महावीर वर्धमान n. जैन धर्म का अंतिम एवं चोवीसवाँ तीर्थंकर, जो उस धर्म का सर्वश्रेष्ठ संवर्धक माना जाता है । अपने से २५० साल पहले उतपन्न हुए पार्श्वनाथ नामक तततवज्ञ के धर्मविषयक ततवज्ञान का परिवर्धन कर, महावीर ने अपने धर्मविषयक ततवज्ञान का निर्माण किया । इसीसे आगेचल कर जैनधर्मियों के प्रातः स्मरणीय माने गये तेइस तीर्थंकरों की कल्पना का विकास हुआ, जिसमें पार्श्वनाथ एवं वर्धमान क्रमशः तेईसवाँ एवं चोवीसवाँ तीर्थंकर माने गये हैं । जैन साहितय में हर एक तीर्थंकर का विशिष्ट शरिरिक चिन्ह (लांछन) वर्णन किया गया है, जहाँ वर्धमान का लांछन ‘ सिंह ’ बताया गया है । इसका एक और भी मंगलचिन्ह प्रचलित है, जो ‘ वर्धमानक्य ’ नाम से सुविख्यात है । विश्व के धार्मिक इतिहास में महावीर एक ऐसी असामान्य विभूति है, जिसने राजाश्रय अथवा किसी भी प्रमुख आधिभौतिक शक्ति का आश्रय न ले कर, केवल अपनी श्रद्धा के बल से जैनधर्म की पुनः - स्थापना की । अपनी सारा आयुष्य एक सामान्य मनुष्य के समान व्यतीत कर, इसने तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित आतमकल्याण का मार्ग शुद्धतम एवं श्रेष्ठतम रुप में अंगीकृत किया, एवं अपने सारे आयुष्य में उसी मार्ग का प्रतिपादन किया । अपने इसी द्रष्टेपन के कारण यह जैन धर्म के पच्चीससौ वर्षों के इतिहास में उस धर्म की प्रेरक शक्ति बन कर रह गया । इस धर्म के विद्यमान व्यापक स्वरुप एवं तततवज्ञान का सारा श्रेय इसीको दिया जाता है । इसी कारण इसे ‘ अर्हत ’ (पूज्य,) ‘ जिन ’ (जेता,) ‘ निर्ग्रंथ ’ (बंधनरहित) एवं ‘ महावीर ’ (परम पराक्रमी पुरुष) कहा गया है । जैन वाड्गमय में इसे ‘ वीर ’ , ‘ अतिवीर, ’ ‘ सन्मतिवीर ’ आदि उपाधियाँ भी प्रदान की गयी हैं । इसी ‘ जिन ’ के अनुयायी होने के कारण, इस धर्म के अनुयायी आगे चल कर ‘ जैन ’ नाम से सुविख्यात हुए ।
महावीर वर्धमान n. गौतम बुद्ध के ज्येष्ठ समवर्ती तततवज्ञ के नाते महावीर का निर्देश ‘ दीघनिकाय ’ आदि बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त है । मगध देश के अजातशतरु राजा से मिलने आये छः श्रेष्ठ धार्मिक तततवज्ञों में महावीर एक था, जिसका निर्देश बौद्ध ग्रंथों में ‘ निगंठ नातपुतत ’ नाम से किया गया है । अजातशतरु राजा से मिलने आये अन्य पाँच धार्मिक तततवज्ञों के नाम निम्नप्रकार थें: - १. मक्खली गोसार, जो सर्वप्रथम महावीर का ही शिष्य था, किन्तु उसने आगे चलकर आजीवक नामक स्वतंतर सांप्रदाय की स्थापना की; २. पूरण कस्सप, जो ‘ आक्रियावाद ’ नामक ततवज्ञान का जनक था; ३ अजित केशि कंबलिन्, जो ‘ उच्छेदवाद ’ नामक तततवज्ञान का जनक माना जाता है, ४. पकुध काच्यायन, जो ‘ अशाश्वत ज्ञान ’ नामक तततवज्ञान का जनक माना जाता है, ५. संजय बेलट्टीपुतत, जिसका तततवज्ञान ‘ विक्षेपवाद ’ नाम से प्रसिद्ध है ।
