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देवयानी n. असुरोंके राजपुरोहित शुक्राचार्य की कन्या । पुरंदर इंद्र की कन्या जयंती इसकी माता थी । शुक्राचार्य को प्रसन्न कर, दस वर्षो तक उसके पास रहने के बाद जयंती को यह कन्या हुई । प्रियव्रतपुत्री उजस्वती इसकी माता थी, ऐसा भी उल्लेख प्राप्त है [मा.५.१.२५] । देवों के कथनानुसार संजीवनी विद्या सीखने के लिये बृहस्पतिपुत्र कच असुर गुरु शुक्राचार्य के पास आ कर रह गया । कच का आकर्षक व्यक्तिमत्त्व देख, देवयानी उससे प्रेम करने लगी । कच से विवाह करने का प्रस्ताव इसने उसके सामने प्रस्तुत किया । किंतु गुरुकन्या मान कर कच ने इसका पाणिग्रहण नहीं किया । तब ‘तुम्हारी विद्या तुम्हें फलद्रूप नहीं होगी,’ ऐसा शाप देवयानी ने उसे दिया । निरपराध होते हुए शाप देने के कारण, क्रुद्ध हो कर, कच ने भी इसे शाप दिया, ‘कोई भी ऋषपुत्र तुम्हारा वरण न करेगा’। इसीसे इसे क्षत्रियपत्नी बनना पडा । कच के वापस जाने के बाद, एक बार वृषपर्वन् राजा की कन्या शर्मिष्ठा, तथा यह अपनी सखियों के साथ क्रीडा करने गई । उस वन में अपने अपने वस्त्र किनारे रख कर, ये बालायें जलक्रीडा करने लगी । नटखट इन्द्र ने इनका मजाक उडाने के लिये, सब के वस्त्र मिल जुल कर रख दिये । जलक्रीडा समाप्त होने पर सब सखियॉं एकदम बाहर आई, तथा गडबडी में जो भी वस्त्र जिसे मिला, उसे पहनने लगी । भागवत में कहा है कि, नंदी पर बैठ कर नदी किनारे से शंकर जा रहे थे । इस कारण लज्जित हो कर, ये लडकियॉं पानी से बाहर आयीं, एवं वस्त्र परिधान करने लगी [भा.९.१८] । इस गडबडी में, गलती से शर्मिष्ठा ने देवयानी की साडी पहन ली । अपनी साडी शर्मिष्ठा द्वारा पहनी देख कर, दवयानी अत्यंत क्रोधित हुई । देवयनी ने कहा, ‘मेरी शिष्या होते हुए भी तुमने मेरा वस्त्र परिधान क्यों किया? तुम्हारा कभी भी कल्याण न होगा’ । तब शर्मिष्ठा ने कहा, ‘मैं राजकन्या हूँ तथा तुम मेरे पिता के पुरोहित शुक्राचार्य की कन्या हो । इतनी नीच हो कर भी, मेरे जैसी राजकन्या से तेढी बात करने में तुम्हे शर्म आनी चाहिये’। इस प्रकार वे दोनों एक दूसरे को गालियॉं दे कर वस्त्रों का खीचतान करने लगी । अन्त में शर्मिष्ठा ने वहीं एक कुएँ में इसे ढकेल दिया । इसकी मृत्यु हो गयी, ऐसे समझ कर वह नगर में वापस गई । जिस कुएँ में देवयानी गिरी थी, उसके पास मृग के पीछे दौडता हुआ, नहुषपुत्र ययाति पहूँच गया । उथकप्राशनार्थ उस कुएँ में उसने झॉंक कर देखा, तो भीतर एक अत्यंत तेजस्वी कन्या उसे दिख पडी । यह नग्न के कारण, उसने अपना उत्तरीय इसे पहनने के लिये दिया [भा.९.१८] । बाद में ययाति ने इसे सारा वृत्तांत पूछा । तब इसने बताया, ‘मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ’ । यह ब्राह्मणकन्या है, यह जान कर ययाति ने इसका दाहिना हाथ पकड कर इसे बाहर निकाला । बाद में इससे बिदा हो कर, वह अपने नगर वापस गया । देवयानी को ढूँढने के लिये घूर्णिका नामक एक दासी आयी । देवयानी ने उसके द्वारा, अपने पिता उशनस् शुक्र को संदेशा भिजवाया, ‘मैं वृषपर्वन के नगर में नही आऊंगी’। घूर्णिका ने यह वृत्त, वृषपर्वन के राजदरबार में बैठे शुक्राचार्य को बताया । उसे सुनते ही शुक्राचार्य तुरंत वन में आया, एवं अपनी दुःखी कन्या से मिला । इसकी हालत देखते ही वह बोला, ‘अवश्य ही पूर्वजन्म में तुमने कुछ पाप किया होगा, जिसके कारण तुम्हें यह सजा मिल रही है’। पश्चात देवयानी ने उसे शर्मिष्ठा के शब्द बताये । उन्हें सुन कर शुक्राचार्य को अत्यंत क्रोध आय । परंतु देवयानी ने पिता की सांत्वना की, एवं कहा, ‘वृषपर्वन् की कन्या ने, तुमसे भी मेरा ज्यादा अपमान किया है । उससे मैं बदला ले कर ही रहूँगी’। बाद में कोपाविष्ट शुक्राचार्य, दैत्य राजा वृषपर्वन् का त्याग करने के लिये प्रवृत्त हुआ । वृषपर्वन् ने नम्रता से उसकी क्षमा मॉंगी । तब शुक्र ने कहा, ‘तुम