अथात्यावश्यके चतुर्थादिस्थरविशुद्धिप्रकार : । द्विरर्च्योद्धादशस्तुर्यो ऽथाष्टमस्त्रिगुणार्चनात् । अथावश्यके विवाहे पूजाद्वयप्राप्ते तस्य परिहार : । यत्रार्कगुर्वोरपि नैधनां ८ त्ये १२ जन्मादिदुःस्थानगयोर्द्वयोर्वा । एकस्य पूजामपि तत्र कृत्वा पाणिग्रहं कार्यमत : कदाचित् ॥१५॥
अथ रविपूजाशांतिश्व । भास्कर शुद्धसौवर्णें कृत्वा यत्नेन मानव : । ताम्रपात्रे स्थापयित्वा रक्तपुष्पै : प्रपजयेत् । रक्तवस्त्रयुगच्छन्नं छत्रोपानद्युगान्वितम् ॥१६॥
घृतेन स्नापयित्वा च लडडुकान्विनिवेद्य च । होमं तिलघृतै : कुर्याद्रविनाम्ना च मंत्रवित् ॥१७॥
समिधोऽष्टोत्तरशतमष्टाविंशतिरेव च । होतव्या मधुसर्पिर्श्र्यां दध्ना चैव घृतेन च ॥१८॥
मंत्रेणानेन विदुषे ब्राह्मणाय प्रदापयेत् । आदिदेव नमस्तुश्र्यं सप्तसप्ते दिवाकर ॥१९॥
त्वं रवे तारयस्वास्मानस्मात्संसारसागरात् । सूर्यपीडासु घोरामु कृता शांति : शुभप्रदा ॥२०॥
( अत्यावश्यक चतुर्थादिस्थ रविकी शुद्धि ) यदि वर बहुत बरसोंका हो गया हो और अति आवश्यकता हो तो बारहवें १२ , चौथे ४ सूर्यकी दो वार २ पूजा करनेसे और आठवें ८ सूर्यकी तीन ३ बार पूजा करनेसे विवाह श्रेष्ठ होता है , ( विवाहमें अत्यावश्यक दो पूजा प्राप्त होनेपर परिहार ) अथवा गुरु सूर्य आठवें ८ बारहवें १२ या जन्म आदि पूज्यस्थानोंमें हो या दो पूजा लगती हो तो दोनोंमेंसे एककी यथार्थ पूजा करनेसे भी अति आवश्यकमें विवाह करना शुभ है ॥१५॥
( सूर्यकी पूजाका विधान ) अच्छे सुवर्णकी सूर्यकी मूर्ति बनाके लाल वस्त्रसे लपेटके तांबेके पात्रमें स्थापन करे और रक्तचन्दन , पुष्प आदिकोंकरके पूजा करे , छाता तथा जूता पास रक्खे ॥१६॥
और घृतसे स्नान करावे , लड्डूका नैवेद्य अर्पण करे , फिर घृट तिलकी और शहद घृत दहीसे तर अर्थात् खूब चोपडके आककी समिधोंकी सूर्यके वैदिक या नाममंत्र करके १०८ या २८ आहुति अग्निमें देवे ॥१७॥१८॥
फिर ( आदिदेव ) इस मन्त्रको पढके संकल्परीतिसे ब्राह्मणको मूर्तिका दान करे तो सूर्यकी घोर पीडा भी शांत हो और विवाहमें शुभ हो ॥१९॥२०॥
अथ रविदानम् । कौसुंभवस्त्रं गुडहेमताम्रं माणिक्यगोधूमसुवर्णपग्नम् । सवत्सगोदानमिति प्रणीत दुष्ठाय सूर्याय मसूरिकाश्व ॥२१॥
अथ कन्याया गुरोर्बलम् । एकादशे ११ द्वितीये २ वा पंचमे ५ मप्तमे ७ऽपि वा । नवमे ९ च सुराचार्य : कन्याया : कथित : शुभ : ॥२२॥
षष्ठे ६ जन्मनि १ देवेज्ये तृतीये ३ दशमे १० ऽपि वा ॥ भूरिपूजापूजित : स्यात्कन्याया : शुभकारक : ॥२३॥
अष्टमे ८ द्वादशे १२ बापि चतुर्थे ४ वा बृहस्पतौ । पूजा तत्र न कर्त्तव्या विवाहे प्राणनाशक : ॥२४॥
( सूर्यका दान ) पूजा करनेके अनन्तर कुसुम्भेके लाल वस्त्र , गुड , सुवर्ण . ताम्र लाल माणि , गोधूम , कमल , बछडे सहित धेनु , मसूर यह दान यथाशक्ति दुष्ट सूर्यके अर्थ करे , तो शुभ कल्याण होवे ॥२१॥
