अध्याय दूसरा - श्लोक १२१ से १४०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


तीन शालाका घर बनाना तो पूर्वकी व उत्तरकी शालासे रहित घर बनाना और शालका विभागभी इसी पूर्वोक्त विधिसे करना पूर्बमें ऊपर तीन भागोंको छोडकर और पश्चिममें दो भागोंको छोडकर ॥१२१॥

जो मध्य भाग होता है वह नाभि जाननी यह पराशर ऋषिने कहा है । उसमें शालाको बनवावे । इसी प्रकार पूर्व आदि चारों दिशाओंमें एक आदि ध्रुव वाममार्गसे होते है ॥१२२॥

विस्तार और दैर्घ्य अर्थात चौडाई और लंबाईके एक एक भागको मिलाकर वायव्य आदि कोणोंमें विस्तार और दैघ्र्यता है, वह ध्रुव उत्तर शालासे हीन घरमें न देना ॥१२३॥

एक शालावाले गृहसे लेकर चार शालापर्यंन्त गृह बनवाने इसी प्रकारसे बनवाने योग्य शालासे युक्त गृहमें ॥१२४॥

पहिले आचार्य आय व्यय आदिकी जो शुध्दि उसका विचार नहीं करते अर्थात एकशालायुक्त गृहमें आय व्यय आदिका विचार करना और दो शालासे युक्तमें नही करना, क्योंकि निर्गम और आलिंद आदि जो गृहोंकी चारों दिशाओंमें है वे गृहोंके चारोदिशाओंमें जो होते है वे सब दो शाला आदिके घरमें नही मानने और न वास्तुशालाआदिका विचार करना ॥१२५॥

ब्राम्हणोंका गृह चार शालाओंका, क्षत्रियोंका तीन शालाओंका वैश्योंको दो शालाकोंका और शूद्रोंका एक शालाका होता है ॥१२६॥

और सब वर्णोका एक एक शालाका घर श्रेष्ठ कहा है १।२।३।४ शालाके ॥१२७॥

गृहमें जिस प्रकार अलिंद आदि बनवावे उसी प्रकारकी शाला श्रेष्ठ होती है और केवल शाला आदि युक्त गृहको और कही ऊँच और कही नीचे गृहको न बनवावे ॥१२८॥

तिससे समान शालाको और समान ( बराबर ) परकोटेको बनवावे. कर्क वृश्चिक मीन ये उत्तरके द्वारमें स्थित होते है ॥१२९॥

मेष सिंह धन ये पूर्बके द्बारमें स्थित होत है वृष मकर कन्या ये दक्षिणके द्बारमें स्थित होते है ॥१३०॥

तुला कुंभ मिथुन ये पश्चिमके द्बारमें स्थित होते है और इसी क्रमसे ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य शूद्रोंका वास होता है ॥१३१॥

जिस दिशाकी राशि कही है उसी दिशामें शाला श्रेष्ठ होती है । अथवा पूर्बभागमें ब्राम्हण, उत्तरमें क्षत्रिय ॥१३२॥

दक्षिणमें वैश्य और पश्चिममें शूद्र और अग्निकोण आदिके क्रमसे अन्त्यज आदि वर्णसंकरोंका वास होता है ॥१३३॥

जातिसे भ्रष्ट और चौर य विदिशाओंमें होते है, ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ये पूर्व आदि दिशाओंमें कहे हैं ॥१३४॥

हाथोंके विस्तारसे १०८ हाथका राजाओंका मंदिर होता है वही प्रधान बनवाना अन्य आठों दिशाओंक मंदिर इस क्रमसे बनवाने ॥१३५॥

इनके विस्तारके पादसे युक्त लम्बाईकी कल्पना करै इस प्रकार राजाओंके गृह पांचही शुभदायी होते है ॥१३६॥

और चौसष्ठ ६४ हाथके घरमें छठे २ भागसे हीन वे पांच गृह होते है उनका विस्तार और लम्बाई छ: भागसे युक्त होती है ॥१३७॥

और चौसष्ठ हाथस न्यून मंत्रियोंके पांच घर होते हैं और छठे ६ भागसे युक्त अथवा विस्तारसे आधी उनकी लम्बाई होती है ॥१३८॥

राजाकी रानियोंके भी पांचही गृह श्रेष्ठ लिख है और वे ८० अस्सी हाथक विस्तारसे छ: छ: हाथ लम्बाईके होते है ॥१३९॥

रानियोंके घरकी दीर्घतासे ३० हाथ अधिक युवराजोंके घर होते है और युवराजके घरसे ५० हाथ अधिक राजाके भाइयोंके घर होते है ॥१४०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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