अथ विवाहलग्ने भंगदा ग्रहा : । लग्ने शवैश्वर : सूर्यो लग्नारिनिधने १ । ६ । ८ शशी । लग्ने १ ऽष्टमे ८ महीसूनुरष्टमे ८ बुधवाक्पती ॥१५८॥
राहुस्तुर्ये ४ विलग्ने १ च निधनारि ८ । ६ गतो भृगु : । द्यूने ७ तु खेचरा : सर्वे विवाहे भंगदा : स्मृता : ॥१५९॥
कुजे खे १० द्वादशे १२ मन्दो लग्नेशो निधनारिग : ८ । ६ । तृतीये ३ भार्गवश्वन्द्रो व्यये १२ ते नैव शोभना : ॥१६०॥
अथ भंगदग्रहापवाद : । नीचराशि ६ गते शुक्रे शत्रुक्षेत्रगतेऽपि वा । भृगुषट्कोत्थितो दोषो नास्ति तत्र न संशय : ॥१६१॥
अस्तगे नीचगे ४ भ्ॐए शुत्रक्षेत्रगेऽपि वा । कुजाष्टमोद्भवो दोषो न किंचिदपि विद्यते ॥१६२॥
नीचराशिगते ८ चन्द्रे नीचांशकगतेऽपि वा । चन्द्रे षष्ठाष्ट ६ । ८ रिष्फ १२ स्थे दोषो नास्ति न संशय : ॥१६३॥
काव्वे गुरौ वा सौम्ये वा यदा केन्द्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोण ९ । ५ गे । नाशयंत्यखिलान्दोषान्पापानीव हरिस्मृति : ॥१६४॥
किं कुर्वंति ग्रहा : सर्वें यस्य केंन्द्रे बृहस्वति : । मत्तयातंगयूथानां शतं हंति च केसरी ॥१६५॥
शुक्रो दशसहस्त्राणि बुधो दशशतानि च । लक्षमेकं तु दोषाणां गुरुर्लग्ने व्यपोहति ॥१६६॥
( विवाहके लग्नमें भंग देनेवाला ग्रह ) लग्नमें शनैश्व्र सूर्य अशुभ हैं , लग्नमें १ छठे ६ , आठवें ८ चंद्रमा अशुभ है , लग्नमें १ , आठवें ८ , मंगल और आटवें ८ बुध . बृहस्पति भंग देते हैं ॥१५८॥
राहु चौथे ४ लग्नमें १ और आठवें ८ , छठे , ६ शुक्र अशुभ हैं । सातवें ७ संपूर्ण ग्रह विवाहमें भंग देते हैं ॥१५९॥
मंगल दशवें १० , शनि बारहवें १२ , लग्नका स्वामी ८ । ६ , शुक्र , ३ , चन्द्रमा १२ , श्रेष्ठ नहीं हैं ॥१६०॥
( भंग देनेवाले ग्रहोंका परिहार ) शुक्र कन्याका हो या शत्रुकी राशि ५।४ पर हो तो आठवें छठे शुक्रका दोष नहीं है ॥१६१॥
मंगल अस्तका दोष नहीं है ॥१६२॥
चंद्रमा वृश्चिक ८ का हो अथवा वृश्चिक नवांशकमें हो तो छठे ६ आठवें ८ चन्द्रमाका दोष नहीं है ॥१६३॥
और शुक्र या गुरु , बुध , केन्द्र १। ४।७।१० स्थानमें या त्रिकोण ९ । ५ । में हों तो संपूर्ण दोषोंको ऐसे दूर करते हैं जैसे हरिका नाम पापोंको दूर करता है ॥१६४॥
जिसके लग्नसे बृहस्पति केंद्र १।४७।१० स्नानमें है तो फिर अन्य ग्रह क्या कर सकते हैं जैसे सैकडों ही हस्तियोंको एक ही सिंह मार डालता है ॥१६५॥
यदि विवाहके लग्नमें शुक्र हो तो १० , ००० दोष दूर करता है तो बुध १००० दोष दूर करता है , यदि बृहस्पति लग्नमें हो तो लक्ष दोष दूर करता है ॥१६६॥
अथ विवाहलग्ने क्रमेण ग्रहफलम् । वाराहीसंहितायाम् - मूर्तौ करोति विधवां दिनकृत् कुजश्व राहुर्विनष्टतनयां रविजो दरिद्राम् । शुक्र : शशांकतनयश्व ग्रुरुश्व साध्वीमायु : क्षयं च कुरुतेऽत्र च शर्वरीश : ॥१६७॥