महावीर वर्धमान n. वृजि नामक संघराज्य में वैशालि नगरी के समीप स्थित कुण्डग्राम में इसका जन्म हुआ । ५९९ ई. पू. इसका जन्मवर्ष माना जाता है । यह ज्ञातृक वंश में उतपन्न हुआ था, एवं इसके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जों ‘ वृजिगण ’ में से एक छोटा राजा था । इसकी माता का नाम तरिशला, एवं जन्मनाम वर्धमान था । आधुनिक कालीन बिहार राज्य में मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ ग्राम ही प्राचीन कुण्डग्राम माना जाता है । इसकी माता तरिशला वैशालि के लिच्छवी राजा चेटक की बहन थी । इसी कारण पिता की ओर से इसे ‘ ज्ञातृकपुतर ’ , ‘ नातपुतत ’ , ‘ काश्यप ’ आदि पैतृक नाम, एवं माता की ओर से इसे ‘ लिच्छविक ’ एवं ‘ वेसालिय ’ नाम प्राप्त हुए थे ।
महावीर वर्धमान n. वैशालि के चेटक नामक राजा के परिवार की सविस्तृत जानकारी जैन साहितय में प्राप्त है, जिससे महावीर के समकालीन राजाओं की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है । चेटक राजा के कुल दस पुतर, एवं सात कन्याएँ थी, जिनमें से ज्येष्ठ पुतर सिंह अथवा सिंहभद्र वृजिराज्य का ही सेनापति था । चेटक की सात कन्याओं में से चंदना एवं ज्येष्ठा ‘ ब्रह्मचारिणी ’ महावीर की अनुगामिनी थीं । बाकी पाँच कन्याओं का विवाह निम्नलिखित राजाओं से हुआ था : - १. मगधराजा बिंबिसार; २. कौशांबीनरेश शतानीक; ३ दशार्णराज दशरथ; ४. सिंधुसौवीरनरेश उदयन; ५. अवंतीनरेश चण्डप्रद्योत । चेटक राजा के परिवार के ये सारे राजा आगे चल कर महावीर के अनुयायी बन गये । उपर्युक्त राजाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित राजा भी महावीर के समकालीन एवं अनुयायी थे: - १. दधिवाहन (चंपादेश); २. जितशतरु (कलिंग); ३. प्रसेनजित (श्रावस्ति); ४. उदितोदय (मथुरा); ५. जीवंधर (हेमांगद); ६. विद्रदाज (पौदन्यपूर); ७. विजयसेन (पलाशपुर); ८. जय (पांचाल); ९. हस्तिनापुरनरेश ।
महावीर वर्धमान n. कलिंगनरेश जितशतरु की कन्या यशोदा के साथ महावीर का विवाह हुआ था । किन्तु आगे चल कर इसके मन में विरक्ति उतपन्न हुई । तीस वर्ष की आयु में अपने ज्येष्ठ बन्धु की आज्ञा ले कर इसने घर छोड दिया (६७० ई. पू.) । कई अभ्यासकों के अनुसार, यशोदा के साथ इसके विवाह का प्रस्ताव जब हो रहा था, उसी समय अर्थात विवाह के पूर्व ही इसने अपना घर छोड दिया । पश्चात बारह वर्षौ तक यह अनेकानेक वनों में घूमता एवं तपस्या करता रहा । अन्त में ५४७ इ. पू. में विहार प्रान्त में जृंभकग्राम में ऋजुकुल्या नदी के किनारे एक शालवृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में ही इसे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । इस प्रकार यह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अर्हत एवं परमातमन् बन गया । केवलज्ञान प्राप्ति के समय इसकी आयु ४२ वर्ष की थी ।
महावीर वर्धमान n. केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् यह पंचशैलपुर नामक नगरी के समीप में स्थित विपुलाचल नामक पर्वत पर आ पहुँचा । वहाँ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन इसने ‘ प्रथम समवशरण सभा ’ का आयोजन किया, जहाँ इसने जैनधर्म का तततवज्ञान उपस्थित साधकों को अर्धमागधी लोकभाषा में कथन किया । वर्धमान का यह सर्वप्रथम धर्मप्रवचन गौतम बुद्ध के द्वारा सारनाथ में किये गये ‘ धर्मचक्रप्रवर्तन ’ के प्रथम प्रवचन इतना ही महततवपूर्ण माना जाता है । इस प्रवचन के लिए उपस्थित श्रोताओं में मगध देश का सुविख्यात सम्राट् श्रेणिक बिंबिसार प्रमुख था ।
