शिकवणनाम - ॥ समास सातवां - यत्ननिरूपणनाम ॥

परमलाभ प्राप्त करने के लिए स्वदेव का अर्थात अन्तरस्थित आत्माराम का अधिष्ठान चाहिये!


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
कथा का धडाका भरकर दें। निरूपण में विवरण करें। कम पड़ने ना दें। किसी भी विषय में ॥१॥
भेजा गया नीचे गिरा । वह भेजनेवाले ने जान लिया । अज्ञानी लोग व्यर्थ ही रह गये। टुकुर टुकुर देखते ॥२॥
उत्तर में विलंब हुआ । श्रोताओं ने पहचान लिया । समझो महत्त्व ही नष्ट हुआ । वक्ता का ॥३॥
थोड़ा बोल कर समाधान करना । क्रोध आये फिर भी मन में रखना । मनुष्य को आकृष्ट कर रखना । किसी एक ने ॥४॥
ना सहने पर चिढ़चिढ़ की । वहां तामसवृत्ति दिखाई दी । सारी रुचि उड़ गई । श्रोताओं की ॥५॥
किस किस को राजी रखा । किस किस का मन भंग हुआ । क्षण क्षण परखते रहना । चाहिये लोगों को ॥६॥
शिष्य विकल्प से टेढी राह पकडे । गुरु पीछे पीछे दौडे । विचार देखने जाओ तो ये । विकल्प ही सारा ॥७॥
आशाबद्ध क्रियाहीन । नहीं चातुर्य के लक्षण । ऐसे महंती की भनभन । बंद नहीं ॥८॥
ऐसे गोसावी पिछड़ते । जगह जगह कष्ट पाते । वहां संगति के लोग पाते । सुख कैसे ॥९॥
जिधर उधर कीर्ति फैले । उथले लोगों में उत्कंठा उपजे । लोग राजी राखकर कीजे । सब कुछ ॥१०॥
परलोक में वास करें । समुदाय को शांती से देखें । मांग का तकाजा न करें । कुछ भी ॥११॥
जहां जग वहां जगन्नायक । समझना चाहिये विवेक । रात दिन विवेकी लोक । सम्हालते रहते ॥१२॥
जो जो लोक दृष्टि में आया । वह सारा नष्ट ऐसे समझा । सारे ही नष्ट अकेला भला । कैसे मानें ॥१३॥
उजड़े मुल्क में क्या देखें । लोगों से अलग कहां रहें । सनक झूठी नीचता स्वीकारे । कुछ एक ॥१४॥
तस्मात् लोगों में व्यवहार कर ना पाये । महंती उसके काम ना आये । परत्र साधन के उपाय । श्रवण करके रहें ॥१५॥
स्वयं को ठीक से तैरना ना आये । लोगों को क्योंकर डुबाये । प्रीति पसंद व्यर्थ जाये । विकल्प सारा ॥१६॥
अभ्यास से प्रकट होये । अन्यथा फिर चुपचाप रहे । प्रकट होकर नष्ट होये । यह अच्छा नहीं ॥१७॥
मंद चलते धीमें धीमें । चपल को कैसे सम्हाले । अरबी जो घुमाये । वह कैसा चाहिये ॥१८॥
ये भागदौड के काम । तीक्ष्ण बुद्धि के मर्म । भोले भावार्थ संभ्रम । से कैसे होंगे ॥१९॥
खेती की परंतु वहन करे ना । जवाहर किये परंतु घूमे ना । जन इकट्ठा किये पर धरे ना । अंतर्याम में ॥२०॥
चढती बढती प्रीति उपजे । तभी फिर परमार्थ प्रकटे । घिस घिस करने से ऊबते । सारे लोग ॥२१॥
स्वयं का लोग माने ना । लोगों का. स्वयं मानेना । सारा विकल्प ही समाधान । कैसा मन में ॥२२॥
नाशक दीक्षा चालाक लोग । वहां कैसे रहेगा विवेक । जहां दृढ हुआ अविवेक । वहां रहना खोटा ॥२३॥
बहुत दिन श्रम किया । अंत में सारा ही व्यर्थ गया । स्वयं को न जमे तो गल्बला । क्यों करें ॥२४॥
संगीत चला फिर वह व्याप । अन्यथा फिर सारा ही संताप । क्षण क्षण को विक्षेप कोप । कहें भी तो कितना ॥२५॥
मूर्खता से भटकते । ज्ञाते ज्ञातापन से कलह करते । दोनों ओर फजियत पाते । लोगों के बीच ॥२६॥
कारोबार सम्हलेना कर पाये ना । और चुपचाप भी रहे ना । इस कारण कहें क्या । सारे जनों को ॥२७॥
नाशक उपाधि को छोडें । आयु सार्थकता में बिताये । परिभ्रमण से बिता दें । जीवन कहीं भी ॥२८॥
परिभ्रमण करेना । दुसरों का कुछ भी सह पायेना । तो फिर उदंड यातना । विकल्प की ॥२९॥
अब अपने ही पास ये । भला पूछें अपने आप से । अनुकूल होगा वैसे । वर्तन करें ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे यत्ननिरूपणनाम समास सातवां ॥७॥

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Last Updated : December 09, 2023

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