सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू । करनधार बिनु जिभि जल जानू ॥
कुशिकवंशमें महाराज गाधिके पुत्र विश्वामित्रजी हुए । वंशके नामपर इन्हें कौशिक कहा जाता है । महर्षि वशिष्ठके आश्रमपर एक बार ये सेनासहित पहुँचे । अपनी कामधेनुकी शक्तिसे महर्षिने इनका यथोचित सत्कार किया । उस गौका प्रभाव देखकर राजा विश्वामित्रजीने उसे लेना चाहा । जब महर्षिने स्वेच्छासे देना अस्वीकार कर दिया, तब वे बलात् उसे ले जाने लगे; किंतु वशिष्ठजीकी अनुमतिसे कामधेनुने अपने शरीरसे लाखों सैनिक प्रकट करके इनकी सेनाको पराजित कर दिया । अब ये तप करके वशिष्ठको पराजित करनेमें लगे । जब तपस्या करके शङ्करजीद्वारा प्राप्त दिव्यास्त्र भी ब्रह्मर्षि वशिष्ठके ब्रह्मदण्डमें लीन हो गये, तब विश्वामित्रजीने स्वयं ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेका निश्चय किया ।
तपस्यामें, साधनमें, भगवानके भजनमें - जीवके कल्याणके जितने मार्ग हैं, उन सबमें काम, क्रोध और लोभ ही सबसे बड़े बाधक हैं । ये तीनों नरकके द्वार हैं । ' त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।' कोई कितना विद्वान्, बुद्धिमान्, तपस्वी क्यों न हो, यदि काम - क्रोध - लोभ - मेंसे एकके भी वश हो जाता है, तो उसकी विद्या, बुद्धि, तपका कोई अर्थ नहीं । ये तीनों विकार बुद्धिको मोहमें डाल देते हैं और बुद्धिभ्रमसे जीवका सर्वनाश हो जाता है । विश्वामित्रजी - जैसा महान् तप कदाचित् ही किसीने किया हो; किंतु अनेक बार काम, क्रोध या लोभने उनके बड़े कष्टसे उपार्जित तपका नाश कर दिया । इन्द्रकी भेजी मेनका अप्सराने एक बार उन्हें प्रलुब्ध कर लिया । दूसरी बार राजा त्रिशङ्कु वशिष्ठजीका शाप होनेपर भी इनके पास सशरीर स्वर्ग जानेके लिये आया । विश्वामित्रजीने उसे यश कराना स्वीकार कर लिया । उस यज्ञमें दूसरे सब ऋषि आये, किंतु वशिष्ठके सौ पुत्रोंमेंसे कोई न आया । रोषमें आकर विश्वामित्रने वशिष्ठके सभी पुत्रोंको मार डाला, अपने तपोबलसे त्रिशङ्कुको सदेह स्वर्ग भेज दिया और जब देवताओंने उसे नीचे ढकेल दिया, तब मध्यमें ही वह रुका रहे, यह व्यवस्था विश्वामित्रजीने तपोबलसे कर दी । इस प्रकार बार - बार तपके नाशसे भी वे महाभाग निराश नहीं हुए । तपस्याके प्रभावसे वे इतने समर्थ हो गये कि दूसरी सृष्टि करने लगे । अनेकों नवीन प्राणिशरीर, जो ब्राह्मी सृष्टिमें नहीं थे, उन्होंने बनाये । भगवान् ब्रह्माने उनको इस सृष्टिकार्यसे रोका और ब्राह्मणत्व प्रदान किया । वशिष्ठजीने उन्हें ' ब्रह्मर्षि ' स्वीकार किया ।
काम, क्रोध और लोभके कारण अनेक बार विघ्न पड़नेसे विश्वामित्रजीने इन तीनों विकारोंकी नाशक शक्तिको पहचान लिया था । उन्होंने भगवानका आश्रय लेकर इन तीनोंको सर्वथा छोड़ दिया । उनके आश्रममें प्रत्येक पर्वके समय रावणके अनुचर मारीच और सुबाहु राक्षसी सेना लेकर चढ़ आते और हड्डी, रक्त, मांस, मल - मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंकी वर्षा करके यज्ञको दूषित कर देते । महर्षि विश्वामित्र इन राक्षसोंके उपद्रवसे यश कर नहीं पाते थे । इतनेपर भी शाप देकर राक्षसोंको मस्म करनेका शङ्कल्पतक उनके मनमें नहीं उठा । समर्थ होनेपर भी क्रोधको उन्होंने वशमें रक्खा । लोभको तो फिर आने ही नहीं दिया । जब इन्हें पता लगा कि भगवानने पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये अयोध्यामें अवतार ले लिया है, तब ये अयोध्या गये और वहाँसे श्रीराम - लक्ष्मणको ले आये । जब श्रीरामने एक ही बाणसे ताड़काको मार दिया, तब इनको श्रीरामके परात्पर स्वरुपका पूरा निश्चय हो गया । अनेक प्रकारके दिव्यास्त्र तथा विद्याएँ इन्होंने दोनों भाइयोंको प्रदान कीं ।
महर्षि विश्वामित्रजीने ही श्रीराम - लक्ष्मणको जनकपुर पहुँचाया । इन्हींकी प्रेरणासे धनुत्र टूटा और श्रीजनकराजकुमारीका श्रीरामभद्रने पाणिग्रहण किया । महाराज दशनथजक जनकपुरसे बारात विदा करके लौटे, तब विश्वामित्रजी भी उनके साथ अयोध्या आये । वहाँ पर्याप्त समयतक महाराजाके सत्कृत, पूजित होकर रहे और तब अपने आश्रमप गभे चित्रकूतमें जब महाराज जनक श्रीरामसे मिलने गये, तब विश्वामित्रजी भी उनके साथ वहाँ पचारे । जनजीके ही महर्षि लौटे भी । महर्षि विश्वामित्रजीका पूरा जीवन ही तप एवं परोपकारमें व्यतीत हुआ । वे वेदमाता गायत्रीके द्रष्टा हैं । उनके अनेक धर्मग्रन्थ हैं । साक्षात् भगवान श्रीराघवेन्द्र जिन्हें महर्षि वशिष्ठके समान ही अपना ' गुरुदेव मानते थे और अपने कमल - कोमल करोंसे जिनके चरण दवारे थे, उनके सौभाग्य तथा उनकी महिमाका वर्णन कौन सकता हैं ।