देवयानी को समझाओ, क्यों कि, उसका दुख मैं सहन नहीं कर सकता’। तब वृषपर्वन ने कहा, ‘आप हमारे सर्वस्व के स्वामी हैं । इसलिये आप देवयानी को हमें मॉफ करने को कह दें’। यह सारा वृत्त शुक्राचार्य ने देवयानी को बताया । जवाब में इसने कहा कि, ‘यह सब राजा मुझे स्वयं आ कर कहा’। तब वृषपर्वन् ने इससे कहा, ‘हे देवयानी । तुम जो चाहो, मैं करने के लिये तैय्यार हूँ । किंतु तुम नाराज न हो’। तब देवयानी ने कहा, ‘तुम्हारी कन्या शर्मिष्ठा अपनी सहस्त्र दासियों सह मेरी दासी बने, तथा जिससें मैं विवाह करुंगी, उसके घर भी वह दासी बन कर, मेरे साथ आये’। देवयानी की यह शर्त मान्य कर, वृषपर्वन् ने शर्मिष्ठा को बुलावा भेजा । बुलानेवाली दासी ने देवयानी की शर्त के बारे में, सारा कुछ शर्मिष्ठा को पहले ही बताया था । देवयानी के पास जा कर, शर्मिष्ठा ने उसके शर्त मान्य कर ली । तब देवयानी ने उपहास से उसे कहा, ‘क्यों? मैं तो याचक की कन्या हूँ! राजा की कन्या पुरोहितकन्या की दासी भला कैसे हो सकती है? शर्मिष्ठा ने कहा, ‘मेरे दासी होने से, अगर मेरे हीनदीन ज्ञातिबांधव सुखी हो सकते है, तो दास्यत्व स्वीकार करने के लिये मैं तैयार हूँ’। तब देवयानी संतुष्ट हुई । बाद में इसका विवाह ययाति राजा से हुआ । शर्त की अनुसार, शर्मिष्ठा भी इसकी दासी बन कर, ययाति के यहॉं गयी [म.आ.७३.७५] ;[मत्स्य.२७-२९] । बाद में इसकी दासी बनी हुई शर्मिष्ठा को, ययाति से पुत्र उत्पन्न हुआ । तब यह क्रोधित हो कर, फिर एक बार अपने पिता के पास गयी । इस कारण शुक्र ने ययाति को शाप दिया ‘तुम वृद्ध बन जाओगे’। अन्त में ययाति के द्वारा बहुत प्रार्थना की जाने पर शुक्र ने उसे उःशाप दिया, ‘तुम अपना वार्धक्य तरुण पुरुष को दे सकोगे’। देवयानी को ययाति से यदु तथा तुर्वसु नामक दो पुत्र हुएँ थे [वायु. ९३.७७-७८] । किन्तु उन दोनों ने ययाति का वृद्धत्त्व स्वीकारना अमान्य कर दिया । ययाति ने उन दोनों को शाप दे दिया । रामायण में, देवयानी के केवल यदु नामक पुत्र का निर्देश आया है [वा.रा.उ.५८] ।
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देव—यानी f. f.
N. of a daughter of उशनस् or शुक्राचार्य (wife of ययाति and mother of यदु and तुर्वसु), [MBh.] ; [Hariv.] ; [Pur.]
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देवयानी [dēvayānī] N. N. of the daughter of Śukra, preceptor of the Asuras. [She fell in love with Kacha, her father's pupil, but he rejected her advances. On this she cursed the youth, who in return cursed her that she should become the wife of a Kṣatriya (See कच.) Once upon a time Devayānī and her companion Śarmiṣṭhā, the daughter of Vṛiṣaparvan, the king of the Daityas, went to bathe keeping their clothes on the shore. But the god Wind changed their clothes, and when they were dressed they began to quarrel about the change until Śarmiṣṭhā, so far lost her temper that she, slapped Devayānī's face, and threw her into a well. There she remained until she was seen and rescued by Yayāti, who, with the consent of her father, married her, and Śarmiṣṭhā became her servant as a recompense for her insulting conduct towards her. Devayānī lived happily with Yayāti for some years and bore him two sons, Yadu and Turvasu. Subsequently her husband became enamoured of Śarmiṣṭhā, and Devayānī, feeling herself aggrieved, abruptly left her husband and went home to her father, who at her request condemned Yayāti with the infirmity of old age; see Yayāti also.]
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of a wife of स्कन्द, [RTL. 214.]
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