श्रीपराशरजे बोले -
जिस प्रकार जम्बूद्वीप क्षारसमुद्रसे घिरा हुआ है उसी प्रकार क्षारसमुद्रको घेरें हुए प्लक्षद्वीप स्थित है ॥१॥
जम्बूद्वीपका विस्तार एक लक्ष योजन है; और हे ब्रह्मन ! प्लक्षद्वीपका उससे दूना कहा जाता हैं ॥२॥
प्लक्शद्वीपके स्वामी मेधातिथिके सात पुत्र हुए । उनमें सबसे बड़ा शान्तहय था और उससे छोटा शिशिर ॥३॥
उनके अनन्तर क्रमशः सुखोदय, आनन्द, शिव और क्षेमक थे तथा सातवाँ ध्रुव था । ये सब प्लक्षद्वीपके अधीश्वर हुए ॥४॥
( उनके अपने-अपने अधिकृत वर्षोमें ) प्रथम शान्तहयवर्ष है तथा अन्य शिशिरवर्ष, सुखोदयवर्ष, आनन्दवर्ष, शिववर्ष, क्षेमकवर्ष और ध्रुववर्ष हैं ॥५॥
तथा उनकी मर्यादा निश्चित करनेवाले अन्य सात पर्तव हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! उनके नाम ये हैं, सुनो - ॥६॥
गोमेद, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और सातवाँ वैभ्राज ॥७॥
इन अति सुरम्य वर्ष-पर्वतों और वर्षोमें देवता और गन्धवोंके सहित सदा निष्पाप प्रजा निवास करती हैं ॥८॥
वहाँके निवासीगण पुण्यवान होते हैं और वे चिरकालातक जीवित रहकर मरते हैं; उनको किसी प्रकरकी अधिव्याधि नहीं होती, निरन्तर सुख ही रहता है ॥९॥
उन वर्षोंकी सात ही समुद्रगामिनी नदियाँ हैं । उनके नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ जिनके श्रवणमात्रसे वे पापोंको दूर कर देती हैं ॥१०॥
वहाँ अनुतत्पा, शिखी, विपाशी , त्रिदिवा, अक्लमा, अम्रुता और सुकृता - ये ही सात नदियाँ हैं ॥११॥
यह मैंने तुमसे प्रधान - प्रधान पर्वत और नदियोंका वर्णन किया हैं; वहाँ छोटे-छोटे पर्वत और नदियाँ तो और भी सहस्त्रों हैं । उस देशके हृष्ट-पृष्ट लोग सदा उन नदियोंका जल पान करते हैं ॥१२॥
हे द्विज ! उन लोगोंमें ह्नास अथवा वॄद्धि नहीं होती और न उन सात वर्षोमें युगकी ही कोई अवस्था है ॥१३॥
हे महामते ! हे ब्रह्मन् ! प्लक्षद्वीपसे लेकर शाकाद्वीपपर्यन्त छहों द्वीपोमें सदा त्रेतायुगके समान समय रहता हैं ॥१४॥
इन द्वीपोके मनुष्य सदा नीरोग रहकर पाँच हजार वर्षतक जीते हैं और इनमें वर्णाश्रम-विभागानुसार पाँचों धर्म ( अहिंसा , सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) वर्तमान रहते हैं ॥१५॥
वहाँ जो चार वर्ण है वह मैं तुमको सुनाता हूँ ॥१६॥
हे मुनिसत्तम ! उस द्वीपमें जो आर्यक, कुरर, विदिश्य और भावी नामक जातियाँ हैं; वे ही क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र हैं ॥१७॥
हे द्विजोत्तम ! उसीमें जम्बूवृक्षक ही परिमाणवाला एक प्लक्ष ( पाकर ) का वृक्ष है, जिसके नामसे उसकी संज्ञा प्लक्षद्वीप हुई है ॥१८॥
वहाँ आर्यकादि वर्णोद्वारा जगत्स्त्रष्टा, सर्वरूप, सर्वेश्वर भगवान् हरिका सोमरूपसे यजन किया जाता हैं ॥१९॥
प्लक्षद्वीप अपने ही बराबर परिमाणवाले वृत्ताकार इक्षुरसके समुद्रसे घिरा हुआ हैं ॥२०॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंनें तुमसे संक्षेपमें प्लक्षद्वीपका वर्णन किया, अब तुम शाल्मलद्वीपका विवरण सुनो ॥२१॥
