चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास पाचवां - द्वैतकल्पनानिरसनननाम ॥
श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
केवल ब्रह्म जो कहा । उसका अनुभव हुआ । और माया का भी हुआ । अनुसंधान ॥१॥
ब्रह्म भीतर प्रकाशित । और माया प्रत्यक्ष दर्शित । अब निरसन पाये यह द्वैत । किस प्रकार से ॥२॥
तो अब हो सावधान । एकाग्र करें मन । माया ब्रह्म ये कौन । जानता है ॥३॥
सत्य ब्रह्म का संकल्प । मिथ्या माया का विकल्प । ऐसे द्वैत का जल्प । मन ही करे ॥४॥
जाने ब्रह्म जाने माया । वही एक जानिये तुर्या । सर्व जाने अतः । सर्वसाक्षिणी ॥५॥
सुनो तुर्या के लक्षण । जहां सर्व ज्ञातापन । सर्व ही नहीं वह कौन । जान सकेगा ॥६॥
संकल्पविकल्प की सृष्टि । मन के ही कारण होती । अंत में मिथ्या मन की ही । साक्षी कौन ॥७॥
साक्षत्व चैतन्यत्व सत्ता । ये गुण ब्रह्म के माथा । जानिये आरोपित किये वृथा । मायागुण से ॥८॥
घटमठ के गुणवश । कहे हैं त्रिविध आकाश । माया सत्य के कारणवश । गुण ब्रह्म में आये ॥९॥
जबतक माया सत्य । तबतक ब्रह्म को है साक्षत्व । मायाअविद्या हों निरसित । द्वैत कैसा ॥१०॥
अतः सर्वसाक्षी मन । वही होने पर उन्मन । फिर तुर्यारूप ज्ञान । का अस्त हुआ ॥११॥
जिसे द्वैत भास हुआ । वह मन ही उन्मन हुआ । द्वैताद्वैत का टूट गया । अनुसंधान ॥१२॥
एवं द्वैत और अद्वैत । है वृत्ति के संकेत । वृत्ति होने पर निवृत्त । द्वैत कैसा ॥१३॥
वृत्तिरहित जो ज्ञान । वही पूर्ण समाधान । जहां टूटे अनुसंधान । माया ब्रह्म का ॥१४॥
माया ब्रह्म ऐसा हेत । मन का कल्पित संकेत । ब्रह्म कल्पनारहित । जानतें ज्ञानी ॥१५॥
जो मनबुद्धिअगोचर । जो कल्पना के भी पार । उसे अनुभव करते ही साचार । द्वैत कैसा ॥१६॥
द्वैत देखें तो ब्रह्म नहीं । ब्रह्म देखें तो द्वैत नहीं । द्वैताद्वैत का भास भी । कल्पना से ॥१७॥
कल्पना मायानिवारण करे । कल्पना ब्रह्म स्थापित करे । सशय धरे और दूर करे। वह भी कल्पना ॥१८॥
कल्पना करे बंधन । कल्पना दे समाधान । ब्रह्म का कराती अनुसंधान । वह भी कल्पना ॥१९॥
कल्पना द्वैत की माता । कल्पना ज्ञप्ति तत्त्वतः । बद्धता और मुक्तता । कल्पना के गुण से ॥२०॥
कल्पना अंतरंग में सबल । मिथ्या दिखाती ब्रह्मगोल । एक ही क्षण में निर्मल । स्वरूप कल्पित करे ॥२१॥
क्षण एक धोखे की चिंता दे । क्षण एक स्थिर रहे। क्षण एक देखे । विस्मित होकर ॥२२॥
क्षण एक समझे । एक क्षण में न बूझे । नाना विकार करे । वह कल्पना जानिये ॥२३॥
कल्पना जन्म का मूल । कल्पना भक्ति का फल । कल्पना वही केवल । मोक्षदात्री ॥२४॥
अस्तु ऐसी यह कल्पना । साधनों से देती समाधान । अन्यथा यह पतन । की जड़ ही है ॥२५॥
इस कारण सभी का मूल । यह कल्पना ही केवल । करते ही इसे निर्मूल । ब्रह्मप्राप्ति ॥२६॥
श्रवण और मनन । निजध्यास से समाधान । मिथ्या कल्पना का भान । उड़ जाता ॥२७॥
शुद्ध ब्रह्म का निश्चय । करे कल्पना की जय । निश्चित अर्थ से संशय । टूट जाता ॥२८॥
मिथ्या कल्पना की उलझनें । कैसी रहेगी सच के सामने । जैसे सूर्य के उजाले में । नष्ट होता तम ॥२९॥
वैसे ज्ञान के ही प्रकाश से । मिथ्या कल्पना का नाश होये । फिर टूटे अपने आप ये । द्वैतानुसंधान ॥३०॥
कल्पना से कल्पना मिटे । पशु को जैसे पशु पकड़े । या बाण से बाण कटे । आकाश मार्ग में ॥३१॥
शुद्ध कल्पना का बल । आते ही नष्ट होती सबल । यही वचन कहूं प्रांजल । सावध हो सुनो ॥३२॥
शुद्ध कल्पना की पहचान । स्वयं ही कल्पित करे निर्गुण । सत्स्वरूप में विस्मरण । होने ही न दें ॥३३॥
सदा स्वरूपानुसंधान । करे द्वैत का निरसन । अद्वयनिश्चय का ज्ञान । वही शुद्ध कल्पना ॥३४॥
अद्वैत कल्पना करे वह शुद्ध । द्वैत कल्पना करे वह अशुद्ध । अशुद्ध वही प्रसिद्ध । सबल जानो ॥३५॥
शुद्ध कल्पना का अर्थ । अद्वैत का निश्चितार्थ । और सबल वह व्यर्थ । द्वैत कल्पना करे ॥३६॥
अद्वैत कल्पना प्रकाश से । उसी क्षण द्वैत नष्ट होये । द्वैत के साथ निरसन पाये । सबल कल्पना ॥३७॥
कल्पना से कल्पना हटे । चतुर ऐसे जानिये । सबल जाते ही जो बचे । वह शुद्ध ॥३८॥
शुद्ध कल्पना का रूप । वही जो कल्पित करे स्वरूप । स्वरूप कल्पते ही तद्रूप । होते स्वयं ॥३९॥
कल्पना को मिथ्यत्व आया। सहज ही तद्रूप हुआ। आत्मनिश्चय ने नष्ट किया । कल्पना को ॥४०॥
जिस क्षण निश्चय डिगे । उसी क्षण द्वैत उभरे। जैसे सूर्यास्त से प्रबल होये । अंधकार ॥४१॥
वैसे ज्ञान होते ही मलिन । अज्ञान प्रबल होता जान । इस कारण श्रवण । अखंड करें ॥४२॥
अस्तु रहने दो जो बोल हुये । संशय तोडूं एक बोल से । द्वैतभास होता जिसे । वह तू नहीं सर्वथा ॥४३॥
टूटी पिछली आशंका । इतने से पूरी हुई कथा। आगे वृत्ति में सजगता । रखें श्रोता ॥४४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे द्वैतकल्पनानिरसननाम समास पांचवां ॥५॥
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Last Updated : December 04, 2023
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