शिकवणनाम - ॥ समास नववां - राजकारणनिरूपणनाम ॥

परमलाभ प्राप्त करने के लिए स्वदेव का अर्थात अन्तरस्थित आत्माराम का अधिष्ठान चाहिये!


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ज्ञानी और उदास । समुदाय की आस । वह अखंड सावकाश । एकांत सेवन करें ॥१॥
जहां योजना समझती । अखंड छानबीन होती । प्राणिमात्र की स्थिति गति । समझ में आती ॥२॥
अगर यह छानबीन ही करे ना । फिर कुछ भी बूझेना । हिसाब झाडा ही निकालेना । दिवालिया ॥३॥
कोई वतन साधता । कोई सिद्धि गंवाता । व्यापकता की अवस्था । ऐसी है ॥४॥
जिसने जो जो मन में धरा । वह सब पहले ही समझ में आया । कृत्रिम सारा ही कुंठित हुआ । सहज ही ऐसे ॥५॥
अखंड रहने पर संलग्नता बढती । अतिपरिचय से अवज्ञा होती । इसकारण विश्रांति । ले ही ना सकते ॥६॥
आलस से आलस किया । फिर कारोबार ही डूब गया । अंतर हेतु चूकता गया । समुदाय का ॥७॥
उदंड काम उपासना के । लगाते जायें नित्य नेम से । अवकाश कहां कृत्रिम करने । के लिये ॥८॥
चोर को भंडारगृह सौंपें । फिसलते ही संभाले । मूर्खता की उलझन निकालें । धीरे धीरे ॥९॥
ये सारी बातें पुरानी ही । प्राणी नहीं था कोई कष्टी । राजकरण से जकडकर सभी । को रखें चारों ओर ॥१०॥
नष्ट के लिये नष्ट की योजना करें । वाचाल के लिये वाचाल लायें । स्वयं पर पडने ही ना दे । विकल्पों का जाल ॥११॥
कांटे से कांटा निकालें । निकाले परंतु पता न चलने दें। कलहकर्ता की होने ना दें । पदवी प्राप्त ॥१२॥
न जानने देकर जो कार्य करे । वह कार्य तत्काल ही होये । दिंढोरा पीटने पर बिगडे । तो चमत्कार नहीं ॥१३॥
सुनकर रुचि निर्माण होये । देखकर सुदृढ ही होये । अपनी पदवी संलग्नता से । सेवकों में ॥१४॥
कोई भी काम करने से होता । न करे तो पिछड जाता । इसकारण ढिलाई का । काम ही नहीं ॥१५॥
जिसने दूसरों पर विश्वास किया । उसका कार्यभाग डूब गया । जो स्वयं ही कष्ट करते गया । वही भला ॥१६॥
सारा ही सबको समझा । तब फिर वह रिक्त हुआ । इस कारण ऐसा । न होने दे ॥१७॥
मुख्य सूत्र हांथ में लें। करना सो लोगों से करायें । कई एक धूर्त सामने लाये । राजकारण में ॥१८॥
बकबकी पहलवान कलहकर्ता । उनसे ही टक्कर लेना । दुर्जनों से राजनीति में अडा । ऐसा न होने दें ॥१९॥
उज्जड के मर्म पकडें । रगडकर चूर्ण ही करें । करके फिर से सम्हालें । डुबायें नहीं ॥२०॥
खल दुर्जनों से डर गये । राजकारण रख ना पाये । उससे सारे प्रकट हुये । भले बुरे ॥२१॥
समुदाय चाहिये विशाल । तो फिर नियम करे कठोर । मठ बनाकर ऐंठ । करें ही नहीं ॥२२॥
दुर्जन प्राणी को समझें । मगर उन्हें प्रकट ना करें । सज्जन के समान बोलिये । महत्त्व देकर ॥२३॥
जनों में दुर्जन प्रकट । तब फिर अखंड खटपट । इस कारण वह बाट । बुझा ही दें ॥२४॥
गनिमों की देखकर फौजे । रणशूरों की फडकती भुजायें । राजा ऐसा चाहिये । रक्षक परमार्थी ॥२५॥
उसे देखकर दुर्जन डरे । उन्हें दे प्रचीति के तडाखे । विद्रोही पाखंडी के होते । बंदोबस्त सहज ही ॥२६॥
यह धूर्तपन के काम । करें नित्यनियम से राजकारण । ढीलेपन के संभ्रम । में जायें नहीं ॥२७॥
दृष्टि से दिखे ना कहीं भी । ठाई ठाई चर्चा उसकी । वाग्विलास से सकल सृष्टि । खींची उसने ॥२८॥
टक्कर बराबरी की लगाते जायें । शैतान के समक्ष शैतान लायें । धूर्त के सम्मुख खडा करें । दूसरा धूर्त ॥२९॥
ढीठ के समक्ष ढीठ । उद्धट को चाहिये उद्धट । नटखट को नटखट । के समक्ष लायें ॥३०॥
जैसे को तैसा मिलें । तो मजालिस अच्छी जमे । इतना होने पर भी धनी कहां है । दृष्टि में ना आये ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे राजकारणनिरूपणनाम समास नववां ॥९॥

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Last Updated : December 09, 2023

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