श्रीपराशरजी बोले -
उनके ये परमार्थमय वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन विप्रवरसे कहा ॥१॥
राजा बोले -
भगवान् ! आपने जो परमार्थमय वचन कहे हैं उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रान्त-सी हो गयीं है ॥२॥
हे विप्र ! आपने सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त जिस असंग विज्ञानका दिग्दर्शन कराया है वह प्रकृतिसे परे ब्रह्मा ही है ( इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है ) ॥३॥
परंतु आपने जो कहा कि मैं शिबिकाको वहन नहीं कर रहा हूँ, शिबिका मेरे ऊपर नहीं है, जिसने इसे उठा रखा हैं वह शरीर मुझसे अत्यन्त पृथक् है । जीवोंकी प्रवृत्ति गुणों ( सत्व, रज, तम ) की प्रेरणासे होती है और गुण कर्मोंसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं - इसमें मेरा कर्तुत्त्व कैसे माना जा सकता हैं ? ॥४-५॥
हे परमार्थज्ञ ! यह बात मेरे कानोंमें पड़ते ही मेरा मन परमार्थका जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है ॥६॥
हे द्विज ! मैं तो पहले ही महाभाग कपिलमुनिसे यह पूछनेके लिये कि बताइये 'संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है;' उसने पास जानेको तत्पर हुआ हूँ ॥७॥
किन्तु बीचहीमें आपने जो वाक्य कहे हैं उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ-श्रवण करनेके लिये आपकी और झुक गया है ॥८॥
हे द्विज ! ये कपिलमुनि सर्वभुत भगवान विष्णुके ही अंश हैं । इन्होंने संसारका मोह दूर करनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है ॥९॥
किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे हैं उससे मुझे निश्चय होता हैं कि वे ही भगवान् कपिलदेव मेरे हितकी कामनासे यहाँ आपके रूपमें प्रकट हो गये हैं ॥१०॥
अतः हे द्विज ! हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीतसे कहिये । हे प्रभो ! आप सम्पूर्ण विज्ञान - तरंगोके मानो समुद्र ही हैं ॥११॥
ब्राह्मण बोले - हे राजन् ! तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ ? क्योंकि हे भूपते ! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही हैं ॥१२॥
हे नृप ! जो पुरुष देवताओंकी आराधना करके धन, सम्पत्ति, पुत्र और राज्यादिकी इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय हैं ॥१३॥
जिसका फल स्वर्गकोककी प्राप्ति है वह यज्ञत्मक कर्म भी श्रेय है: किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फलका इच्छा न करनेमें ही हैं ॥१४॥
अतः हे राजन् । योगयुक्त पुरुषोकों प्रकृति आदिसे अतीत उस आत्माका ही ध्यान करना चाहिये, क्योंकी उस परमात्माका संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है ॥१५॥
इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ो - हजारों प्रकारके अनेकों हैं, किंतु ये सब परमार्थ नहीं हैं । अब जो परमार्थ है सो सुनो - ॥१६॥
यदि धन ही परमार्थ है तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता हैं ? तथा इच्छित भोगोंकी प्रात्पिके लिये उसका व्यय क्यों किया जात हैं ? ( अतः वह परमार्थ नहीं है ) ॥१७॥
हे नरेश्वर ! यदि पुत्रको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य ( अपने पिता ) का परमार्थभूत है, तथा उसका पिता भी दुसरेका पुत्र होनेके कारण उस ( अपने पिता ) का परमार्थ होगा ॥१८॥
अतः इस चराचर जगत्में पिताका कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहिं है । क्योंकी फिर तो सभी कारणोंके कार्य परमार्थ हो जायँगे ॥१९॥
यदि संसारमें राज्यादिकी प्राप्तिको परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते । अतः परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा । ( इसलिये राज्यादि भी परमार्थ नहीं हो सकते ) ॥२०॥
यदि ऋक् , यजुः और सामरूप वेदत्रयीसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्मको परमार्थ मानते हो तो उसके विषयमें मेरा ऐसा विचार हैं - ॥२१॥
हे नृप ! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिकाका कार्य होती है वह कारणकी अनुगामिनी होनेसे मृत्तिकारूप ही जानी जाती हैं ॥२२॥
अतः जो क्रिया समिध, घृत और कुशा आदि नाशवान् द्रव्योंसे सम्पन्न होती है वह भी नाशवान ही होगी ॥२३॥
किन्तु परमार्थको तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलातें हैं और नाशवान् द्रव्योंसे निष्पन्न होनेके कारण कर्म ( अथवा उनसे निष्पन्न होनेवाले स्वर्गादि ) नाशवान् ही हैं - इसमें सन्देह नहीं ॥२४॥
यदि फलशासें रहित निष्कामकर्मको परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फलका साधन होनेसे साधन ही है, परमार्थ नहीं ॥२५॥
यदि देहादिसे आत्माका पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करनेको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनात्मासे आत्माका भेद करनेवाला है और परमार्थमें भेद हैं नहीं ( अतः वह भी परमार्थ नहें हो सकता ) ॥२६॥
यदि परमात्मा और जीवात्माके संयोगको परमार्थ कहें तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या हैं, क्योंकी अन्य द्रव्यसे अन्य द्रव्याकी एकता कभी नहीं हो सकती* ॥२७॥
अतः हे राजन् निःसन्देह ये सब श्रेय ही हैं, ( परमार्थ नहीं ) अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेपसे सुनाता हूँ, श्रवण करो ॥२८॥
आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृतिसे परे हैं; वह जन्म-वृद्धि आदिसे रहित, सर्वव्यापी और अव्यय है ॥२९॥
हे राजन् ! वह परम ज्ञानमय है, असत नाम और जाति आदिसे उस सर्वव्यापकका संयोग न कभी हुआ, न है और न होगा ॥३०॥
'वह, अपने और अन्य प्राणियोंके शरीरमें विद्यमान रहते हुए भी, एक ही हैं' - इस प्रकारका जो विशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी हैं ॥३१॥
जिस प्रकार अभिन्न भावसे व्याप्त एक ही वायुके बाँसुरीके छिद्रोके भेदसे षड्ज आदि भेद होते हैं उसी प्रकार ( शरीरादि उपाधियोंके कारण ) एक ही परमात्माके ( देवतामनुष्यादि ) अनेक भेद प्रतीत होते हैं ॥३२॥
एकरूप आत्माके जो नाना भेद हैं वे बाह्य देहादिकी कर्मप्रवृत्तिके कारण ही हुए हैं । देवादि शरीरोंके भेदका निराकारण हो जानेपर वह नहीं रहता । उसकी स्थिति तो अविद्याके आवरणतक ही है ॥३३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
* अर्थात् यदि आत्मा परमात्मासे भिन्न है तब तो गौ और अश्वके समान उनकी एकता हो नहीं सकती और यदि बिम्ब-प्रतिबिम्बकी भाँति अभिन्न है तो उपाधिक निराकारके अतिरिक्त और उनका संयोग ही क्या होगा?