतं च यत् । तत्तिष्ठतु० ॥११॥
अभक्ष्यभक्षणेनैव संचितं यत्तु पातकम् । तत्तिष्ठतु० ॥१२॥
ज्ञाताज्ञातैरनेकैश्च घटोऽयं सम्भृतो मया ।
पूर्वजन्मान्तरोत्पन्नैरेतज्जन्मकृतैरपि ॥१३॥