मयूरध्वज n. रत्ननगर का एक राजा । इसने सात अश्वमेध यज्ञ करने के उपरांत, नर्मदा तट पर अपना आठवॉं अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया । इसके अश्वमेधीय अश्व के संरक्षण का भार इसके पुत्र सुचित्र अथवा ताम्रध्वज पर था, जो अपने बहुलध्वज नामक प्रधान के साथ दिग्विजय के लिए निकला था । लौटते समय सुचित्र को युधिष्ठिर द्वारा किये गये अश्वमेध का अश्व मिला, जो मणिपुर नगर से होता हुआ इसके नगर आया था । सुचित्र ने उसे पकड कर कृष्णार्जुन से युद्ध किया, तथा युद्ध में उन्हे मूर्च्छित कर के अश्व के साथ नगर में प्रवेश किया । उधर मूर्च्छा से सावधान होने के उपरांत, कृष्ण ने ब्राह्मण का तथा अर्जुन ने ब्राह्मणबालक का रुप धारण कर मयूरध्वज की राजधानी रत्नपुर में प्रवेश किया । इसके पास आकर ब्राह्मण वेषधारी कृष्ण ने कहा, ‘अपने पुत्र का विवाह कराने के लिए तुम्हारे पुरोहित कृष्णशर्मा के पास धर्मपुर नामक स्थान से हम आ रहे थे कि, आते समय जंगल में मेरे बेटे को एक सिंह ने पकड लिया । मैने तत्काल नृसिंह भगवान् का स्मरण किया, किन्तु वह प्रकट न हुए । फिर मुझे देख कर उस सिंह ने कहा कि, तुम अगर मयूरध्वज राजा का आधा शरीर मुझे लाकर दोगे, तो मै तुम्हारे पुत्र को वैसे ही वापस कर दूँगा ।’ ब्राह्मण द्वारा यह मॉंग की जाने पर, मयूरध्वज राजा बढई के द्वारा अपना शरीर कटवाने के लिए तैयार हो गया । वैसे ही इसकी पत्नी कुमुद्वती ने आकर कहा, ‘राजा का वामांग मैं हूँ, इसलिए आप मुझे ले सकते हैं ।’ ब्राह्मण ने कहा, ‘सिंह ने दाहिना अंग लाने के लिए कहा है । इसका शरीर जब आरे द्वारा काटा जाने लगा, तब इसकी बायीं ऑंख से पानी टीका । इसे देखकर ब्राह्मण ने तत्काल कहा कि, दुःखपूर्व दिया गया दान मै नहीं चाहता । तब मयूरध्वज ने कहा, ‘ऑंख के अश्रु शारीरिक कष्ट के कारण नहीं निकल रहे, इसका कारण कोई दूसरा है । बाई ऑख इसलिए रोती है कि, काश दाहिने अंग की भॉंति वामांग भी साथ हो गया होगा, तो कितना अच्छा था’। इतना सुनते ही ब्राह्मणवेषधारी कृष्ण ने अपने साक्षात् दर्शन देकर इसके शरीर को पूर्ववत् किया, एवं दृढ आलिंगन कर आशीष दिया । बाद में अपना यज्ञ पूर्ण कर, मयूरध्वज राजा कृष्णार्जुन के साथ अस्व्ह के संरक्षण के लिए उनके साथ चला गया
[जै.अ.४१-४६] ।