चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास तीसरा - चतुर्दशब्रह्मनिरूपणनाम ॥
श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
श्रोता हों सावधान । अब कहूं ब्रह्मज्ञान । जिससे हो समाधान । साधक का ॥१॥
रत्न पाने के लिये । मृत्तिका इकठ्ठी करनी पडे । चौदह ब्रह्म के लक्षण ये । जानें वैसे ही ॥२॥
पदार्थ के बिना संकेत । द्वैत से भिन्न दृष्टांत । पूर्वपक्ष बिना सिद्धांत । बोला ना जाये ॥३॥
पहले मिथ्या को उभारें । फिर उसे पहचान कर त्यागें । अपने आप सत्य आगे । दृढ हो अंतरंग में ॥४॥
इसलिये चौदह ब्रह्मों का संकेत । कहा समझने को सिद्धांत । यहां श्रोता सचेत । रहें एक क्षण भर ॥५॥
पहिला वह शब्दब्रह्म । दूजा मीतिकाक्षरब्रह्म । तीसरा खंब्रह्म । बोलतीं श्रुति ॥६॥
चौथा जानो सर्वब्रह्म । पाचवां चैतन्यब्रह्म । छठवां सत्ताब्रह्म । साक्षब्रह्म सातवां ॥७॥
आठवां सगुण ब्रह्म । नववां निर्गुणब्रह्म । दसवां वाच्यब्रह्म । जानियें ॥८॥
अनुभव वह ग्यारहवां । आनंदब्रह्म वह बारहवां । तदाकार तेरहवां । चौदहवां अनिर्वाच्य ॥९॥
ऐसे ये चौदह ब्रह्म । किये निरूपित इनके नाम । अब स्वरूप के मर्म । दिखाऊ संकेत से ॥१०॥
अनुभव बिना जो भ्रम । उसका नाम शब्दभ्रम । अब मीतिकाक्षर ब्रह्म । वह एकाक्षर ॥११॥
खंशब्द से आकाश ब्रह्म । महदाकाश व्यापक धर्म । अब कहूं सूक्ष्म । सर्वब्रह्म ॥१२॥
पंचभूतों की विशाल व्याप्ति । जिस जिस पर दृष्टि पडती । उन सभी को चोखटा ब्रह्म ही। कहते हैं ॥१३॥
इसका नाम सर्वब्रह्म । श्रुतिआश्रय के मर्म । अब चैतन्यब्रह्म । कहता हूं ॥१४॥
पंचभूतादि माया के । चैतन्य चेताये । इस चैतन्य को इसलिये । चैतन्य ब्रह्म कहते है ॥१५॥
चैतन्य पर जिसकी सत्ता । वह सत्ताब्रह्म तत्त्वतः । वह सत्ता जो जानता । उसका नाम साक्षब्रह्म ॥१६॥
साक्षत्व जिसके पास से । वही समझा गुणों से। सगुणब्रह्म यह वाणी ने । कथन किया ॥१७॥
जहां नहीं गुणवार्ता । वह निर्गुण ब्रह्म तत्त्वतः । अब वाच्य ब्रह्म का । कथन करूं ॥१८॥
जो कह सके वाचा से । वाच्यब्रह्म कहते उसे । अनुभव से कह सके । वाचा से नहीं सर्वथा ॥१९॥
इसका नाम अनुभवब्रह्म । आनंद वृत्ति का धर्म । मगर इसका भी मर्म । कहता हूं ॥२०॥
ऐसा यह ब्रह्म आनंद । तदाकार वह अभेद । अनिर्वाच्य में संवाद । खंडित हुआ ॥२१॥
चौदह ब्रह्म ये ऐसे । निरूपित किये अनुक्रम से। साधक देखें तो बाधा न होये । भ्रम की ॥२२॥
ब्रह्म जानियें शाश्वत । माया वहीं अशाश्वत । चौदह ब्रह्मों का सिद्धांत । होगा अब ॥२३॥
शब्दब्रह्म वह शाब्दिक । अनुभव बिना मायिक । शाश्वत का विवेक । बहां नहीं ॥२४॥
जो क्षर ना अक्षर । वहां कैसे मितिकाक्षर । शाश्वत का विचार । वहां नहीं ॥२५॥
खंब्रह्म ऐसा वचन । तो भी शून्य का नाश करे ज्ञान। शाश्वत का अधिष्ठान । वहां भी नहीं ॥२६॥
सभी का है अंत । सर्वब्रह्म नाशवंत । प्रलय कहा है निश्चित । वेदांत शास्त्रों में ॥२७॥
