तत्र तावत्कन्यावरयोर्विवाह्काल : । युग्मेऽब्दे जन्मत : स्त्रीणां प्रीतिदं पाणिपीडनम् । एतत्पुंसामयुग्मेऽब्दे व्यत्यये नाशनं तयो : ॥१॥
अत्र कन्याविवाहे विशेष : । अयुग्मे दुर्भगा नारी युग्मे तु विधवा भवेत् । तस्माद्नर्भान्विते युग्मे विवाहे सा पतिव्रता ॥२॥
मासत्रयादूर्ध्वमयुग्मवर्षे युग्मेऽपि मासत्रयमेव यावत् । विवाहशुद्धिं प्रवदंति सर्वे व्यासादयो ज्यातिषि जन्ममासात् ॥३॥
अथ कन्याविवाहे निषेधकाल : । षडब्दमध्ये नोद्वाह्या कन्या वर्षद्वयं यत : । सोमी भुंक्तेऽथ गंधर्वस्तत : पश्वाद्धुताशन : ॥४॥
अतो गर्भान्विते युग्मे सप्तसंवत्सरात्परम् । आदशाब्दं तु कन्याया विवाह : सार्ववर्णिक : ॥५॥
अथ कन्याया : संज्ञा वर्षफलं च । अष्टवर्षा भवेद्रौरी नववर्षा च रोहिणो । दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला ॥६॥
गौरीं ददद् ब्रह्मलोक सावित्रं रोहिणीं ददत् । कन्यां ददत्स्वर्गलोकं रौरवं च रजस्वलाम् ॥७॥
अथ विवाहप्रकरणं लिख्यते - ( कन्यावरके विवाहका समय ) कन्याका विवाह जन्मसे युग्म ८।१० वर्षोंमें और पुरुषोंका अयुग्म वरसमें करना शुभ है और विपरीत करनेसे दोनोंका नाश होता है ॥१॥
( कन्याके विवाहका विशेष विचार ) कन्याका विवाह अयुग्म नाम एकीके फलावके बरसोंमें करे तो मन्दभागिनी हो और युग्म नाम दोकीके फलावसे करे तो विधवा हो , इसवास्ते गर्भमें युग्म ८ । १० वरसमें विवाह करे सो कन्या पतिव्रता सुभागिनी होती ॥२॥
( उदाहरण ) अर्थात् कन्याके जन्ममासमें अयुग्म ७ । ९ । ११ बरसके तीन ३ मास जानेसे विवाह शुभ है और युग्म ८ । १० । १२ बरसके तीन मासके भीतर विवाह श्रेष्ठ है , इसप्रकार व्यास , वाल्मीकि , गर्ग आदि ऋषि कहते हैं ॥३॥
( निषेध काल ) कन्याका विवाह छ : बरस ६ के भीतर नहीं करना चाहिये कारण कि दो २ दो २ बरस चन्द्रमा , गन्धर्व , अग्नि कन्याको भोगते हैं सो छ : ६ बरससे पहले सगाई करना भी निषिद्ध है ॥४॥
इसवास्ते गर्भसे लेके सात ७ बरसके उपरांत और दस १० बरसके भीतर कन्याका विवाह सम्पूर्ण वर्णांको करना शुभ है ॥५॥
( कन्याके विवाहमें संज्ञा और बरसोंका फल ) आठ ८ बरसकी कन्याकी गौरी संज्ञा है , और ९ बरसकी रोहिणी संज्ञा है , दश बरसकी कन्या संज्ञा कही है , और दशसे उपरांत रजस्वला संज्ञा हो जाती है ॥६॥
गौरीसंज्ञका कन्याका विवाह करनेसे पिता ब्रह्मलोकको जाता है और रोहिणीका विवाह करनेसे सूर्यके लोकको और कन्यासंज्ञकाके दानसे स्वर्गलोकमें जाता है और रजस्वलाका विवाह करनेसे रौख नाम नरकमें पडता है ॥७॥
अथ रजस्वलाकन्याया विशेषनिंदा । प्राप्ते तु द्वादशे वर्षे य : कन्यां न प्रयच्छति । मासि मासि रजस्तस्या : पिता पिबति शोणितम् ॥८॥
माता चैव पिता चैव ज्येष्ठभ्राता तथैव च । त्रयस्ते नरकं यांति द्दष्ट्वा कन्यां रजस्वलाम् ॥९॥
तस्माद्विवाहयेत्कन्यां यावन्नर्त्तुमती भवेत् । विवाहोऽष्टमवर्षाया : कन्यायास्तु प्रशस्यते ॥१०॥
अथ विवाहे रविगुरुचंद्रबलम् । वरस्य भास्करबलं कन्यकाया गुरोर्बलम् । द्वयोश्चंद्रबलं ग्राह्यमिति गर्गेण भाषितम् ॥११॥
तत्रादौ वरस्य रविबलम् । एकादशे ११ तृतीये ३ वा षष्ठे ६ वा दशमेऽपि १० वा । वरस्य शुभदो नित्यं विवाहे दिननायक : ॥१२॥
जन्मन्यथ १ द्वितीये च २ पंचमे ५ सप्तमे ७ ऽपि वा । नवमे ९ च दिवानाथे पूजया पाणिपीडनम् ॥१३॥
अष्टमे ८ च चतुर्थे ४ च द्वादशे १२ च दिवाकरे । विवाहितो वरो मृत्युं प्राप्नोत्यत्र न संशय : ॥१४॥
( रजस्वलाकन्याकी विशेष निंदा ) बारह १२ बरसके बाद जो कन्या नहीं विवाहता है तो उसका पिता मासमासमें कन्याका शोणित ( खृन ) पीता है ॥८॥
माता , पिता , ज्येष्ठ , भ्राता , यह तीनों रजस्वला होनेतक कन्याको नहीं विवाहें तो नरकको जाते हैं ॥९॥
इसवास्ते जबतक कन्या रजस्वला नहीं हो तबतक आठ ८ बरस आदिकी कन्याका विवाह श्रेष्ठ है ॥१०॥
( विवाहमें सूर्य गुरु चन्द्रमाके बलका विचार ) बरको सूर्यबल देखना , कन्याको बृहस्पतिका बल और दोनोंको चन्द्रमाका बल देखके विवाह करना श्रेष्ठ है ॥११॥
( वरका रविबल ) वरकी जन्मराशिसे ११।३।६ इन स्थानोंमें सूर्य हो तो विवाहमें शुभ है ॥१२॥
और १ । २ । ५ । ७ । ९ इन स्थानोंमें सूर्य होवे तो पूजा करके विवाह करे तो शुभ है ॥१३॥
और आठवें ८ चौथे ४ बारहवें १२ सूर्यमें विवाह करे तो वरकी मृत्यु होंबै इसमें सन्देह नहीं ॥१४॥