ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )
श्रीप्रह्लादजीके पुत्र दैत्यराज विरोचन परम ब्राह्मणभक्त थे । इन्द्रके साथ ही ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके पास ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उन्होंने निवास किया था । ब्रह्माजीके द्वारा उपदेश किया हुआ तत्त्वज्ञान यद्यपि वे यथार्थरुपसे ग्रहण नहीं कर सके, तथापि धर्ममें उनकी श्रद्धा थी और उनकी गुरुभक्तिके कारण महर्षि शुक्राचार्य उनपर बहुत प्रसन्न थे । विरोचनके दैत्याधिपति होनेपर दैत्यों, दानवों तथा असुरोंका बल बहुत बढ़ गया था । इन्द्रको कोई रास्ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्योंकी बढ़ती हुई शक्तिको दबाकर रक्खें ।
विरोचनने स्वर्गपर अधिकार करनेकी इच्छा नहीं की थी; किंतु इन्द्रका भय बढ़ता जाता था । इन्द्र देखते थे कि यदि कभी दैत्योंने आक्रमण किया तो हम धर्मात्मा विरोचनको हरा नहीं सकते । अन्तमें देवगुरु बृहस्पतिकी सलाहसे एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मणका रुप धारण करके विरोचनके यहाँ गये । ब्राह्मणोंके परम भक्त और उदार शिरोमणि दैत्यराजने उनका स्वागत किया, उनके चरण धोये और उनका पूजन किया । इन्द्रने विरोचनके दान और उनकी उदारताकी बहुत ही प्रशंसा की ।
विरोचनने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मणसे कहा कि ' आपको जो कुछ माँगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर माँग लें ।' इन्द्रने बातको अनेक प्रकारसे पक्की कराके तब कहा -- ' दैत्यराज ! मुझे आपकी आयु चाहिये ।' बात यह थी कि यदि विरोचनको किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्यासे फिर जीवित कर सकते थे ।
विरोचनको बड़ी प्रसन्नता हुई । वे कहने लगे -- ' मैं धन्य हूँ । मेरा जन्म लेना सफल हो गया । आज मेरा जीवन एक विप्रने स्वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये और क्या हो सकता है ।'
अपने हाथमें खडग लेकर स्वयं उन्होंने अपना मस्तक काटकर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्रको दे दिया । इन्द्र उस मस्तकको लेकर भयके कारण शीघ्रतासे स्वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवानके नित्य धाममें ही पहुँच गये । भगवाननें उन्हें अपने निज जनोंमें ले लिया ।