चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास चौथा - विमलब्रह्मनिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


‍॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ब्रह्म नभ से निर्मल । देखो तो वैसे ही पोल । अरूप और विशाल । मर्यादारहित ॥१॥
इक्कीस स्वर्ग सप्त पाताल। मिलकर एक ब्रह्मगोल । ऐसे अनंत वह निर्मल । व्याप्त रहे ॥२॥
ब्रह्मांड से नीचे अनंत ब्रह्मांड के ऊपर अनंत । उसके बिन स्थल रिक्त । अणुमात्र नहीं ॥३॥
जल स्थल काष्ठ पाषाण में । लोकवाणी कहे ऐसे । प्राणी रिक्त बिना उसके । एक भी नहीं ॥४॥
जलचरों को जैसे जल । बाह्य अभ्यंतर में एकसा केवल । वैसे ही ब्रह्म यह केवल। जीवमात्रों के लिये ॥५॥
जल को छोड़ स्थान रहते । ब्रह्म से बाहर जा ना सके । अतः उपमा शोभा न दे। जल की उसको ॥६॥
आकाश के बाहर पलायन करे । आकाश तत्त्वतां ही आगे । उस अनंता का भी वैसे । अंत ही नहीं ॥७॥
पर जो अखंड मिला । सर्वांग से लिपटा । अति निकट होकर भी ना दिखता। सभी को जो ॥८॥
उसी में ही सब रहते । मगर उसे ना जानते । समझे भास न समझे । परब्रह्म वे ॥९॥
आकाश में बादल । जिससे आकाश दिखे धूमिल । परंतु वह मिथ्या निर्मल । आकाश ही रहता ॥१०॥
आकाश निहारते रहने से । दिखते चक्र आखों से । दृश्य ज्ञानियों को वैसे । मिथ्यारूप ॥११॥
मिथ्या मगर आभास होये । निद्रित को स्वप्न जैसे । जागने पर अपने आप से । बूझने लगता ॥१२॥
वैसे अपने ही अनुभव से । ज्ञान से जागृति में आये । फिर मायिक सहजता से । समझने लगे ॥१३॥
अब रहने दो यह उलझाव को । ब्रह्मांड के उस पार जो । वही अब निर्णय जो । समझाकर दिखायें ॥१४॥
ब्रह्म ब्रह्मांड में मिला हुआ । पदार्थ में व्याप्त हुआ । सभी में विस्तार हुआ । व्याप्त होकर ॥१५॥
ब्रह्म में सृष्टि भासे । सृष्टि में ब्रह्म रहे । अनुभव लेते आभासे । अंशमात्र से ॥१६॥
अंशमात्र से सृष्टि के भीतर । कौन करे मर्यादा बाहर । संपूर्ण ब्रह्म ब्रह्मांड उदर । में समायें कैसे ॥१७॥
अमृतपात्र में आकाश । भरकर रखने का प्रयास। इस कारण उसका अंश । कहता हूं ॥१८॥
वैसे ब्रह्म सभी में है मिले । मगर वह नहीं हिले । सभी में फिर भी व्याप्त रहे । व्यापकता से ॥१९॥
पंचभूतों में मिश्रित । परंतु वह पंचभूतातीत । पंक में आकाश अलिप्त । होकर रहे जैसे ॥२०॥
ब्रह्म को दृष्टांत न रचे । बूझने को देना पडे । मगर साहित्यानुसार दृष्टांत दिखे । पूछने पर आकाश ॥२१॥
खं ब्रह्म ऐसी श्रुति । गगनसदृशं यह स्मृति । इस कारण ब्रह्म को दृष्टांत ही । आकाश का ॥२२॥
काला न पडता पीतल । फिर वह सोना ही केवल । शून्यत्व न हो तो निर्मल । आकाश ब्रह्म ॥२३॥
इसलिये ब्रह्म जैसे गगन । और माया जैसे पवन । दिखता रहता फिर भी दर्शन । न होता उसका ॥२४॥
शब्द सृष्टि की रचना । होती जाती क्षण क्षणा । परंतु वह स्थिर रहे ना । वायु जैसी ॥२५॥
अस्तु ऐसी माया मायिक । शाश्वत मात्र ब्रह्म एक । देखने जाओ तो अनेक । व्याप्त है ॥२६॥