महावीर वर्धमान n. वर्धमान का ततवज्ञान इतना प्रभावी शाबित हुआ कि, इसके जीवनकाल में ही लगभग पाँच लाख लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार किया । वर्धमान का यह शिष्यसमुदाय मुनि, श्रावक, आर्यिका एवं श्राविका इन चार संघों में विभाजित था । इनमें से तापसजीवन का आचरण कर धर्मप्रचार का कार्य करनेवाले धर्मप्रचारक एवं प्रवारिका को ‘ मुनि ’ एवं ‘ आर्यिका ’ कहा जाता था । गृहस्थधर्म का आचरण कर जैन धर्मतततवों का पालन करनेवाले जैनधर्मानुयायी ‘ श्रावक ’ एवं ‘ श्राविका ’ कहलाते थे । जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग आदि भेदों के निरपेक्ष रह कर, हरएक व्यक्ति को यह अपने तततवज्ञान का उपदेश प्रदान करता था, एवं कौनसा सी भेदाभेद न मान कर हर व्यक्ति को इसके धर्म में प्रवेश प्राप्त होता था । इस प्रकार इसके श्रावक एवं श्राविका शिष्यपरिवार में भारत के सभी भागों के, सभी वर्णों के, एवं सभी जातियों के स्तरी पुरुष समाविष्ट थे । भारत के बाहर भी गांधार, कपिशा, पारसिक आदि देशों में इसका शिष्यपरिवार उतपन्न हुआ था । इसके श्राविकासंघ के प्रमुखततव का कार्य मगधसाम्राज्ञी चेलना पर सौंपा गया था ।
महावीर वर्धमान n. जैन धर्म के प्रचारकार्य का व्रत आजन्म पालन करनेवाले मुनि, एवं आर्यिका कुल नौ गणों (वृंदों) में विभाजित थें, एवं उनके संचालन का कार्य ग्यारह गणधरों पर निर्भर था । वर्धमान का प्रमुख शिष्य गौतम गणेश महावीर उनका सर्वोच्च प्रमुख माना जाता था । वर्धमान के ग्यारह गणधरों के नाम निम्नप्रकार थें: - १. इंद्रभूति गौतम; २. अग्निभूति; ३. वायुभूति; ४. आर्यव्यक्त; ५. सुधर्म; ६. मण्डिकपुतर; ७. मोयपुतर; ८. अकंपित; ९. अचल; १०. मैतरेय; ११. कौण्डिन्यगोतरीय प्रभास । धर्मप्रचार का कार्य करनेवाले आर्यिका ‘ संघ ’ की अध्यक्षा महासती चंदना थी, जो वैशालि के चेटक राजा की ज्येष्ठ कन्या थी ।
महावीर वर्धमान n. अपने ततवज्ञान के प्रचारार्थ वर्धमान भारतवर्ष के ततकालीन सारे जनपदों में, एवं ग्रामों में लगा तार तीस वर्षौं तक घूमता रहा । इन जनपदों में से मिथिला, मगध, कलिंग, एवं कोशल जनपदों में इसका संचार अधिकतर रहता था । इसी कार्य में यह गांधार, कपिशा जैसे बृहतभारतीय देशों में भी गया । जैसे पहले ही कहा जा चुका है की, भारत के बहुतसारे जनपदों के प्रमुख इसके शिष्यों में शामिल थे । यही नहीं, इनमें से अनेक राजा आगे चल कर जैन मुनि बन कर स्वयं ही धर्मप्रसार का कार्य करने लगे ।
महावीर वर्धमान n. इस प्रकार धर्मसाधना एवं धर्मप्रसार का कार्य अतयंत यशस्वी प्रकार से निभाने के पश्चात, मल्ल देश के पावा नगरी में स्थित कमलसरोवरान्तर्गत द्विप प्रदेश में वर्धमान का निर्वाण हुआ । इसके निर्वाण का दिन कार्तिक कृष्ण अमावास्या; समय प्रातःकाल में सूर्योदय के पूर्व; एवं साल ५२७ इ. पू.
