जयदस्तो --- जन्म ( एवं मरण ) से उद्धार करने वाली युवती , वेदादि की बीज एवं मा स्वरूपा , सद् वाक्य का संचालन करने वाली भगवती का मैं कब अपने चित्त में ध्यान करूँगा ? प्रिय करने वाली भगवती मेरी रक्षा करें , विपत्तियों का संहार करने वाली , सबको धारण करने वाली , स्वयं सबका पालन करने वाली , आदिदेव की वनिता हे देवि ! मुझ दीनातिदीन पशु की रक्षा कीजिए ॥२९॥
जिनके शरीर की कान्ति लाल वर्ण की है , जो अमृत की चन्द्रिका से लिपि हुई सी हैं । सर्पाकार आकृति वाली , निद्रित हुई , जाग्रत् अवस्था में कूर्म रूप धारण करने वाली , हे भगवती ! आप मेरी ओर अपनी कृपा दृष्ट से देखिए । मांस की उत्कृष्ट गन्ध त था अन्य कुत्सित गन्धों से जड़ीभूत मेरे शरीर को , थोड़े अथवा अधिक अपने निर्मल करोड़ों चन्द्र किरणों से तथा वेदादि कार्य से नित्य शरीर को युक्त कीजिए ॥३०॥
मैं सिद्धि चाहता हूँ , अपने दोषों का मुझे ज्ञान है , मात्र स्थल ( लौकिकता ) में मेरी गति है , कुण्डली के मार्ग का मुझे ज्ञान नहीं है , माया वश कुमार्ग में निरत हूँ , श्री विद्या मुझे जीवित कर रही हैं जो प्रभात समय में अथवा मध्याहन के समय इस प्रकार नित्य कुल कुण्डलिनी का जप तथा उनके चरणाम्भोज का भजन करता है वह सिद्ध हो जाता है ॥३१॥
वाञ्छा फल प्रदान करने वाले , वायु एवं आकाश रूप से अत्यन्त निर्मल , चतुर्दल में निवास करने वाली , नित्य , सर्वदा सबके देह में चेष्टारूप से निवास करने वाली , साङ्केतित भावित ( श्री ) विद्या , कुण्डल मानिनी स्वजननी जो माया क्रिया को सिद्धकुलों में उत्पन्न होने वाली , जिन देवी का ध्यान वे योगी गण उन उन कल्याणकारी स्तोत्रों से प्रणति पूर्वक करते है वे मेरे शरीर को नित्य करें ॥३२॥
विधाता एवं शङ्कर को भी मोह में डालने वाली , त्रिभुवन रूपीच्छाया पट पर उत्पन्न होने वाली , संसारादि के महासुख का विनाश करने वाली , कुण्डलिनी स्थान में महायोगिनी रुप से स्थित रहने वाली , सारे ग्रन्थियों का भेदन करने वाली , सर्पिणी स्वरूपा , सूक्ष्म से भी सूक्ष्म , पराब्रह्मज्ञान में विनोद करने वाली कुकुटी और व्याधात उत्पन्न करने वाली भगवती का मैं ध्यान करता हूँ ॥३३॥
जो अपने प्रियतम स्वयंभू लिङ्ग को तीन बार गोले आकार में कसकर घेरी हुई हैं , और काम के वशीभूत होकर चपल हो रही हैं , जो बाला , अबला और निष्कला हैं , जो देवी वेद वदना , संभावनी और तापिनी हैं , अपने भक्तों के शिर पर निवास करने वाली हैं , स्वयंभू की बनिता एवं क्रिया स्वरूपा उन भगवती का मैं अपने चित्त में ध्यान करता हूँ ॥३४॥
