अब हे शंभो ! पुनः आदर पूर्वक पशुभाव का स्मरण कीजिए । पशुभाव में रहने वाला नारायण के सदृश हो जाता है । अकस्मात् सिद्धि प्राप्त कर लेता है । अन्ततः वह हाथ में शंख चक्र गदा पद्म धारण कर गरुड़ पर सवार हो कर चतुर्भुज का स्वरूप प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम में चला जाता है ॥४९ - ५०॥
महाविद्या की से वह साधक महाधर्मस्वरूप हो जाता है । वस्तुः यह पशुभाव ही महाभाव है जो बाद में अन्य भावों को सिद्धि प्रदान करता है । अतः सर्वप्रथम पशुभाव को करे , इसके पश्चात् सभी भावों में उत्तमोत्तम महाभाव स्वरुप वीरभाव का आश्रय ग्रहण करे ॥५१ - ५२॥
इसके बाद फल की आकांक्षा करने वाला . मोक्ष चाहने वाला , समस्त प्राणियों का हित करने वाला पुरुष महान् फल देने वाला अत्यन्त सुन्दरता पूर्व दिव्यभाव का आश्रय लेवे । विद्या की आकांक्षा करने वाला , धन की आकांक्षा करने वाला तथा रत्न की आकांक्षा करने वाला साधक तीनों भाव करे । दिव्य भाव का साधन उत्तम से उत्तम है ॥५३ - ५४॥
भाव से ही वाद्य , धन , रत्न तथा अन्य महाफलों की प्राप्ति होती है । करोड़ों गोदान से , करोड़ों शालग्राम - शिला के दान से तथा वाराणसी में करोड़ लिङ्रों के पूजन से जो फल होता है , वह फल मनुष्य क्षणमात्र में भाव के आश्रय से प्राप्त कर लेता है - इसमें संशय नहीं ॥५५ - ५६॥
दिन के प्रारम्भ के दश दण्ड पशुभाव के लिए उपयुक्त हैं । इसके बाद मध्याहन के दश दण्ड वीरभाव के लिए कहे गये है । इसके बाद सांयाहन का दश दण्ड दिव्यभाव के लिए उपयुक्त है जो सब प्रकार का कल्याण देने वाला है , अथवा पशुभाव काल में ही इष्टादि देवों का पूजन करे ॥५७ - ५८॥
यदि मन्त्रज्ञ जन्मपर्यन्त पशुभाव काल में इष्ट देवता का पूजन करे तो उसे महासिद्धि प्राप्त हो जाती है । वह सब का गुरु बन जाता है तथा प्रतिदिन उसके ऐश्वर्य की वृद्धि होती रहती है । यदि साधक गुरु स्वभाव वाला हो जाय तो उसे मधुमती विद्या भी प्राप्त हो जाती है ॥५९ - ६०॥
यदि विवेक सम्पन्न व्यक्ति महावन में निवास करे अथवा अपने घर रह कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे , अथवा किसी सिद्धि पीठ में ब्राह्मण कुल में जन्म ले , अथवा महोषोढ़ाश्रम में पशुभाव में स्थित रहे तो उसे सिद्ध विद्या प्राप्त हो जाती है । अथवा यदि कुल भाग में स्थित मन्त्रज्ञ साधक पूर्वापर में रहने वाले महा कौलिक देवता ( कुण्डलिनी शक्ति ) का आश्रय ले तो भी निश्चित रुप से उसे सिद्धि का लाभ हो जाता है । अतः यदि महाविद्या की प्रसन्नता रहे तभी साधक को वीरभाव प्राप्त होता है ॥६० - ६३॥
वीरभाव जव परिपूर्ण हो जाता है तब साधक वीरभाव युक्त हो जाता है । जो उत्तम पुरुष , वीरभाव और दिव्यभाव प्राप्त कर लेते
है । वे वाञ्छा कल्पलता के पति हो जाते हैं , इसमें संशय नहीं । इन भावों को प्राप्त करने वाला , आश्रमी , ध्याननिष्ठ और मन्त्र - तन्त्र विशारद बन कर किसी महापीठ में निवास करता है । अन्ततः वह सदाज्ञानी और यति बन जाता है । इन भावों का अन्य फल हम क्या कहें ? यदि उक्त भाव की प्राप्ति हो जावे तो वह मनुष्य मुझे भी जान लेता है , उसे वाक्लिद्धि प्राप्त हो जाती है उसकी वाणी दूसरों के ह्रदय तक पहुँचने में समर्थ हो जाती है ॥६४ - ६७॥
लक्ष्मी अपने पति नारायण को छोड़कर उसके घर में निवास करती हैं । उसके शरीर में ममता से पूर्ण मेरी दृष्टि रहती है , इसमें संशय नहीं है । वह अवश्य ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है - यह सत्य है , यह सत्य है और यह ध्रुव सत्य है ।
महाभैरव ने कहा - हे महादेवि ! आपने यहाँ तक ( पशु एवं वीरभाव को ) सूचित किया अब अनुग्रह पूर्वक आगे मुझे बताइए ॥६८ - ६९॥
ऐसे तो सभी तन्त्रों में एवं विद्याओं में ( पशु आदि ) भाव के सङ्केत प्राप्त होते हैं आगे फिर भी तन्त्रों में विशेष रूप से भाव को सिद्धिप्रद कहा गया है । अब हे विद्ये ! भावविधा की विधि और भाव साधन को विस्तारपूर्वक कहिए - अनान्दभैरवी ने कहा - हे देव ! दिव्य , वीर और पशु के क्रम से ३ प्रकार के भाव कहे गये हैं । इनके गुरु तथा इनके मन्त्र एवं देवता भी उसी प्रकार तीन - तीन हैं । किन्तु हे महादेव ! दिव्यभाव सभी प्रकार के श्रेय की सिद्धि करता है ॥६९ - ७२॥