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रुद्र-शिव n. एक देवता, जो सृष्टिसंहार का मूर्तिमान् प्रतीक माना जाता है । प्राचीन भारती साहित्य में निर्देशित त्रिमूर्ति की कल्पना के अनुसार, ब्रह्मा को सृष्टि उत्पत्ति का, विष्णु को सृष्टिसंचालन (स्थिति) का, एवं शिव को सृष्टिसंहार का देवता माना गया है । भय भीत करनेवाले अनेक नैसर्गिक प्रकोप एवं रोगव्याधि आदि के साथ मनुष्यजाति को दैनंदिन जीवन में सामना करना पडता है । वृक्षों को उखाड देनेवाले झंझावात, मनुष्यों एवं पशुओं को विद्युत् एवं उल्कापात से नष्ट कर देनेवाले निसर्गप्रकोप, एवं समस्त पृथ्वी में संहारसत्र शुरू करनेवाले रोग एवं व्याधियाँ आदि की, मनुष्यजाति प्रागैतिहासिक काल से ही शिकार वन चुकी है । इसी नैसर्गिक एवं व्याधिजनित प्रकोपों का प्रतीकरूप मान कर रुद्रदेवता की उत्पत्ति वैदिक आर्यों के मन में हुई, जिस तरह उन्हें प्रात:काल में ‘उषस्’ देवता का, एवं उदित होनेवाले सूर्य में ‘मित्र’ देवता का साक्षात्कार हुआ था । वैदिक साहित्य में नैसर्गिक एवं व्याधिजनित उत्पात निर्माण करनेवाले देवता को रुद्र कहा गया है, एवं उसी उत्पातों का शमन करनेवाले देवता को शिव कहा गया है । इस प्रकार रुद्र एवं शिव एक ही देवता के रौद्र एवं शांत रूप है । सृष्टि का प्रचंड विस्तार एवं सुविधाएँ निर्मांण करनेवाले परमेश्वर के प्रति मनुष्यजाति को जो आदर, कृतज्ञता एवं प्रेम प्रतीत हुआ, उसीका ही मूर्तिमान् रुप भगवान् विष्णु है, एवं उसी सृष्टि का विनाश करनेवाले प्रलयंकारी देवता के प्रति जो भीति प्रतीत होती है, उसीका मूर्तिमान् रूप रुद्र है । पाश्रात्य देवताविज्ञान में सृष्टिसंचालक एवं सृष्टिसंहारक देवता प्राय: एक ही मान कर, इन द्विविध रूपों में उसकी पूजा की जाती है । किन्तु भारतीय देवताविज्ञान मे सृष्टि की इन दो आदिशक्तियों को निभिन्न माना गया है, जिसमें से सृष्टि संचालक शक्ति को विष्णु-नारायण-वायु देव-कृष्ण कहा गया है, एवं सृष्टिसंहारक शक्ति को रुद्र कहा गया है । इस तरह ऋग्वेद से ले कर गृह्मसुत्रों तक के ग्रंथों में रुद्रदेवताविषयक कल्पनाओं की उत्क्रांति जब हम देखते है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि, ऋग्वेद आदि ग्रन्थों में रुद्र निसर्गप्रकोप का एक सामान्य देवता था । वही रुद्र उत्तरकालीन ग्रंथों में पशु, जंगल, पर्वत, नदी, स्मशान आदि सारी सृष्टि को व्यापनेवाला एक महाबलशाली देवता मानने जाने लगा, एवं यह विष्णु के समान ही सृष्टि का एक श्रेष्ठ देवता बन गया ।