कुर्वैति भास्करशनैश्वरराहुभौमा दारिद्रयदुःखमतुलं नियतं द्वितीये । वित्तेश्वरीमविधवां गुरुशुक्रसौम्या नारीं प्रभूततनयां कुरुते शशांक : ॥१६८॥
सूर्येन्दुभौमगुरुशुक्रबुधास्तुतीये कुर्यु : स्त्रियं बहुसुतां धनभागिनीं च । व्यक्तं दिवाकरसुत : कुरुते धनाढयां लक्ष्मीं ददाति नियतं किल सैंहिकेय : ॥१६९॥
स्वल्पं पयो भवति सूर्यसुते चतुर्थे दौर्भाग्यमुष्णकिरण : कुरुते शशी च । राहुर्विनष्टतनयां क्षितिजोऽल्पवीर्यां सौख्यान्वितां भृगुसुरेज्यबुधाश्व कुर्यु : ॥१७०॥
नष्टात्मजां रविकुजौ खलु पंचमस्थौ चन्द्रात्मजो बहुसुतां गुरुभार्गवौ च । राहुर्ददाति मरणं रविजस्तु रोगं कन्याप्रसूतिनिरतां कुरुते शशांक : ॥१७१॥
षष्ठस्थिता : शनिदिवाकरराहुभौमा जीवस्तथा बहुसुतां धनभागिनीं च । चंद्र : करोति विधवामुशना दरिद्रां वेश्यां शशांकतनय : कलहप्रियां च ॥१७२॥
सौरारजीवबुघराहुरविंदुशुक्रा दद्यु : प्रसह्य मरणं खलु सप्तमस्था : । वैधव्यबंधनभयं क्षयवित्तनाशं व्याधिप्रवासमरणं नियतं क्रमेण ॥१७३॥
स्थानेऽष्टमे गुरुबुधौ नियतं वियोग मृत्युं शशी भृगुसुतश्व तथैव राहु : । सूर्य : करोति बिधवामधनीं कुजश्व सूर्यात्मजो बहुरुजां पतिवल्लभां च ॥१७४॥
धर्मस्थिता भृगुदिवाकरभूमिपुत्रजीवा : सुधर्मनिरतां शशिज : सुभोगाम् । राहुश्व सूर्यतनयश्व करोति वंध्यां नारीं प्रभूततनयां कुरुते शशांक ; ॥१७५॥
राहुर्नभस्थल १० गतो विधवां करोति पापे परां दिनकरश्व शनैश्वरश्व । मृत्युं कुजोऽर्थरहितां कुटिलां च चंद्र : शेषां ग्रहा धनवतीं बहुवल्लभां च ॥१७६॥
आये ११ रविर्बहुसुतां धनिनीं शशांक : पुत्रान्वितां क्षितिसुतो रविजो धनाढयाम् । आयुष्मतीं सुरुगुरुर्भुगुज : सुपुत्रीं राहु : करोति सुभगां सुखिनीं बुधश्व ॥१७७॥
अंत्ये १२ धनव्ययवतीं दिवकृद्दरिद्रां वंध्यां कुज : पररतां कुटिलां च राहु : । साध्वीं सितेज्यशशिजा बहुपुत्रपौत्रयुक्तां विधु : प्रकुरुते व्ययगो दिनांधाम् ॥१७८॥
( बारह भावोंका फल ) लग्नमें सूर्य मंगल हों तो विधवा करें , राहु हो तो संतानको मारे , शनि हो तो दरिद्रा करे , और शुक्र , बुध , गुरु हों तो पतिव्रता करें , यदि चंद्रमा लग्नमें हो तो आयु : क्षय करे ॥१६७॥
दूसरे सूर्य , शनि , राहु , मंगल हों तो दारिद्रय दु : ख करें , गुरु , शुक्र , बुध हों तो धनवती सौभाग्यवती करें , चन्द्रमा दूसरे हो तो बहुतसे पुत्र देवे ॥१६८॥
तीसरे सृर्य़ , चन्द्रमा , मंगल , गुरु , शुक्र , बुध शनि , राहु हों तो बहु पुत्र और धन करें ॥१६९॥