हे सूक्ष्मपथ में गमन करने वाली ! करोड़ों के समान ध्वनि युक्त आपकी वाणी करोड़ों मृदङ्गनाद के समान मद ( हर्ष ) उत्पन्न करने वाली हैं , जो सब की प्राणेश्वरी है रस , राश एवं मूल वाले कमल के समान प्रफूल्लित जिनका मुख हैं , आषाढ़ में उत्पन्न हुये नियुत मेघ समूह के समान काले मुख वाली , सर्वकाल में स्थित रहने वाली हैं , वह सूक्ष्म पथ वाली माता तथा योगियों में शङ्कर हमारी रक्षा करें ॥३५॥
हे माता ! हे श्री कुलकुण्डली प्रियकरे ! हे काली ! हे कुलोददीपने ! हे भद्रवनिते ! एक मात्र आनन्द में विलासशीला , सैकड़ों चन्द्रमा के समान आनन्दपूर्ण मुख वाली , जगत की कारणभूता , आपका आश्रय ले कर भजन करने वाले मनुष्य बैकुण्ठ और कैलास को जाते है , मैं आपके स्थान को प्रणाम करता हूँ । मुझ पशु का उद्धार कीजिए ॥३६॥
फलश्रूति --- कुण्डली शक्ति के मार्ग में होने वाले महाफल युक्त इस स्तोत्राष्टक का जो प्रातः काल में उठकर पाठ करता है वह निश्चित रूप से योगी होता है । इसके एक क्षण के पाठ से मनुष्य निश्चय ही कवि शिरोमणि हो जाता है और जो श्री कुण्डल युक्त महान् योगी इसका पाठ करता करता है वह निश्चित रूप से ब्रह्मलीन हो जाता है ॥३७ - ३८॥
हे नाथ ! इस प्रकार कुण्डली को प्रिय लगने वाले स्तोत्र को मैने आपसे कहा , इस स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से बृहस्पति देवगुरु बन गये । इस स्तोत्र के प्रसाद से सभी देवता सिद्धि से युक्त हो गये । किं बहुना इसके प्रभाव से ही ब्रह्मदेव दो परार्द्ध तक जीने वाले तथा सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर बन गये ॥३९ - ४०॥
इस स्तोत्र के प्रभावा से भगवती पति सदाशिव तथा त्वष्टा भी हमारे सन्निधान में निवास करते हैं । स्थूल और सूक्ष्म स्वरुप से निवास करने वाली मुझे आप परमा शक्ति समझिए ॥४१॥
मुझे सब में प्रकाश ( ज्ञान ) करने वाली , विन्ध्य पर्वत पर निवास करने वाली , हिमालय पुत्री , सिद्ध एवं सिद्धमन्त्र स्वरुपा , वेदान्तशक्ति , तन्त्रनिवासिनी , कुलतन्त्रर्थगामिनी , रुद्रयामल - मध्यस्था , स्थिति तथा स्थापक रुप से रहने वाली , पञ्च्मुद्रा स्वरुपा , शक्तियामल की माला धारण करने वाली , रत्नमाला धारण करने वाली , अबला स्वरुपा , चन्द्रमा और सूर्य को भी प्रकाशिल करने वाली , सम्पूर्ण प्राणियों में महाबुद्धि प्रदान करने वाली , दानव हन्त्री , स्थिति - उत्पत्ति एवे प्रलय करने वाली , करुणा के सागर में अवस्थित , महाविष्णु के शरीर में रहकर महामोह स्वरुप से निवास करने वाली , छत्र चामर एवं रत्न से विभूषित , त्रिशूलधारिणी , परस्वरुपा , ज्ञानदात्री , वृद्धिदात्री , ज्ञानरत्न , की माला , कला युक्त पर प्रदान करने वाली , सम्पूर्ण तेजः स्वरुप की आभा से युक्त , अनन्त कोटि विग्रह वाली दरिद्रो को धन देने वाली , नारायण की मनोरमा महालक्ष्मी के रुप में , हे योगनायक पण्डित ! हे शम्भो ! आप सदा भावना करें ॥४२ - ४८॥