[विक्रम. पूर्व. ४७०] ;
[शक. पूर्व. ६०५] माना जाता है । इसके निर्वाण के समय, लिच्छवी राजा चेटक एवं मल्लराजा व्रातयक्षतरी हस्तिपाल उपस्थित थे । पश्चात मल्ल एवं लिच्छवी के जनपदों के नौ नौ राजप्रमुखों ने एकतरित आ कर इसका निर्वाणविधि सुयोग्य रीति से निभाया, एवं उसी रातरि को जैन धर्म की परंपरा के अनुसार दीपोतसव भी मनाया । कई अभ्यासकों के अनुसार, भारतवर्ष में दीपावलि का तयौहार वर्धमान के निर्वाण के समय किये गये दीपोतसव से ही प्रारंभ हुआ । इसके निर्वाण के साथ साथ ‘ महावीर निर्णावसंवत ’ का प्रारंभ हुआ, जो ‘ वीरसंवत ’ नाम से जैनधर्मीय लोगों में आज भी प्रचलित है ।
महावीर वर्धमान n. महावीर के द्वारा प्रणीत धर्मविषयक तततवज्ञान इसके पंचसूतरातमक आचारसंहिता में संग्रहित है, जो इसके २५० साल पहले उतपन्न हुए पार्श्वनाथ के द्वारा प्रणीत चतुः सूतरातमक आचारसंहिता से काफी मिलती जुलती है । महावीर के द्वारा प्रणीत पंचसूतरातमक आचारसंहिता कें सूतर निम्नप्रकार है : - १. किसी भी जीवित प्राणी अथवा कीटक की हिंसा न करना (अहिंसा); २. किसी भी वस्तु का किसीके दिये वगैर स्वीकार न करना (अयाचिकतव); ३. अनृत भाषण न करना (सतय); ४. आजन्म ब्रह्मचर्यत - व्रत का पालन करना (ब्रह्मचर्य); ५. वस्तरों के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का संचय न करना (अपरिग्रह) । वर्धमान के इस तततवज्ञान में से पहले तीन तततव पार्श्व के तततवों से बिलकुल मिलते जुलते है । अंतिम दो तततव पार्श्व के ‘ अपरिग्रह ’ नामक एक ही तततव से लिये गये हैं, फर्क केवल इतना है की, जहाँ पार्श्व ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह में ही समाविष्ट करता है, वहाँ वर्धमान ब्रह्मचर्य को स्वतंतर तततव बता कर उसें ज्यादा महततव प्रदान करते हैं । पार्श्व एवं वर्धमान के अपरिग्रह कीं व्याख्या में अन्य एक फर्क है कि, जहाँ पार्श्व वस्तर का भी संग्रह न कर अच्चेलक (नग्न) रहना पसंद करते है, वहाँ वर्धमान के द्वारा अपने अनुयायियों को श्वेतवस्तर परिधारण करने की एवं उनका संग्रह करने की संमति दी गयी है । पार्श्व एवं वर्धमान के इस तततवसाधर्म्य के कारण, इन दोनों आचार्यों के अनुयायियों ने श्रावस्ती में एक महासभा बुला कर इन दोनों सम्प्रदायों को सम्मिलित करने का निर्णय लिया । आगे चल कर, इन दोनों सांप्रदायों के सम्मीलन के द्वारा जैन धर्म का निर्माण हुआ (उततराध्ययन सूतर. २३) ।
महावीर वर्धमान n. दैनंदिन मानवीय जीवन में अहिंसा तततव को सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से जितना सुस्पष्ट, उँचा एवं व्यापक रुप वर्धमान के द्वारा दिया गया है, उतना अन्य किसी भी धर्मद्रष्टा नें नहीं दिया होगा । इस प्रकार अहिंसाचरण को दिया यह सर्वोच्च विकसित रुप वर्धमान के आचारसंहिता का एक प्रमुख वैशिष्ट्य कहा जा सकता है ।