शाल्मलद्वीपके स्वामी वीरवर वपुष्मान थे । उनके पुत्रोंके नाम सुनो - हे महामुने ! वे श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ थे । उनके सात वर्ष उन्हींके नामानुसार संज्ञावाले हैं ॥२२-२३॥
यह ( प्लक्षद्वीपको घेरनेवाला ) इक्षुरसका समुद्र अपनेसे दूने विस्तारवाले इस शाल्मलद्विपसे चारों ओरसे घिरा हुआ हैं ॥२४॥
वहाँ भी रत्नोंके उद्भवस्थानरूप सात पर्वत हैं जो उसके सातों वर्षोंके विभाजक हैं तथा सात नदियाँ हैं ॥२५॥
पर्वतोंमें पहला कुमुद, दुसरा उन्नत और तीसरा बलाहक है तथा चौथा द्रोणाचल हैं, जिसमें नाना प्रकारकी महौषधियाँ हैं ॥२६॥
पाँचवाँ कंक, छठा महिष और सातवाँ गिरिवर कुकुद्यान् है । अब नदियोंके नाम सुनो ॥२७॥
वे योनि, तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, मुक्ता, विमोचनी और निवृत्ति हैं तथा समर्णमात्रसे ही सारे पापोंको शान्त कर देनेवाली हैं ॥२८॥
श्वेत, हरित,वैद्युत, मानस जीमूत रोहित और अति शोभायमान सुप्रभ - ये उसके चारों वर्णोंसे युक्त सात वर्ष हैं ॥२९॥
हे महामुने ! शाल्मलद्वीपमें कपिल, अरुण , पति और कृष्ण ये चार वर्ण निवास करते हैं जो पृथक् - पृथक् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अहिं । ये यजनशील लोग सबके आत्मा, अव्यय और यज्ञके आश्रय वायुरूप विष्णुभगवान्का श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा यजन करते हैं ॥३०-३१॥
इस अत्यन्त मनोहर द्वीपमें देवगण सदा विराजमान रहते हैं । इसमें शाल्मल ( सेमल ) का एक महान वृक्ष हैं जो अपने नामसे ही अत्यन्त शान्तिदायक हैं ॥३२॥
यह द्वीप अपने समान ही विस्तारवाले एक मदिराके समुद्रसे सब ओरसे पूर्णतया घिरा हुआ हैं ॥३३॥
और यह सुरासमुद्र शाल्मलद्वीपसे दुने विस्तारवाले कुशद्वीपद्वारा सब ओंरसे परिवेष्टित हैं ॥३४॥
कुशद्वीपसे ( वहींके अधिपति ) ज्योतिष्मानके सात पुत्र थे, उनके नाम सुनो । वे उद्भिद, वेणुमान, व्रैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल थे ॥ उनके नामानुसार ही वहाँके वर्षोंके नाम पड़े ॥३५-३६॥
उसमें दैत्य और दानवोंके सहित मनुष्य तथा देव, गन्धर्व, यक्ष, और किन्नर आदि निवास करते हैं ॥३७॥
हे महामुने ! वहाँ भी अपने - अपने कर्मोंमें तत्पर दमी, शुष्मी, स्त्रेह और मन्देहनामक चार ही वर्ण हैं, जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हैं ॥३८-३९॥
अपने प्राब्धक्षयके निमित्त शास्त्रनुकूल कर्म करते हुए वहाँ कुशद्वीपमें ही वे ब्रह्मरूप जनार्दनकी उपासनाद्वारा अपने प्रारब्धफलके देनेवाले अत्युग अहंकारका क्षय करते हैं ॥४०॥
हे महामुने ! उस द्वीपमें विद्रुम, हेमशैल, द्युतिमान, पुष्पवान, कुशेशय , हरि और सातवाँ मन्दराचल, ये सात वर्षपर्यत हैं । तथा उसमें सात ही नदियाँ हैं, उनके नाम क्रमशः सुनो ॥४१-४२॥
