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अत्रि n. एक सक्तद्रष्टा । ऋग्वेद में अत्रि की एक कथा का बार बार उल्लेख आता है । इसे अत्यधिक ताप हो रहा था तब अश्विनों ने इसे शांत किया [ऋ.१.११२.७] । इसे कुछ कारणवश कारागृहवास करना पडा था । इसके कारागृहवास का कारण था, जनता का पक्ष लेकर राजा से लडाई । यह लोकशासित राज्य के लिये [ऋ.१.११७.३] । यह अग्निंकुड में गिरा या अग्नी में झुलसा । उस अग्नी के दाह से अश्विनों ने इसे मुक्त किया [ऋ.१.११८.७,११९.६] । बहुधा कारागृह की यातनाओं की कल्पना व्यक्त करने के लिये ऐसा वर्णन किया होता [ऋ.५.७.८.४, १०.३९.९] । पांचवें मंडल में अत्रिगोत्र के काफी सूक्तकारो का उल्लेख है (यजत तथा रातहव्य देखिये) । अत्रि ने चतूराज याग शुरु किया [तै.सं.७.१.८] । इसे ग्रहण के संबंध में प्रथम ज्ञान हुआ । इसी लिये ग्रहण लगने पर अत्रि सूर्य को वापस लाता है, ऐसा माना जाता था [ऋ.५.४०. ५-९] ;[ब्रह्मांड. ३.८.७७] ;[ह. वं. १.३१. १३-१४] ; प्रभाकर आत्रेय देखिये । स्वायंभुव मन्वतर में प्रजोत्पादनार्थ ब्रह्मदेव द्वारा निर्मित दस मानस पुत्रों में सें यह एक था [वायु.१.९] । यह ब्रह्मदेव के नेत्र से या मस्तक से उत्पन्न हुआ था [भा.३.१२.२४] ;[मत्स्य.३.६-८] । यह स्वायंभुव मन्वन्तर में ब्रह्मा के कान से उत्पन्न हुआ [वायु.९.१०१] ;[ब्रह्मांड. २.९२३] ; ब्रह्मन् देखिये । स्वायंभुव मनु का यह जामात । दक्ष ने सती एवं शंकर को न वुलाने के कारण सती ने स्वयं को दग्ध कर लिया । इस क्रोध के कारण शंकर ने सब को दग्ध कर दिया । उसमें इसकी मृत्यु हो गई । दक्ष की कन्या अनसूया इसकी पत्नी । अत्रि को अनसूया से पांच पुत्र हुए । १ श्रुति शंखपद की माता तहा कदंम पौलह प्रजापती की पत्नी), २. सत्यनेत्र, ३. हव्य, ४. आपोमूर्ति शनैश्वर,५.सोम । इस मन्वन्तर सें हजारो आत्रेय उत्पन्न हुए [ब्रह्मांड. २.११.२५] । शंकर के वर से ही यह पुनः वैवस्वत मन्वन्तर में उत्पन्न हुआ । यह एक प्रजापति था [म.स.११.१५] ;[शा. २०१] ;[मत्स्य.१७१.२६-२७] । कर्दम प्रजापति के कन्याओं में से, अनसूया इसकी पत्नी थी [भा.३.२४.२२] । इसे अनसूया से दत्त, दुर्वास तथा सोम नामक तीन पुत्र हुए [ब्रह्मांड.३.८.८२,६५] ;[मार्क.१६] ;[अग्नि. २०.१२] ;[भा.४.१.१५,३३] । वायु पुराण में अग्नि को दत्त दुर्वास ये दो पुत्र तथा ब्रह्मवादिनी कन्या उत्पन्न हुए ऐसा उल्लेख है [वायु. ७०-७५-७६] । अत्रि को सोम तथा अर्यमा नामक दो पुत्र थे ऐसा उल्लेख महाभारत में दिया है [शा.२०१] । पुष्कल महर्षि इसका पुत्र था ऐसा भी उल्लेख प्राप्य है [म.आ.६०.६] । इनके नेत्र से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ [भा.९.१४.२-३] । स्वायंभुव मन्वन्तर में इसने उत्तानपाद को दत्तक लिया था [ब्रह्मांड. २.३६.८४-९०] ;[ह. वं. १.२] । इसका गौतम ऋषि के साथ ब्राह्मणमहात्म्य पर संवाद हुआ था [म.व.१८३] । वायु का हैहय अर्जुन के साथ जब युद्ध चल रहा था । तब राहू ने चन्द्र तथा सूर्य का पराभव कर के सर्वत्र अंधकार कर दिया । उस समय देवताओं की प्रार्थना मान्य कर अत्रि स्वयं चन्द्र वना तथा अंधकार का नाश किया [म. अनु.२६१८] । यह एक सूक्तकार था [वायु.५९.१०४] ;[ब्रह्म.२.३२] ;[मत्स्य.१४५] ;[वृ.उ.२.१.१] । अत्रि को पैतामहर्षि कहा जाता है [मत्स्य. १७१.२८] । यह शिवावतार गौतम का शिष्य है । ये स्वायंभुव तथा वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियो में से एक था । उन्नीसवें द्वापर में यह व्यास था ।
