गुरुके नीचे लघुकी स्थापना करै और उसके आगे ऊध्वके समान स्थापना करै, गुरुओंसे पश्चिम और पूर्वमें सब लघुओंकी अवधिकी विधि होती है ॥१०१॥
लघुस्थानमें अलिंद ( देहली ) को रक्खे और गुरुस्थानमें न रक्खे, गृहके द्बारसे प्रदक्षिणा क्रमसे जो अलिंद है उनके सोलह १६ प्रकार होते है ॥१०२॥
पहिला गृह ध्रुवसंज्ञक धन धान्यका और सुखका दाता होता है. दूसरा धान्यनामक गृह मनुष्योंको धान्य देता है और तीसरा जय विजयको देता है ॥१०३॥
और चौथा नन्द स्त्रियोंकी हानिको निश्चयसे देता है और खर सम्पत्तिका नाश करता है कान्त गृह पुत्र पौत्रोंको देता है मनोरम गृह लक्ष्मीको देता है ॥१०४॥
सुवक्र गृह निश्चयसे भोग देता है, देर्मुख गृह विमुखताको देता है, क्रुरगृह सब दु:खोंको देता है, विपुल गृह सब शत्रुओंकी भीतिको देता है ॥१०५॥
धनद गृह धनको देता है, क्षय सबके क्षयको देता है, आक्रंद शोकको पैदा करत है, विपुल श्री और यशको देता है ॥१०६॥
विपुल नामके सदृश फ़लको देता है और धनदगृहको विजय कहते है ॥१०७॥
प्रद्क्षिणक्रमसे सप्त मुखसे लघुस्थानमें रखेहुए अलिंदको जाने गृहके पूर्व आदि दिशाओंमें रखेहुए अलिन्दोंमें क्रमसे सोलह भेद होते है ॥१०८॥
जिसमे शुभ अलिंद न हो वह गृह कापाल नामका होता है, विस्तारसे दूना गृह गृह और स्वामी दोनोंको नष्ट करता है ॥१०९॥
उस गृहको निरर्थक कहर हैं और उसमें राजासे भय होता है और कोई बुध्दिमान मनुष्य अलिन्दसे रहित द्वारको कहते है ॥११०॥
कोई अलिंद और शालाको और कोई अलिंदकको कहत है, घरसे बाहिरकी जो दिशा है और जो गृहसे अत्यन्त निकसी हुई ॥१११॥
काष्ठा है वे काष्ठका जो घर वह अलिंद्संज्ञक कहलाता हैं, गृहके बाहिरकी जो दिशा और गृहके भीतरकी जो दिशा है उनकी ॥११२॥
कोष्ठरुपसे बनाया जो तिरछा घर उसकोअलिंद कहते है. स्तंभसे हीन घरस बाहिरको निकसा हुआ काष्ठका होता है ॥११३॥
गृहके मध्यसे ऊर्ध्वभागमें गया हुआ जो घर है कोई उसे अलिंन्द कहते है. जिस भागमें अलिन्द हो उसीमेद्बारका मार्ग श्रेष्ठ कहा है ॥११४॥
अलिंन्द और द्वारसे हीन गृह कोटीके समान कहा है जहां अलिन्द हो वहीं शाला और द्बार श्रेष्ठ कहा है ॥११५॥
शाला अलिन्द द्बार इनसे हीन गृहको बुध्दिमान मनुष्य न बनवावे, जो वास्तुका विस्तारहो उतनीही ऊँचाई शुभ कही है ॥११६॥
विस्तारसे दूना शुकशालनामक गृह बनवाना, दश और चार शालाके गृहकी ऊँचाई व्यासके समान होती है ॥११७॥
विस्तारसे दूनी लंबाई एकशाला ( एकमजला ) गृहकी होती है जो गॄह विस्तीर्ण होता है वह ऊँचाईमें एक शालाका होता है ॥११८॥
द्विशालमें दूना और त्रिशालमें त्रिगुणा कहा है और चतु:शालमें पंचगुणा जानना उससे ऊपर गृहको न बनवावे ॥११९॥
जिसकी शिखा गृहके त्रिभागकी हो वह उत्तमसंज्ञक होता है यदि एकशाला गृहकी आजाय तब आठ और सताईसकी संशुध्दि ( भाग ) से सौम्यवर्जित अर्थात उत्तरशालासे हीन करना और यदि दोशालाओंसे युक्त घर बनाना होय तो दक्षिण और पश्चिममें शाला बनानी ॥१२०॥