महावीर वर्धमान n. आचार संहिता के साथ ही साथ, आतमज्ञान एवं मुक्ति प्राप्त करने के लिए वर्धमान का एक स्वतंतर तततवज्ञान भी था, जो ‘ अनेकान्तवाद ’ नाम से सुविख्यात है । इस तततवज्ञान के अनुसार आतमा को सदगति केवल सदाचरण से ही प्राप्त होती है, जिसका मूल दैनंदिन मानवीय जीवन में अहिंसाचरण ही कहा जा सकता है । वर्धमान का कहना था कि, इंद्रियोपभोग के आधिक्य से आतमा मलिन हो जाती है । इसी कारण आतमा की पवितरता अबाधित रखने के लिए सर्वोतकृष्ट मार्ग इंद्रियदमन है, जो केवल सदविचार एवं सद्धर्म से साध्य हो सकता है ।
महावीर वर्धमान n. जैन सूतरों में कुल ३६३ सांप्रदायों का निर्देश प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित चार प्रमुख थे - १. क्रियावाद; २. अक्रियावाद; ३. अज्ञानवाद; ४. विनयवाद । इनमें से महावीर स्वयं ‘ क्रियावाद ’ सांप्रदाय का पुरस्कर्ता था । इस सांप्रदाय के अनुसार, मानवीय आयुष्य का बहुत सारा दुःख मनुष्य के अपने कर्मों के परिणामरुप ही होते है, एवं इस दुःख के बाकी सारे कारण प्रासंगिक होते हैं । मानवीय जीवन के ये दुःख जन्म, मृतयु एवं पुनर्जन्म के दुश्चक से उतपन्न होते हैं । इस दुःख से छुटकारा पाने के लिए आतमज्ञान एवं सदाचरण ये ही दो मार्ग उपलब्ध है ।
महावीर वर्धमान n. यद्यापि वर्धमान एवं गौतम बुद्ध दोनों भी अनीश्वरवादी एवं वैदिक धर्म के विरोधी थें, फिर इन दोनों के धार्मिक तत्त्वज्ञान में पर्याप्त फर्क है । जहाँ बुद्ध इंद्रियोपभोग के साथ साथ तपः साधना को भी त्याज्य मान कर इन दोनों के बीच का ‘ मध्यम मार्ग ’ प्रतिपादन करते है, वहाँ वर्धमान तप एवं कृच्छ्र को जीवनसुधार का मुख्य उपाय बताता है । तपः साधना को पापनाशन का सर्वश्रेष्ठ उपाय माननेवाले जैन तत्त्वज्ञान की ‘ अंगुत्तर ’ एवं ‘ टीका निपात ’ आदि ग्रंथों में व्यंजना की गयी है ।
महावीर वर्धमान n. इसके नाम पर निम्नलिखित बारह ग्रंथ उपलब्ध हैं, जो इसके तत्त्वज्ञान का संग्रह कर इसके निर्वाण के पश्चात् ग्रंथनिबद्ध किये गये है । इन सारे ग्रंथों की रचना अर्धमागधी भाषा में की गयी है: - १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग; ३. स्थानांग; ४. समवायांग; ५. भगवती; ६. अंतकृद्दशांग; ७. अनुत्तरोपपातिकदशांग; ८. विपाक; ९. उपासकदशांग; १०. प्रश्नव्याकरण; ११. ज्ञाताधर्मकथा; १२. दृष्टिवाद ।
महावीर वर्धमान n. वर्धमान की मृत्यु के पश्चात्, जैन धर्म की परंपरा अबाधित रखने का कार्य इसके शिष्य प्रशिष्यों ने किया । इसके इन शिष्य प्रशिष्यों में निम्नलिखित प्रमुख थे : -
(१) इंद्रभूति गौतम---वर्धमान के निर्वाण के पश्चात् यह प्रमुख गणधर बन गया । वर्धमान के धर्मविषयक तत्त्वज्ञान को, एवं उपदेशों को सुव्यस्थित रुप में गठित एवं वर्गीकृत करने का कार्य इसने किया । ५१५ इ. पू. में इसका निर्वाण हुआ । बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध एवं न्यायसूत्र के अक्षपाद् गौतम का यह समकालीन था । किंतु फिर भी इन दोनों व्यक्तियों से यह सर्वथा भिन्न व्यक्ति था ।
(२) अर्हत् केवली सुधर्माचार्य---यह इंद्रभूति गौतम के पश्चात् जैन धर्म संघ का प्रधान गणधर बन गया । ५०३ इ. पू. में इसका निर्वाण हुआ ।