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अत्रि n. आनंदाश्रम के स्मृति समुच्चय में अत्रिसंहिता तथा अत्रिस्मृति नामक दो ग्रंथ है । अत्रिसंहिता में नौ अध्याय तथा चारसौ श्लोक हैम तथा अनेक प्रायश्चित्त बताये हैं । वहॉं योग, ज प, कर्मविपाक, द्रव्यशुद्धि तथा प्रायश्चित्त का विचार किया गया है । अत्रिस्मृति में नौ अध्याय हो कर प्राणायाम, जपप्रशंसा तथा प्रायश्चित्त बताये हैं । मनु ने गौरव के साथ इसका मत लिया है [मनु.३.१६] । दत्तकमीमांसा में इसके मत का उल्लेख है । इसके लध्वत्रिस्मृति तथा बृहदात्रेयस्मृति नामक दो ग्रंथ भी उपलब्ध हैं । इसने वास्तुशास्त्र पर भी एक ग्रंथ रचा था [मत्स्य. २५२.१-४] ।
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अत्रि n. अर्धपत्य, उद्दालकि, करजिव्ह, कर्णजिव्ह, कर्णिरथ, कर्दमायन शाखेय (ग), गोणीपति, गोणायनि, गोपन (ग), गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण,छंदोगेय, जलद, तर्कबिंदु, तैलप, भदगपाद, लैद्राणि, वामरथ्य, शाकलायनि, शारायण, शौण, शौक्रतव (शाक्रतव, शाक्रितव), सवैलेय (सचैलेय), सौनकर्णि (शौणव-कर्णिरथ) ।, सौपुष्पि तथा हरप्रीति (रसद्वीचि) ये गोत्रकार अत्रि, आर्चनानश (रिवराताम्) तथा श्यावाश्व इन तीन प्रवरों के हैं । ऊर्णनाभि, गविष्ठिर, दाक्षि, पर्णवि, बलि, वीजवापि, भलंदन, मौंजकेश, शिरीष तथा शिलर्दनि, ये गोत्रकार अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि इन तीन प्रवरो के हैं । कालेय(ग),धात्रेय(ग), मैत्रेय (ग) वामरथ्य (त) तथा सवालेय (ग) ये गोत्रकार अत्रि, पौत्रि तथा वामरथ्य, इन तीन प्रवरों के है [मत्स्य.१९७.१-५] । अत्रिपुत्र सोम के वंश मे विश्वामित्र हुआ [मत्स्य.१९८] । अत्रि का वंश अनेक स्थानों पर आया है [ब्रह्मांड. ३.८.७४-८७] ;[वायु.७०. ६७-७८] ;[लिंग.१.६३] । अन्यत्र भी विभागशः आया है [ब्रह्म.९.१] ;[ह. वं. १.३१.१२-१७] ; प्रभाकर तथा स्वत्स्यात्रेय देखिये ।
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अत्रि [atri] a. a. [properly अ, [Uṇ.4.68,] अदेस्त्रिनिश्च, अद्-त्रिन्] Devourer; अत्रिमनु स्वराज्यमग्निभ् [Rv.2.8.5.] -त्रिः N. of a celebrated sage and author of many Vedic hymns. [He appears in the Vedas in hymns addressed to Agni, Indra, the Aśvins and the Viśvedevas. In the Svāyambhuva Manvantara, he appears as one of the ten Prajāpatis or mind-born sons of Brahmā, being born from his eye. These sons having died by the curse of Śiva, Brahmā performed a sacrifice, at the beginning of the present Vaivasvata Manvantara, and Atri was born from the flames of Agni. Anasūyā was his wife in both lives. In the first, she bore him three sons, Datta, Durvāsas and Soma; in the second, she had two additional children, a son by name Aryaman and a daughter called Amalā. In the Rāmāyaṇa an account is given of the visit paid by Rāma and Sītā to Atri and Anasūyā in their hermitage, when they both received them most kindly. (See Anasūyā.) As a Riṣi or sage he is one of the seven sages who were all sons of Brahmā, and represents in Astronomy one of the stars of the Great Bear situated in the north. He is also the author of a code of laws known as अत्रिस्मृति or अत्रिसंहिता. In the Purāṇas he is said to have produced the moon from his eye, while he was practising austere penance, the moon being in consequence called अत्रिज,
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