चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास दसवां - देहांतनिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
मिथ्या वही हुआ सत्य । सत्य वही हुआ असत्य । मायाविभ्रम का कृत्य । ये ऐसा रहे ॥१॥
संत्य समझाने के कारण । कहे गये नाना निरूपण । तो भी न उठता धरन । असत्य का ॥२॥
असत्य अंतरंग में बिंबित हुआ । बिना बोले वह दृढ हुआ। सत्य रहकर भी खो गया । जहां का वहां ॥३॥
वेदशास्त्र पुराण बोलते । सत्य का निश्चय करते। फिर भी ना आये आत्मानुभूति । सत्यस्वरूप ॥४॥
सत्य होकर आच्छादित हुआ । मिथ्या होकर सत्य हुआ । ऐसा विपरीत हुआ । देखते देखते ॥५॥
ऐसी माया की करनी । तत्क्षण समझ में आई। निरूपण में सत्संग की। विचार ग्रहण से ॥६॥
पीछे हुआ निरूपण । देखा अपने को स्वयं । उससे दृढ हुई पहचान । परमार्थ की ॥७॥
इससे समाधान हुआ । चित्त चैतन्य से मिला । निजस्वरूप पहचाना । निजवस्तु से ॥८॥
प्रारब्ध पर छोडा देह । बोध से टूटा संदेह । अब गिरे अथवा रहे यह । मिथ्या कलेवर ॥९॥
ज्ञानियों का जो शरीर । वह मिथ्यत्त्व से निर्विकार । जहां छूटें वहीं सार । पुण्यभूमि ॥१०॥
साधुदर्शन से पावन तीर्थ । होते पूर्ण उनके मनोरथ । साधु ना आने पर जीवन व्यर्थ । उन पुण्यक्षेत्रों का ॥११॥
पुण्य नदी का जो तीर । वहां ही छूटे यह शरीर । यह इतर जनों का विचार । साधु तो नित्यमुक्त ॥१२॥
उत्तरायण यह उत्तम । दक्षिणायन वह अधम । इस संदेह में रहता भ्रम । साधु तो निःसंदेह ॥१३॥
शुक्लपक्ष उत्तरायण । गृह में दीप दिवा मरण । अंत में रहें स्मरण । गति के लिये ॥१४॥
इतना न लगे योगियों को । जीते जी ही पुण्यराशि वह तो । तिलांजली पाप पुण्य को । दे दी जिसने ॥१५॥
देह का अंत हुआ अच्छे से । देह छूटा सुख से । धन्य हुआ कहते उसे । अज्ञानी जन ॥१६॥
जनों का विपरीत मत । अंत में मिलता है भगवंत । ऐसी कल्पना करके घात । करते अपना स्वयं ॥१७॥
जीते जी सार्थक नहीं किया । व्यर्थ जीवन व्यतीत हुआ। मूलतः अनाज ही नहीं बोया । वह उगेगा कैसे ॥१८॥
अगर किया ईश्वरभजन । तो ही होते पावन । जैसे बोने पर धान्य । राशि प्राप्त होती ॥१९॥
दिये बिना पाये ना । बोये बिना उगे ना। ऐसे यह वाक्य तो जन । जानते ही है ॥२०॥
न करते हुये सेवा का व्यापार । स्वामी से कहे कहां मुशारा । वैसे ही अंत में अभक्त नर । का स्वहित न होता ॥२१॥
जीते जी नहीं भगवद्भक्ति । मरने पर कैसे मिलेगी मुक्ति । अस्तु जो जैसा करते । वे सब पाते वैसे ही ॥२२॥
एवं न करने पर भगवद्भजन । अंत में न होते पावन । यदि पाया भी अच्छा मरण । मगर भक्ति बिन अधोगति ॥२३॥
इसलिये साधु ने अपना । जीवित रहते ही सार्थक किया । शरीर कारण से लगाया । धन्य उसकी ॥२४॥
जो जीवन्मुक्त ज्ञानी । उनका शरीर छूटे वनीं । अथवा पडे स्मशान में ही । में तो भी धन्य हुये ॥२५॥
साधु का देह क्षीण हुआ । अथवा श्वानादिकों ने भक्षण किया । जनों को यह न प्रशस्त भाया । मंदबुद्धिवश ॥२६॥
