दिव्यभाव विवेचन --- आनन्दभैरवी ने कहा --- हे शिव ! यत्नपूर्वक आप श्रवण कीजिए , कौलिक ( शाक्त परम्परा ) में दिव्यभाव सर्वश्रेष्ठ है । सभी देवताओं के द्वारा अर्चित , तेजः पुञ्ज से प्रपूरित , तेजोमयी , महाविद्या की सारे जगत् में मूर्ति की कल्पना कर उनका ध्यान करे और सारे जगत् उन उन रुपों से अपने को तन्मय बना कर अथवा अपने को सर्वमय बनाकर स्नेह शून्य मन से सारे पदार्थों को पोषित के रुप में समझ कर उनका ध्यान करे और एकाग्रमन से उनकी पूजा भी करे ॥८३ - ८५॥
सभी कुलों से सम्पन्न , अनेक प्रकार की जातियों में उत्पन्न , अनेक देश में उत्पन्न , सदगुण और लास्य से युक्त स्त्री जाति को महाविद्या का स्वरुप समझे । दो वर्ष से लेकर ८ वर्ष पर्यन्त सुन्दर तथा मोह उत्पन्न करने वाली कन्या के मन्त्र का जप कर उनका पूजन करे ॥८६ - ८७॥
ऐसा करने से साधक दिव्यभाव में स्थित हो जाता है । उसे तत्क्षण मन्त्र का फल प्राप्त होता है । कुमारियों के पूजन से कुमारियों के भोजनादि से एक , दो तीन आदि बीज मन्त्रों द्वारा कन्यायें फल देतीं हैं । इसमें संदेह नहीं करना चाहिए । उन्हें पुष्प एवं फल देवे । इत्रादि सुगन्धित द्र्व्यों का अनुलेपन करे । उनको प्रिय लगने वाला नैवेद्य प्रदान करें । उनकी भावना से भावित रहे । प्रसन्नता पूर्वक उनके अङ्र में माला प्रदान करे । उनके बाल भावों की चेष्टा करे ॥८८ - ९०॥
उनकी जाति , प्रिय , कथालाप , क्रीडा तथा कौतुक से युक्त रहे किं बहुना यथार्थ रुप से उनका प्रिय करे तो साधक सिद्धीश्वर हो जाता है ॥९१॥
कन्या सबकी समृद्धि करने वाली है । कन्या सभी शत्रुओं का उन्मूलन करने वाली हैं । होम , मन्त्रार्चन , नित्यक्रिया , कौलिकसक्त्रिया , अनेक प्रकार के फल देने वाले महाधर्म , कुमारी पूजन के बिना साधक को आधे फल देते हैं ॥९२ - ९३॥
वीरभाव की साधना करने वाला साधक कुमारी पूजन से करोड़ों गुना फल प्राप्त करता है । यदि कौल मार्ग का विद्वान् कन्या की अञ्जलि पुष्पों से परिपूर्ण कर देवे तो उसे करोड़ों मेरु के दान का फल प्राप्त होता है और उसे ज्ञान से होने वाला समस्त पुण्य क्षण मात्र में प्राप्त हो जाता है ॥९४ - ९५॥
जिसने कुमारियों को भोजन कराया मानो उसने समस्त त्रिलोकी को भोजन करा लिया । एक वर्ष की कन्या सन्ध्या , दो वर्ष की कन्या सरस्वती स्वरुपा होती है । त्रिवर्षा त्रिमूर्ति चतुर्वर्षा कालिका , पञ्चवर्षा सूर्यगा ( सावित्री ), षष्ठ वर्षा रोहिणी , सात वर्ष वाली कन्या मालिनी , अष्टवर्षा कुब्जिका , नव वर्ष वाली कालसंदात्री , दशवर्ष , वाली अपराजिता एकादश वर्ष वाली रुद्राणी , १२ वर्ष वाली भैरवी , त्रयोदश वर्ष वाली महालक्ष्मी , दो सात अर्थात् १४ वर्ष वाली पीठनायिका , पन्द्रह वर्ष की अवस्था वाली क्षेत्रज्ञा तथा षोडश वर्ष क्रमशः उनकी पूजा करनी चाहिए ॥९६ - १००॥
इस प्रकार प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा पर्यन्त वृद्धि क्रम के अनुसार उनकी पूजा करे । सभी महापर्व काल में , विशेष कर पवित्रारोपण काल में , श्रावण मास के श्रवण नक्षत्र में ( द्र० मन्त्रमहोदधि ) महा नवमी ( अश्विन शुक्ल नवमी ) को हे देवेश ! कुमारियों का पूजन करना चाहिए । उक्त अवस्था के बाद १६ वर्ष समाप्त हो जाने पर फिर उनकी युवती संज्ञा हो जाती है ॥१०१ - १०२॥
क्योंकि उस अवस्था में उनमें ( युवती ) भाव प्रकाशित होने लगता है । वह ( युवती ) भाव सबसे प्रबल होता है । अतः प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिए । क्योंकि रक्षित होने पर वे भाव प्रकाशित करने लगती है ॥१०३॥
वस्त्र , अलङ्कार तथा भोज्जनादि द्वारा उनकी महा पूजा करे । स्वल्प भाग्य वाला भी यदि कुमारी पूजन करे तो वह जयङ्गल प्राप्त करता है ॥१०४॥
अन्य लोगों के कथनानुसार भी कन्यापूजन का प्रयोजन महाफलदायक कहा गया है । दिव्या , वीर और पशुभाव में स्थित होकर विधिपूर्वक कन्या पूजन करना चाहिए । कन्या पूजन तीनों भावों में महासौख्य कारक होता है । दिव्यभाव में कन्या पूजन सत्कर्म और उसका परिणाम उत्तम कहा गया है ॥१०५ - १०६॥