पृथ्वी को भेदकर रहे । मगर वह ब्रह्म कठिन नहीं है। दूजी उपमा न शोभा दे। उसके मृदुत्व को ॥२७॥
पृथ्वी से जल कोमल । जल से वह अनल । अनल से कोमल । वायु को जानो ॥२८॥
वायु से वह गगन । अत्यंत ही मृदु जान । गगन से मृदु पूर्ण । ब्रह्म जानो ॥२९॥
ब्रज को रहा भेदकर । मृदुत्व नहीं गया मगर । उपमारहित है व्याप्त। कठिन न कोमल ॥३०॥
रहे पृथ्वी में होकर व्याप्त । हो पृथ्वी नष्ट वह ना नष्ट । जल सूखे वह न हो शोषित । जल में रहकर भी ॥३१॥
तेज में रहे पर जलेना । पवन में रहकर चलेना । गगन में रहे पर समझेना । परब्रह्म वह ॥३२॥
शरीर संपूर्ण व्याप्त किया । मगर वह न दिखाई दिया । निकट होकर भी दूर हुआ । कैसा नवल ॥३३॥
सम्मुख ही चारों ओर । उसमें होता दृष्टिगोचर । व्याप्त बाह्याभ्यंतर । सिद्ध ही है ॥३४॥
उसी में ही है हम। हमारे सबाह्य उसे जान । दृश्य से भिन्न पहचान । गगन जैसी ॥३५॥
कुछ नहीं सा लगता । वहीं वह दटकर रहता। जैसे हमें न दिखता। अपना ही धन ॥३६॥
दृष्टि पडे जिस जिस पदार्थ पर । वह रहता पदार्थ के इस पार । उलझन यह अनुभव लेकर । सुलझाये ॥३७॥
आगे पीछे आकाश । पदार्थ बिना जो विस्तारित । सृष्टि बिन रिक्त । एकरूप ॥३८॥
जो जो रूप और नाम । वह सब झूठा ही भ्रम । नामरूपातीत मर्म । अनुभवी जाने ॥३९॥
नभ में धूम्र के शिखर । उठे बढ बढकर । वैसे दिखाये अवडंबर । मायादेवी ॥४०॥
ऐसी माया अशाश्वत । ब्रह्म जानिये शाश्वत । सभी स्थान पर सदोदित । भरा रहता ॥४१॥
पोथी पढ़ें तो देखे । मात्राओं के बीच रहे । नेत्रों से केंद्रित रहे । मृदुता से ॥४२॥
कानों से शब्द सुनता । मन से विचार देखा जाता । मन में सबाह्य तत्त्वता । परब्रह्म वह ॥४३॥
चले मार्ग पर तो चरणों में । जो दिखे सर्वांग में । हाथ से लें वस्तु तो लगे । ब्रह्म व्यापित ॥४४॥
अस्तु इंद्रिय समुदाय । उसमें व्यवहार करते सर्व । ज्ञान आने पर मिटे आस। इंद्रियों की ॥४५॥
वह निकट ही होता । देखने जाओ तो न दिखता । न दिखकर भी लगता । कुछ एक ॥४६॥
जो अनुभव से जाना जाये । सृष्टि के ही अभाव से । अपने ही स्वानुभव से । पायें ब्रह्म ॥४७॥
ज्ञान दृष्टि का देखना । चर्म दृष्टि से देख सके ना । अंतर्वृत्ति से पहचानना । अंतर्वृत्ति के चिन्ह ॥४८॥
जाने ब्रह्म जाने माया । जाने अनुभव का ठिकाना । जानें उसे एक तुर्या । सर्वसाक्षिणी ॥४९॥
साक्षत्व वृत्ति के कारण । उन्मनी को निवृत्ति जान । जहां लय हो ज्ञातापन। विज्ञान वह ॥५०॥
जहां अज्ञान हटता । ज्ञान भी न शेष रहता । एवं ज्ञानवृत्ति का लय होता । परब्रह्म में ॥५१॥
ऐसे ब्रह्म शाश्वत । जहां कल्पना का अंत । योगीजन एकांत । अनुभव से जानिये ॥५२॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे विमलब्रह्मनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥

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Last Updated : December 04, 2023

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