अष्टमस्कन्धपरिच्छेदः - अष्टाविंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


गरलं तरलानलं पुरस्ताज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।

अमरस्तुतिवादमोदानिघ्नो गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥

विमस्थत्सु सुरासुरेषु जाता सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।

हयरत्नमभूदथेभरत्नं द्युतरुश्र्चाप्सरसः सुरेषु तानि ॥२॥

जगदीश भवत्परा तदानीं कमनीयां कमला बभूव देवी ।

अमलामवलोक्य यां विलोलः सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोकः ॥३॥

त्वयि दत्तहृदे तदैव देव्यै त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारित् ।

सकलोपहृताभिषेचनीयैर्ऋषयस्तां श्रुतिर्गीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥

अभिषेकजलानुपातिमुग्धत्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।

मणिकुण्डलपीतचेलहारप्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥

वरणस्रजमात्तभृङ्गनादं दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।

पदशिञ्चितमञ्चुनूपुरा त्वां कलितव्रीडविलासमाससाद ॥६॥

गिरिशद्रुहिणादिसर्वदेवान् गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।

अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये निहिता त्वय्यनयापि दिव्यमाला ॥७॥

उरसा तरसा ममानिथैनां भुवनानां जननीमन्यभावाम् ।

त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्रीपरिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्र्वम् ॥८॥

अतिमोहनविभ्रमा तदानीं मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।

तमसः पदवीमदास्त्वमनामतिसम्माननया महासुरेभ्यः ॥९॥

तरुणाम्बुदसुन्दरस्तदा त्वं ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशेः ।

अमृतं कलशे वहन् कराभ्यामखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥

॥ इति अमृतकथने कालकूटोत्पत्तिवर्णनं लक्ष्मीस्वयंवरवर्णनम् अमृतोत्पत्तिवर्णनं च अष्टाविंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

तदनन्तर कालकूट नामका विष , जो तरल अनल ही था , सबके सामने समुद्रसे बाहर निकला । तब देवोंके स्तुतिवादकी प्रसन्नतासे वशीभूत हुए शिवजी आपका प्रिय करनेके लिये उसे पी गये ॥१॥

त्रिधामन् ! देवासुरोंके मथते रहनेपर समुद्रसे सुरभि प्रदुर्भूत हुई , उसे आपने ऋषियोंको दे डाला । तत्पश्र्चात् अश्र्वरत्न (उच्चै ःश्रवा निकला , जिसे बलिने ले लिया । ) फिर , गजरत्न ऐरावत , कल्पतरु और अप्सराएँ प्रकट हुई , उन्हें आपने देवताओंको दे दिया ॥२॥

जगदीश ! उसी समय जिसके आप ही परम पुरुष हैं , ऐसी शोभामूर्ति लक्ष्मीदेवी निकलीं । उन अमला कमलोको देखकर सारा -का -सारा लोक चञ्चल हो उठा और उन्हें पानेकी इच्छा करने लगा ॥३॥

परंतु जब यह स्पष्ट हो गया कि लक्ष्मीने आपको ही अपना हृदय समर्पित कर दिया है , तब तुरंत ही देवराज इन्द्रने उन्हें बैठनेके लिये मणिपीठिका आगे बढ़ा दी और सबके द्वारा लायी हुई अभिषेक सामग्रियोंसे ऋृषियोने मन्त्रोच्चारणपूर्वक उनका अभिषेक किया ॥४॥

अभिषेक -जलके साथ -ही -साथ पड़ते हुए आपके मनोहर कटाक्षोंसे जिनकी अङ्गवल्ली विभूषित हो रही थी , उन महालक्ष्मीको देवताओंने मणिनिर्मित कुण्डल , पीताम्बर और हार आदि आभूषणोंसे अलंकृत किया ॥५॥

जो कुचकलशोंके भारसे मन्दगतिसे चल रही थी , चलते समय जिनके पैरोंसे सुन्दर पायजेबकी झनकार हो रही थी , वे महालक्ष्मी भ्रमरोंके गुंजावरसे व्याप्त वरणमाला हाथमें लिये लाजभरे लीलाविलासके साथ आपके निकट आयीं ॥६॥

यद्यपि शंकर -ब्रह्मा आदि समस्त देवता सद्गुणशाली हैं , तथापि वे कुछ -कुछ दोषलेसे युक्त अवश्य हैं ——यों विचारकर सदैव सर्व रमणीय आपके गलेमें लक्ष्मीने वह दिव्यमाला डाल दी ॥७॥

तब आपने शीध्र ही उन अनन्यभावा जगज्जननी लक्ष्मीको अपने वक्षःस्थलपर धारण कर लिया । आपके वक्षःस्थलपर सुशोभित होती हुई लक्ष्मीके कृपा -कटाक्षकी शोभा -वृष्टिसे जगत् परिपुष्ट ——सकल सम्पत्तियोंसे समृद्ध हो गया ॥८॥

उसी समय परम मनोहर विभ्रम -विलासशालिनी वारुणी -देवी सबको उन्मत्त बनाती हुई निकलीं । आपने अज्ञानकी हेतुभूता उन वारुणीको अत्यन्त सम्मानके साथ महासुरोंको दे दिया ॥९॥

तत्पश्र्चात् आप धन्वन्तरि -रूपमें समुद्रसे प्रकट हुए । आपका स्वरूप सजल जलधरके सदृश परम मनोहर था और आप अपने दोनों हाथोंमें अमृत -कलश लिये हुए थे । मारुतालयेश ! मेरी सारी पीडाओंको हर लीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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