अंत भला न हुआ इस कारण । होते दुःखी अन्य जन । मगर बेचारे अज्ञान । ना जानते मर्म ॥२७॥
मूलतः जो नहीं जन्मे । उसकी मृत्यु आयेगी कैसे । जन्म मृत्यु का विवेक बल से । घूंट भर दिया जिसने ॥२८॥
स्वरूपानुसंधान के बल से । सारी माया ही न दिखे । जिसका पार ही न समझे । ब्रह्मादि को भी ॥२९॥
वह जीवित रहते ही मर गया । जिसने मृत्यु को मार दिया । जन्ममृत्यु का न स्मरण रहा । उसे विवेक बल से ॥३०॥
जो जनों में दिखकर भी भिन्न होता । व्यवहार में भासता निराला । दृश्य पदार्थ का स्पर्श ही न होता । उस निर्मल को ॥३१॥
अस्तु ऐसे जो साधुजन । करने पर उनका भजन । उनके भजन से पावन । अन्य जन होते ॥३२॥
सद्गुरू का जो अंकित साधक । उसे तो रखना ही है विवेक । विवेक रखे तो तर्क । फूटे निरूपण में ॥३३॥
यही प्रयास करें साधक जन । अद्वैत प्रांजल निरूपण । तुम्हें भी दृढ हो समाधान । साधु जैसा ॥३४॥
जो संतों के शरण गया । वह संत बनकर ही रह गया । अन्य जनों के काम आया । कृपालु बनकर ॥३५॥
ऐसी संतों की महिमान । संतसंग से होता ज्ञान । सत्संग से परे साधन । अन्य नहीं ॥३६॥
गुरूभजन के आधार से । निरूपण के ही विचार से । शुद्ध क्रिया के निर्धार से । पांयें पद ॥३७॥
परमार्थ का जन्मस्थान । वही सद्गुरू का भजन । सद्गुरू भजन से समाधान । अकस्मात् होता ॥३८॥
देह मिथ्या जानकर जीव ने । इसका सार्थक ही करे । भजन भाव से संतुष्ट करें । चित्त सद्गुरू का ॥३९॥
शरणागतों की करें चिंता । वह एक सद्गुरूदाता । जैसे बालक को पाले माता । नाना यत्नों से ॥४०॥
इस कारण सद्गुरू का भजन । होता जिससे वही धन्य । सद्गुरू बिन समाधान । और नहीं ॥४१॥
हुई समाप्त शब्दों की खटपट । आया ग्रंथ का अंत । यहां कहा गया स्पष्ट । सद्गुरू भजन ॥४२॥
सद्गुरू भजन से परे कुछ भी । मोक्षदायक दूसरा नहीं। जो न माने इसे वही । अवलोकन करें गुरूगीता ॥४३॥
वहां निरूपित किया अच्छे से । पार्वती प्रति सदाशिव ने । इस कारणवश सद्भाव से । सद्गुरू चरणों का सेवन करें ॥४४॥
जो इस ग्रंथ का विवेक । विवंचन कर देखे साधक । उसे प्राप्त होगा एक । निश्चय ज्ञान का ॥४५॥
जो ग्रंथ में कथित है अद्वैत । उसे ना कहें प्राकृत । सत्य जानें वेदांत । अर्थ विषयक ॥४६॥
प्राकृत से वेदांत समझे । सकल शास्त्र देखने मिले । और समाधान आये । अंतर्याम में ॥४७॥
प्राकृत न कहे उसे । हो ज्ञान का उपाय जिससे । मूर्ख क्या समझ पाये इसे । मर्कट को नारियल जैसे ॥४८॥
अस्तु अब ये कथन । लें अधिकार समान । सींप के मोती को हीन । कहो ही नहीं ॥४९॥
जहां नेति नेति श्रुति । वहां न चले भाषाव्युत्पत्ति । परब्रह्म आदिअंती । अनिर्वाच्य ॥५०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे देहांतनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 04, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP