विदुरजी

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


वासुदैवस्य ये भक्ताः शान्तास्तद्गतमानसाः ।

तेषां दासस्य दासोऽहं भवे जन्मनि जन्मनि ॥

माण्डव्य ऋषिके शापसे यमराजजीने ही दासी - पुत्रके रुपमें धृतराष्ट्र तथा पाण्डुके भाई होकर जन्म लिया था । यमराजजी भागवताचार्य हैं । अपने इस रुपमें, मनुष्य - जन्म लिया था । यमराजजी भागवताचार्य हैं । अपने इस रुपमें, मनुष्य - जन्म लेकर भी वे भगवानके परम भक्त तथा धर्मपरायण ही रहे । विदुरजी भगवानके परम भक्त तथा धर्मपरायण ही रहे । विदुरजी महाराज धृतराष्ट्रके मन्त्री थे और सदा इसी प्रयत्नमें रहते थे कि महाराज धर्मका पालन करें । नीतिशास्त्रके ये महान् पण्डित और प्रवर्तक थे । इनकी विदुरनीति बहुत ही उपादेय और प्रख्यात है ।

जब कभी पुत्र - स्नेहवश धृतराष्ट्र पाण्डवोंको क्लेश देते या उनके अहितकी योजना सोचते, तब विदुरजी उन्हें समझानेका प्रयत्न करते । स्पष्टवादी और न्यायका समर्थक होनेपर भी धृतराष्ट्र इन्हें बहुत मानते थे । दुर्योधन अवश्य ही इनसे जला करता था । धर्मरत पाण्डुके पुत्रोंसे ये स्नेह करते थे । जब दुरात्मा दुर्योधनने लाक्षाभवनमें पाण्डवोंको जलानेका षडयन्त्र किया, तब विदुरजीने उन्हें बचानेकी व्यवस्था की और गुह्य भाषामें संदेश भेजकर युधिष्ठिरको पहले ही सावधान कर दिया तथा उस भयङकर गृहसे बच निकलनेकी युक्ति भी बता दी ।

सज्जनोंको सदा न्याय एवं धर्म ही अच्छा लगता है । अन्याय तथा अधर्मका विरोध करना उनका स्वभाव होता है । इसके लिये अनेकों बार दुर्जनोंसे उन्हें तिरस्कृत तथा पीड़ित भी होना पड़ता है । विदुरजी दुर्योधनके दुष्कर्मोका प्रबल विरोध करते थे । जब कौरवोंने भरी सभामें द्रौपदीको अपमानित करना प्रारम्भ किया, तब वे रुष्ट होकर सभाभवनसे चले गये । पाण्डवोंके वनवासके समय विदुरजीको दुर्योधनके भड़कानेसे धृतराष्ट्रने कह दिया - ' तुम सदा पाण्डवोंकी ही प्रशंसा करते हो, अतः उन्हीके पास चले जाओ ।' विदुरजी वनमें पाण्डवोंके पास चले गये । उनके चले जानेपर धृतराष्ट्रको उनकी महत्ताका पता लगा । विदुरसे रहित अपनेको वे असहाय समझने लगे । तब दूत भेजकर विदुरजीको उन्होंने फिर बुलाया । मानापमानमें समान भाव रखनेवाले विदुरजी लौट आये ।

पाण्डवोंके वनवासके तेरह वर्ष कुन्तीदेवी विदुरजीके यहाँ ही रही थीं । जब श्रीकृष्णचन्द्र सन्धि कराने पधारे, तक दुर्योधनका स्वागत - सत्कार उन्होंने अस्वीकार कर दिया । उन मधुसूदनको कभी ऐश्वर्य सन्तुष्ट नहीं कर पाता, वे तो भक्तके भावभरे तुलसीदल एवं जलके ही भूखे रहते हैं । श्रीकृष्णचन्द्रने धृतराष्ट्र, भीष्म, भूरिश्रवा आदि समस्त लोगों का आतिथ्य अस्वीकार कर दिया और विदुरजीके घर के बिना निमन्त्रणके ही पहुँच गये । अपने सच्चे भक्तका घर तो उनका अपना ही घर है । विदुरके शाकको उन त्रिभुवनपतिने नैवेद्य बनाया । विदुरानीके केल्के छिलकेकी कथा प्रसिद्ध है । महाभारतके अनुसार विदुरजीने विविध व्यज्जनादिसे उनका सत्कार किया था ।

महाराज धृतराष्ट्रको भरी सभामें श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख तथा केशवके चले जानेपर अकेले भी विदुरने समझाया -- ' दुर्योधन पापी है । इसके कारण कुरुकुलका विनाश होता दीखता है । इसे बाँधकर आप पाण्डबोंको दे दें ।' दुर्योधन इससे बहुत बिगड़ा । उसने कठोर वचन कहे । विदुरजीको युद्धमे किसीका पक्ष लेना नहीं था, अतः शस्त्र छोड़कर वे तीर्थाटनको चले गये । अवधूतवेशमें वे तीर्थोमें घूमते रहे । बिना माँगे जो कुछ मिल जाता, वही खा लेते । नंगे शरीर कन्द - मूल खाते हुए वे तीर्थोंमें लगभग ३६ वर्ष विचरते रहे । अन्तमें मथुरामें इन्हें उद्धवजी मिले । उनसे महाभारतके युद्ध, यदुकुलके क्षय तथा भगवानके स्वधामगमनका समाचार मिला । भगवानने स्वधाम पधारते समय महर्षि मैत्रेयको आदेश दिया था विदुरजीको उपदेश करनेका । उद्धवजीसे यह समाचार पाकर विदुरजी हरद्वार गये । वहाँ मैत्रेयजीसे उन्होंने भगवदुपदिष्ट तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और फिर हस्तिनापुर आये । हस्तिनापुर विदुरजी केवल बड़े भाई धृतराष्ट्रको आत्मकल्याणका मार्ग प्रदर्शन करने आये थे । उनके उपदेशसे धृतराष्ट्र एवं गान्धारीका मोह दूर हो गया और वे विरक्त होकर वनको चले गये । विदुरजी तो सदासे विरक्त थे । वनमें जाकर उन्होंने भगवानमें चित्त लगाकर योगियोंका भाँति शरीरको छोड़ दिया ।

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Last Updated : April 28, 2009

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