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रुद्र-शिव n. ऋग्वेद में इसका स्वरूप वर्णन प्राप्त है, जहाँ इसका वर्ण भूरा (बभ्रु), एवं रूप अति तेजस्वी बताया गया है [ऋ. २.३३] । यह सूर्य के समान जाज्बल्य, एवं सुवर्ण की भाँति यह जटाघारी है । बाद की संहिताओं में इसे सहस्रनेत्र, एवं नीलवर्णीय ग्रीवा एवं केशवाला बताया गया है. [वा. सं. १६.७] ;[अ. वे. २. २७] । इसका पेट कृष्णवर्णीय एवं पीठ रक्त्तवर्णीय है [अ. वे. १५.१] । यह चर्मधारी है [वा. सं . १६.२-४, ५१] । महाभारत एवं पुराणो में प्राप्त रुद्र का स्वरूपवर्णन कल्पनारम्य प्रतीत होता है । इस वर्णन के अनुसार, इसके कुल पाँच मुख थे, जिनमें से पूर्व, उत्तर, पश्चिम एवं उर्ध्व दिशाओं की ओर देखनेवाले मुख सौम्य, एवं केवल दक्षिण दिशा की ओर देखनेवाला मुख रौद्र था [म. अनु. १४०.४६] । इन्द्र के वज्र का प्रहार इसकी ग्रीवा पर होने के कारण, इसका कंठ नीला हो गया था [म. अनु. १४१,८] । महाभारत में अन्यत्र, समुद्रमंथन से निकला हुआ हलाहल विष प्राशन करने के कारण, इसके नीलकंठ बनने का निर्देश प्राप्त है, जहां इसे ‘श्रीकंठ’ भी कहा गया है [म. शां. ३४२.१३] । पुराणों में भी इसका स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे चतुर्मुख [विष्णुधर्म. ३.४४-४८, ५५.१] ; अर्धनारीनटेश्वर [मत्स्य., २६०] ; एवं तीन नेत्रोंवाला कहा गया है ।
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रुद्र-शिव n. दैदिक ग्रंथों में इसे पर्वतों में एवं मूजव नामक पर्वत में रहनेवाला बताया गया है [वा. सं. १६.२-४, ३.६१] । इसका आद्य निवासस्थान मेरुपर्वत था, जिस कारण इसे ‘मेरुधामा’ नामान्तर प्राप्त था [म. अनु. १७.९१] । विष्णु के अनुसार, हिमालय पर्वत एवं मेरू एक ही हैं [विष्णु. २.२] । कृष्ण द्वैपायन व्यास ने एवं कुवेर ने मेरुपर्वत पर ही इस की उपासना की थी । महाभारत में अन्यत्र, इसका निवासस्थान मुंजवान् अथवा मूजवत पर्वत बताया गया है, जौ कैलास के उसपार था [म. आश्व. ८.१] ;[सौ. १७.२६. वायु, ४७.१९] । कैलास एवं हिमालय पर्वत भी इसका निवासस्थान बताया गया है [म. भी. ७.३१] ;[ब्रह्म. २९.२२] । इसका अत्यंत प्रिय निवासस्थान काशी में स्थित स्मशान था [म. अनु. १४१. १७-१९, नीलकंठ ठीका] , इसी कारण शिव के भक्तों में काशी अत्यंत पवित्र एवं मुमुक्षुओं का वसतिस्थान माना गया है (मैत्रेय देखिये) संवर्त को शवरूप में शिवदर्शन का लाभ काशीक्षेत्र में ही हुआ था ।
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रुद्र-शिव n. हिमवत् पर्वत के मुंजवत् शिखर पर शिव का तपस्यास्थान है । वहां वृक्षों के नीचे, पर्वतों के शिखरों पर, एवं गुफाओं में यह अद्दश्यरूप से उमा के साथ तपस्या करता है । इसकी उपासना करनेवाले, देव, गंधर्व, अप्सरा, देवर्पि, यातुधान, राक्षस एवं कुबेरादि अनुचर विकृत रूप में वहीं रहते हैं, जो रुद्रगण नाम से प्रसिद्ध हैं । शिव एवं इसके उपासक अद्दश्य रूप में रहते हैं, जिस कारण वे चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देते [म. आश्व. ८.१-१२] ।
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