वे धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मति, विद्युत अम्भा और मही हैं । ये सम्पूर्ण पापोंको हरनेवाली हैं ॥४३॥
वहाँ और भी सहस्त्रों छोटी-छोटी नदियाँ और पर्वत हैं । कुशद्वीपमें एक कुशका झाड़ हैं । उसीके कारण इसका यह नाम पड़ा हैं ॥४४॥
यह द्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले घीके समुद्रसे घिरा हुआ है और वह घृत समुद्र क्रोत्र्चद्वीपसे परिवेष्टित हैं ॥४५॥
हे महाभाग ! अब इसके अगले क्रोच्त्रनामक महाद्वीपके विषयमें सुनो, जिसका विस्तार कुशद्वीपसे दुना हैं ॥४६॥
क्रोत्र्चद्वीपमें महात्मा द्युतिमानके जो पुत्र थे; उनके नामानुसार हे महाराज द्युतिमानके उनके वर्षोंके नाम रखे ॥४७॥
हे मुने ! उनके कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि - ये सात पुत्र थे ॥४८॥
वहाँ भी देवता और गन्धवोंसे सेवित अति मनोहर सात वर्षपर्वत है । हे महाबुद्धे ! उनके नाम सुनो - ॥४९॥
उनमें पहाला क्रोच्त्र दुसरा वामन, तिसरा अन्धकारका, चौथा घोड़ीके मुखके समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत, पाँचवाँ दिवावृत् छठा पुण्डरेकवान् और सातवाँ महापर्वत दुन्दुभि हैं । वे द्वीप परस्पर एक दुसेरेसे दुणे हैं; और उन्हींकी भाँति उनके पर्वत भी ( उत्तरोत्तर द्विगुण ) हैं ॥५०-५१॥
इन सरम्य वर्षों और पर्वतश्रेष्ठोंमें देवगणोंके सहित सम्पूर्ण प्रजा निर्भय होकर रहती हैं ॥५२॥
हे महामुने ! वहाँके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र क्रमसे पुष्कर, पुष्कल, धन्य और तिष्य कहलाते हैं ॥५३॥
हे मैत्रेय ! वहाँ जिनका जल पान किया जाता है उन नदियोंका विवरण सुनो ! उस द्वीपमें सात प्रधान तथा अन्य सैकड़ों क्षुद्र नदियाँ हैं ॥५४॥
वे सात वर्षनदियाँ गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या , रात्री, मनोजवा, क्षान्ति, और पुण्डरीका हैं ॥५५॥
वहाँ भी रुद्ररूपी जनार्दन भगवान् विष्णुकी पुष्करादि वर्णोंद्वारा यज्ञादिसे पूजा की जाती हैं ॥५६॥
यह क्रोत्र्चद्वीप चारों ओरसे अपने तुल्य परिमाणवाले दधिमण्ड ( मट्ठे ) के समुद्रसे घिरा हुआ है ॥५७॥
और हे महामुने ! यह मट्ठेका समुद्र भी शाकद्वीपसे घिरा हुआ हैं, जो विस्तारमें क्रोत्र्चद्वीपसे दुना है ॥५८॥
शाकद्वीपके राजा महात्मा भव्यके भी सात ही पुत्र थे । उनको भी उन्होंने पृथक पृथक सात वर्ष दिये ॥५९॥
वे सात पुत्र जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक्र, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम थे । उन्हींके नामानुसार वहाँ क्रमशः सात वर्ष हैं और वहाँ भी वर्षका विभाग करनेवाले सात ही पर्वत हैं ॥६०-६१॥
हे द्विज ! वहाँ पहला पर्वत उदयाचल हैं और दुसरा जलाधार; तथा अन्य पर्वत रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय और अति सुरम्य गिरिश्रेष्ठ केसरी हैं ॥६२॥