ब्रह्मप्रलय होगा जहां । भूतान्वय कैसा वहां। इसलिये सर्वब्रह्म का । कहा है नाश ॥२८॥
अचल को देनेपर चलन । निर्गुण को लगाने पर गुण । आकार को विचक्षण । मानतें नहीं ॥२९॥
जो पंचभूतों से निर्मित । बह प्रत्यक्ष नाशवंत । सर्व ब्रह्म को यह मात । होगी कैसे ॥३०॥
अस्तु अब हुआ यह बहुत । सर्वब्रह्म नाशवंत । भिन्नता का अंत । देखें कैसे ॥३१॥
अब चेतन किया जिसे । वही मायिक स्वभाव से । वहां चैतन्य के नाम से । नाश आया ॥३२॥
परिवार के बिना सत्ता । वह सत्ता नहीं तत्त्वतः । पदार्थ के बिना साक्षत्व । वह भी मिथ्या ॥३३॥
सगुण का नाश है। प्रत्यक्ष को प्रमाण कैसे । सगुण ब्रह्म निश्चय से । नाशवंत ॥३४॥
निर्गुण ऐसे जो नाम । उस नाम को कैसा ठांव । गुणबिन गौरव । होगा कैसा ॥३५॥
माया जैसे मृगजल । ऐसे कहते सकल । अथवा कल्पना का बादल । न होता सच ॥३६॥
'ग्रामो नास्ति कुतः सीमा' । जन्म के बिना जीवात्मा । अद्वैत को उपमा । द्वैत की ॥३७॥
माया विरहित सत्ता । पदार्थ बिना ज्ञाता । अविद्या बिना चैतन्यता । किसे प्राप्त हुई ॥३८॥
सत्ता चैतन्यता साक्षी । सभी गुणों के पास ही । निर्गुण जो स्थायी। उसे गुण कैसे ॥३९॥
ऐसा जो गुणरहित । उसे नाम का संकेत । उसे जानो अशाश्वत । निश्चय ही ॥४०॥
निर्गुण ब्रह्म को संकेत से । नाम दिये बहुत से। वह वाच्य ब्रह्म उसे । नाश है ॥४१॥
आनंद का अनुभव । यह भी वृत्ति का ही भाव । तदाकार में ठांव । वृत्ति को नहीं ॥४२॥
अनिर्वाच्य इस कारण से । संकेत वृत्ति के गुण से । उस संकेत को न्यूनता ऐसे । निवृत्ति ने लाई ॥४३॥
अनिर्वाच्य वह निवृत्ति। वही उन्मनी की स्थिति । निरूपाधि विश्रांति । योगियों की ॥४४॥
वस्तु जो है निरूपाधि । वही सहज समाधि। जिससे टूटे आधीव्याधि । भव दुःख की ॥४५॥
जो उपाधि का अंत । उसे ही जानो सिद्धांत । सिद्धांत और वेदांत । धादांत आत्मा ॥४६॥
अस्तु ऐसा जो शाश्वत ब्रह्म । जहां नहीं माया भ्रम । अनुभव जानते मर्म । स्वानुभव से ॥४७॥
अपने ही अनुभव से । कल्पना को तोड़े । तब संपन्नता रहे । अनुभव की ॥४८॥
निर्विकल्प की कल्पना करने से । कल्पना टूटे स्वभाव से । फिर ना रह कर भी रहे । कल्पकोटि ॥४९॥
कल्पना का एक सही । जहां जाये होती वही । स्वरूप में डालें तो भर जाती । निर्विकल्प से ॥५०॥
निर्विकल्प की कल्पना से । कल्पना की न वार्ता रहे । निःसंग को जाये मिलने । निःसंग ही होते ॥५१॥
ब्रह्म नहीं पदार्थ जैसे । की जो हांथ में दे सके। अस्तु यह सदगुरू मुख से । अनुभव करें ॥५२॥
आगे कथा का अन्वय । किया हुआ ही करें निश्चय। जिससे अनुभव में आये। केवलब्रह्म ॥५३॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चतुर्दशब्रह्मनिरूपणनाम समास तीसरा ॥३॥
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Last Updated : December 04, 2023
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