(३) जंबुस्वामिन्---यह अर्हत् केवली के पश्चात् जैनधर्म संघ का प्रमुख बन गया । अपने पूर्वायुष्य में यह चम्मा के कोट्याधीश वणिक का पुत्र था । किन्तु आगे चल कर जैन मुनि बन गया । मथुरा नगरी के समीप स्थित चौरासी नामक स्थान पर इसने घोर तपस्या की थी । अन्त में इसी स्थान पर ४६५ इ. पू. में इसका निर्वाण हुआ ।
(४) विष्णुकुमार;
(५) नंदिमित्र;
(६) अपराजित;
(७) गोवर्धन;
(८) श्रुतकेवलि भद्रबाहु---ये पाँच आचार्य जंबुस्वामिन् के पश्चात् क्रमशः जैन संघ के आचार्य बन गये । इनमें से अंतिम आचार्य भद्रबाहु का निर्वाण ३६५ इ. पू. में हो गया ।
महावीर वर्धमान n. भद्रबाहु की मृत्यु के पश्चात् जैनधर्म ‘ उदीच्य ’ (श्वेतांबर) एवं ‘ दाक्षिणात्य ’ (दिगंबर) इन दो सांप्रदायों में विभाजित हुआ । इ. पू. ३ री शताब्दी में मध्यदेश के द्वादशवर्षीय अकाल के कारण, भद्रबाहु नामक जैन आचार्य अपने सहस्त्रावधि शिष्यों के साथ मध्यप्रदेश छोड कर दक्षिण भारत की ओर निकल पडे । पश्चात् ये लोग कर्नाटक देश में ‘ श्रवण बेलगोल ’ नामक स्थान में आ कर स्थायिक हुए, एवं आगे चल कर ‘ दाक्षिणात्य ’ अथवा ‘ दिगंबर ’ सांप्रदाय नाम से प्रसिद्ध हुए ।
आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में बहुत सारे जैन मुनि मध्यदेश में ही रह गये, जो आगे चल कर, ‘ श्वेतांबर जैन ’ नाम से प्रसिद्ध हुए । उपर्युक्त सांप्रदायों की संक्षिप्त जानकारी निम्नप्रकार है : -
१. दिगंबर जैन---आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में श्रवणबेलगोल में स्थायिक हुए जैन लोग आगे चल कर दक्षिण भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार करने लगे । दक्षिण भारत में आने के पश्चात् अपने कठोर नियम, आचार विचार, एवं तात्त्विकता से ये पूर्व जैसे ही अटल रहे । इसी कारण भारत के अन्य सभी सांप्रदायों से ये अधिक सनातनी, एवं तत्त्वनिष्ठुर साबित हुए ।
२. श्वेतांबर जैन---आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व के मध्य देश में रहनेवाले जैन श्रवणों को अत्यंत दुर्धर अकाल से सामना देना पडा । इसी दुरवस्था के कारण, इनके आचारविचार, शिथिल पड गये, एवं इन लोगों की ज्ञान साधना भी क्षीण होती गयी । इन लोगों का केंद्र स्थान सर्वप्रथम मगध देह के पाटलिपुत्र नगर में था, जिस कारण इन्हें ‘ मागधी ’ नामान्तर प्राप्त था । आगे चल कर ये लोग पाटलिपुत्र छोड कर उज्जैनी में आ कर रहने लगे । अन्त में ये लोग सौराष्ट्र में बलभीपुर नगर में निवास करने लगे । ये ही लोग पहली शताब्दी के अन्त में श्वेतांबर जैन नाम से सुविख्यात हुए ।
३. मथुरा निवासी जैन---उत्तरापथ प्रदेश में जैनों के अनेक उपनिवेश थे, जो आगे चल कर मथुरानगरी में निवास करने लगे । दिगंबर एवं श्वेतांबर जैनों से ये सर्वथा विभिन्न थे, एवं इन लोगों की आचारपद्धति दिगंबर एवं श्वेतांबर पंथियों की आचारपद्धति के समन्वय से उत्पन्न हुई थी ।