( कन्याको गुरुकी शुद्धि ) कन्याकी जन्मराशिसे ११ । २ । ५ । ७ । ९ इन स्थानोंमें गुरु हो तो विवाहमें शुभ है ॥२२॥
और ६।१।३।१० गुरु हो तो पूजा करनेने शुभ होता है ॥२३॥
और ८ । १२ । ४ । इन स्थानोंमें गुरु हो तो प्राणका नाश करता है ॥२४॥
अथावश्यके दोषापवाद : । गुरु : स्वोच्चे स्वमैत्रे वा स्वांशे वर्गोत्तमे ऽपि वा । शुभस्तुर्योऽष्टमोंऽत्योऽपि नीचारिस्थ : शुथोऽप्यसत् ॥२५॥
झष १२ चाप ९ कुलीर ४ स्थो जीवोऽप्यशुभगोचर : । अतिशोभनतां दद्याद्विवाहोपनयादिषु ॥२६॥
सप्तमात्पंचवषेंषु स्वोच्चस्वर्क्षगतो यदि । अशुभोऽपि शुभं दद्याच्छुभऋक्षेषु किं पुन : ॥२७॥
अथ कालातिक्रमें विशेष : । अर्कगुर्वोर्बलं गौर्या रोहिण्यर्कबला स्मृता । कन्या चन्द्रबला प्रोक्ता वृषली लग्नतो बला ॥२८॥
अष्टवर्षा भवेद्रौरी नववर्षा च रोहिणी । दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला ॥२९॥
दशवर्षव्यतिक्रांता कन्या शुद्धिविवर्जिता । तस्यास्तारेंदुलग्नानां शुद्धौ पाणिग्रहो मत : ॥३०॥
द्वादशैकाद्शे वर्षे यस्या : शुद्धिर्न जायते । पूजाभि : शकुनैर्वाऽपि तस्या लग्नं प्रदापयेत् ॥३१॥
रजस्वला यदा कन्या गुरुशुद्धिं न चिंतयेत् । अष्टमेऽपि प्रकर्त्तव्यो विवाहस्त्रिगुणार्चनात् ॥३२॥
( आवश्यकमें दोष परिहार ) यदि कन्या बडी हो तथा विवाहकी अति जरूरत हो और गुरु कर्क ४ राशिपर हो अथ अपने मित्रकी राशि १ । ५ । ८ पर अहो या अपने नवांशकपर या अपने वर्गपर हो तो चतुर्थाष्टम ४ । ८ का दोष नहीं , शुभ जानना , नीचराशि १० या शत्रुराशि २।७ ३ । ६ गुरु शुभ हो तो अशुभ जानना ॥२५॥
और मीन १२ धन ९ कक ४ का गुरु हो तो अशुभ ४।८।१२ भी हो परंतु विवाह यज्ञोपवीत आदि कार्योंमें श्रेष्ट ही जानना ॥२६॥
और सात ७ वर्षसे लेके ग्यारह ११ वर्षतककी कन्याको यदि गुरु अशुभ राशिका ४।८।१२ भी है परंतु अपनी उच्च ४ राशि या स्वगृह ९ । १२ राशिपर हो तो शुभ जानना और यदि शुभ राशिका हो तो फिर कहना ही क्या है ॥२७॥
( कालातिक्रमण होनेपर विशेष ) गौरी ( आठ ८ बरसकी ) कन्याको सूर्य गुरुका बल देखना और रोहिणी ( नौ ९ बरसकी ) कन्याको केवल सूर्यका ही बल देखना और कन्या ( दश १० बरसकी ) कन्याको चंद्रमाका बल देखना और दश बरससे उपरांत रजस्वलाको लग्नका ही बल देखना चाहिये ॥२८॥२९॥
दश बरसके अनंतर कन्या संज्ञा नहीं रहती है , इसवास्ते उसके विवाहमें तारा चंद्रमा लग्नका बल देखके विवाह करना श्रेष्ठ है ॥३०॥
बारह १२ ग्यारह ११ बरसकी कन्या रजस्वला संज्ञाकी होती है , इसलिये उसके विवाहमें पूजा करके , या शुभ शकुन करके लग्न देना शुभ है ॥३१॥
और रजस्वला कन्याको गुरुकी शुद्धि नहीं देखवा चाहिये और उसका विवाह तीनगुणी ( तिगुनी ) पूजासे आठवें ८ बृहस्पतिमें भी कर लेना चाहिये ॥३२॥