चौथे शनि हो तो कन्याके दुग्धको नाश करे , सूर्य , चन्द्रमा मंदभाग्य करें , राहु संतान नष्ट करे , मगल निविंर्य करे और शुक्र , गुरु , बुध , हों तो सुख देवें ॥१७०॥
पांचवें सूर्य मंगल हों , तो संतानको नष्ट करें , बुध , गुरु , शुक्र बहुत पुत्र देवें , राहु मृत्यु करे शनि रोग करे , चन्द्रमा हो तो बहुतसी कन्या देवे ॥१७१॥
छाटे शनि , सूर्य राहु , मंगल , गुरु हों तो बहुतसे पुत्र , धन देवें , चन्द्रमा विधवा करे , शुक्र दरिद्रा करें , बुध वेश्या या कलह करनेवाली करता है ॥१७२॥
सातवें श . मं . गु . बु . रा . सू . चं . शु . अ यह संपूर्ण ग्रह मृत्यु , वैधव्य , बंधन , भय , नाश , धननाश , रोग , परदेशमें मृत्यु क्रमसे करते हैं ॥१७३॥
आठवें गुरु , बुध पतिका वियोग करें , चन्द्रमा , शुक्र , राहु , मृत्यु , करें , सूर्य विधवा करे , मंगल दरिद्री करे , शनैश्वर रोगिणी और पतिको प्यारी करे ॥१७४॥
नौवें शुक्र , रवि , मंगल , गुरु , बुध हों तो उत्तम धर्म करनेवाली और भोग भोगनेवाली करते हैं , राहु , शनि वंघ्या करें , चंद्रमा बहुत पुत्र देवे ॥१७५॥
दशवें राहु हो तो विधवा करे , सूर्य , शनि पापिनी करें , मंगल मृत्यु करे , चन्द्रमा दरिद्रा और कुटिला करे , और गुरु , शुक्र बुध धनवती पतिवल्लभा करें ॥१७६॥
ग्यारहवें सूर्य हो तो बहुत पुत्र देवे , चन्द्रमा धनवती करे , मंगल पुत्रवती करे , शनि धनवती करे , गुरु आयु देवें , शुक्र उत्तम पुत्र करे , राहु सौमाग्य करे , बुध सुख देवे ॥१७७॥
बारहवें सूर्य हो तो बहुत खरच करनेवाली दरिद्रा करे , मंगल वंध्या करे , राहु परपुरुषोंमें रत , कुटिला करे , शुक्र , गुरु , बुध बहुतसे पुत्र पौत्र देवें और चन्द्रमा दिनांध रोग करे ॥१७८॥
अथ गोधूलिकलग्नम् । तत्र तावद्रोधूलिसमय : । यदा नास्तं मतो भानुगोंधूल्या पूरितं नम : । सर्वमंगलकार्येषु गोधूलिश्व प्रशस्यते ॥१७९॥
अर्धास्तात्पूर्वमप्यूर्ध्यं घटिकार्द्धं तु गोरज : । स कालो मंगले श्रेयान् विवाहासौ शुभप्रद : ॥१८०॥
निदाघे त्वर्द्धबिंबेऽकें पिंडीभूते हिमागमे । मेधकाले तु पूर्णेऽस्ते प्रोक्तं गोधूलिकं शुभम् ॥१८१॥
( गोधूलिलग्नका विचार ) सूर्य अस्त नहीं हुआ हो और जंगलसे आती हुई गौओंके पावोंकी रेतीसे आकाश भर जावे तब गोधूलिक समय होता है सो संपूर्ण मांगलिक कार्योंमें श्रेष्ठ है ॥१७९॥
सूर्य आधा अस्त हो जावे तबसे पहलेकी आधी घडी और अस्त होनेके बाद आधी घडी गोधूलिक लग्नकी है , सो यह लग्न विवाहादिकोंमें श्रेष्ठ है ॥१८०॥
ग्रीष्म ऋतुमें सूर्य आधा अस्त होनेसे और शरद ऋतुमें सूर्य चक्रके आकार हो जानेसे और वर्षा ऋतुमें सूर्य अस्त होनेसे श्वेष्ठ गोधूलिक होता है ॥१८१॥