सब साधन कर यह फल भाई । भजिग राम सब काम बिहाई ॥
मित्रावरुणसे वशिष्ठजीकी उत्पत्ति कही गयी है और फिर निमिके शापसे देह त्यागकर वे आग्नेय - पुत्र हुए । वैसे वे सृष्टिके प्रथम कल्पमें ब्रह्माजीके मानस पुत्र थे । सतीशिरोमणि भगवती अरुन्धती उनकी पत्नी हैं । जब ब्रह्माजीने इन्हें सूर्यवंशका पुरोहित बननेको कहा, तब ये उसे अस्वीकार करने लगे । शास्त्रोंमें पुरोहितका पद ब्राह्मणके लिये श्रेष्ठ नहीं माना गया है । जिसमें धनका लोभ न हो, विषयभोगोंकी इच्छा न हो, वह भला क्यों ऐसे छोटे कामको स्वीकार करे । परन्तु ब्रह्माजीने समझाया - ' बेटा ! मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम इसी वंशमें आगे चलकर प्रकट होंगे । तुम उनके गुरुका गौरवशाली पद पाकर कृतार्थ हो जाओगे ।' इससे वशिष्ठजीने यह पद स्वीकार कर लिया ।
पहले पूरे सूर्यवंशके वशिष्ठजी ही पुरोहित थे; किन्तु निमिसे विवाद हो जानेके कारण सूर्यवंशकी दुसरी शाखाओंका पुरोहित - करं इन्होंने छोड़ दिया और ये अयोध्याके समीप आश्रम बनाकर रहने लगे । ये केवल इक्ष्वाकुके वंशका ही पौरोहित्य करते थे । जब कभी अनावृष्टि होती, अकाल पड़ता, तब अपने तपोबलसे वृष्टि करके ये प्रजाकी रक्षा करते थे । जब भी अयोध्याके राजकुलपर कोई सङ्कट आया, वशिष्ठजीने अपने तंपोबलसे उसे दूर कर दिया । भगीरथ जब तपस्या करते हुए गङ्गाजीको लानेके विषयमें निराश हो गये, तब वशिष्ठजीने ही उन्हें प्रोत्साहित किया और मन्त्र बताया । महाराज दिलीपके कोई सन्तान नहीं होती थी, तब सन्तानके लिये नन्दिनी गौकी सेवा बताकर राजाका मनोरथ वशिष्ठजीने ही पूर्ण किया ।
एक बार जब विश्वामित्रजी राजा थे, सेनाके साथ वशिष्ठजीके अतिथि हुए । वशिष्ठजीने अपनी कामधेनु गौके प्रभावसे मलीभाँति राजाका तथा सेनाका अनेक प्रकारकी भोजनसामग्रीसे सत्कार किया । गौका प्रभाव देखकर विश्वामित्र उसे लेनेको उद्यत हो गये । परन्तु किसी भी मूल्यपर किसी भी पदार्थके बदले कोई ऋषि गो - विक्रय नहीं कर सकता । अन्तमें विश्वामित्रजी बलपूर्वक अपने ब्रह्मवलसे अपार सेना उत्पन्न करके विश्वामित्रको पराजित कर दिया । पराजित होनेपर विश्वामित्रजीका द्वेष और बढ़ गया । वे तपस्या करके शङ्करजीसे अनेक दिव्यास्त्र प्राप्तकर फिर आये; किंतु महर्षि वशिष्ठके ब्रह्मदण्डके सम्मुख उन्हें पराजित ही होना पड़ा । अब उन्होंने उग्र तप करके ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेका निश्चय किया । विश्वामित्रजीने महर्षि वशिष्ठके सौ पुत्र मार दिये; किंतु ये महर्षि तो क्षमाकी मूर्ति थे । विश्वामित्रपर इनका तनिक भी रोष नहीं था । एक दिन रात्रिमें छिपकर विश्वामित्रजी जब इन्हें मारने आये, तब उन्होंने सुना कि एकान्तमें वशिष्ठ अपनी पत्नीसे कह रहे हैं - ' इस सुन्दर चाँदनी रातमें तप करके भगवानको सन्तुष्ट करनेका प्रयत्न तो विश्वामित्र - जैसे बड़भागी ही करते हैं ।' शत्रुकी एकान्तमें भी प्रशंसा करनेवाले महापुरुषसे द्वेष करनेके लिये विश्वामित्रजीको बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे शस्त्र फेंककर महर्षिके चरणोंपर गिर पड़े । वशिष्ठजीने उन्हें हदयसे लगा लिया और ब्रह्मर्षि स्वीकार किया ।
भगवान् श्रीरामको शिष्यरुपमें पाकर वशिष्ठजीने अपने पुरोहित पदको धन्य माना । योगवाशिष्ठ - जैसे ज्ञानके मूर्तरुप ग्रन्थका उन्होंने श्रीरामको उपदेश किया । वशिष्ठसंहिताके द्वारा उन्होंने कर्मके महत्त्व एवं आचरणका आदर्श लोकमें स्थापित किया । उनके अनेक विस्तृत चरित पुराणों तथा अन्य शास्त्रीय ग्रन्थोंमें हैं । उनका जीवन तो श्रीरामके प्रेमकी मूर्ति ही है । उनका एक ही दृढ़ निश्चय था -
राखे राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ ।'
श्रीरामरतलाल जानते थे कि यदि गुरुदेव आज्ञा करें तो रघुनाथजी वनसे अयोध्या लौट चलेंगे; किंतु वे यह भी जानते थे - ' मुनि पुनि कहब राम रुख जानी ।' श्रीरामकी क्या इच्छा है, यह जानकर महर्षि सदा उसके अनुकूल ही चलेंगे । श्रीरामकी इच्छामें अपनी इच्छाको उन्होंने एक कर दिया था । आज भी जगतके कल्याणके लिये वशिष्ठजी देवी अरुन्धतीके साथ सप्तर्षियोंमें स्थित हैं ।