वहाँ सिद्ध और गन्धवोंसे सेवित एक अति महान शाकवृक्ष हैं, जिसके वायुका स्पर्श करनेसे हृदयमें परम आह्लाद उप्तन्न होता हैं ॥६३॥
वहाँ चातुर्वर्ण्यसे युक्त अति पवित्र देश और समस्त पाप तथा भयको दूर करनेवाली सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती ये सात महापवित्र नदियाँ हैं ॥६४-६५॥
हे महामुने ! इनके सिवा उस द्वीपमें और भी सैकड़ों छोटो-छोटी नदियाँ और सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं ॥६६॥
स्वर्ग भोगके अनन्तर जिन्होंने पृथिवी तलपर आकर जलद आदि वर्षोंमें जन्म ग्रहन किया हैं वे लोग प्रसन्न होकर उनका जल पान करते हैं ॥६७॥
उन सातों वर्षोंमें धर्मका ह्यास पारस्परिक संघर्ष ( कलह ) अथवा मर्यादाका उल्लंघन कभी नहीं होता ॥६८॥
वहाँ मग, मागध, मानस और मन्दग ये चार वर्ण हैं । इनमें मग, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण हैं , मागध क्षत्रिय हैं, मानस वैश्य है तथा मन्दग शुद्र हैं ॥६९॥
हे मुने ! शाकद्वीपमें शास्त्रानुकुल कर्म करनेवाले पूर्वोक्त चारों वर्णोद्वारा संयत चित्तसे विधिपूर्वक सूर्यरूपधारी भगवान् विष्णुकी उपासना की विधिपूर्वक सुयरुफधारी भगवान् विष्णुकी उपासना की जाती हैं ॥७०॥
हे मैत्रेय ! वह शाकद्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले मण्डलाकार दुग्धके समुद्रसे घिरा हुआ है ॥७१॥
और हैं ब्रह्मन ! वह क्षीर- समुद्र शाकद्वीपसे दूने परिमाणाले पुष्करद्वीपसे परिवेष्टित हैं ॥७२॥
पुष्करद्वीपमें वहाँके अधिपति महाराज सवनके महावीर और धातकिनामत दो पुत्र हुए । अतः उन दोनोंके नामानुसार उसमें महावीर-खण्ड और धातकी - खण्डनामक दो वर्ष हैं ॥७३॥
हे महाभाग ! इसमें मानसोत्तरनामक एक ही वर्ष पर्वत कहा जाता हैं जो इसके मध्यमें वलयाकार स्थित है तथा पचास सहस्त्र योजन ऊँचा और इतना ही सब और गोलाकार फैला हुआ हैं ॥७४-७५॥
यह पर्वत पुष्करद्वीपरुप गोलेकी मानो बीचमेंसे विभक्त कर रहा हैं और इससे विभक्त होनेसे उसमें दो वर्ष हो गये है; उनमेंसे प्रत्येक वर्ष और वह पर्वत वलयाकार ही हैं ॥७६-७७॥
वहाँके मनुष्य रोग, शोक, और रागद्वेषादिसे रहित हुए दस सहस्त्र वर्षतक जीवित रहते हैं ॥७८॥
हे द्विज ! उनमें उत्तम अधम अथवा वध्यवधक आदि ( विरोधी ) भाव नहीं हैं और न उनमें ईर्ष्या, असूया, भय द्वेष और लोभादि दोष ही हैं ॥७९॥
महावीरवर्ष मानसोत्तर पर्वतके बाहरकी और है और धातकी-खण्ड भीतरकी ओर ! इनमें देव और दैत्य आदि निवास करते हैं ॥८०॥
दो खण्डोंसे युक्त उस पुष्करद्वीपसें सत्य और मिथ्याका व्यवहार नहीं है और न उसमें पर्वत तथा नदियाँ ही हैं ॥८१॥
वहाँके मनुष्य और देवगण समान वेष और समान रूपवाले होते हैं । हे मैत्रेय ! वर्णाश्रमाचारसे हीन, काम्य कर्मोंसे रहित तथा वेदयत्री, कृषि, दण्डनीति और शुश्रुषा आदिसे शून्य वे दोनों वर्ष तो मानो अत्युत्तम भौम ( पृथवीके ) स्वर्ग हैं ॥८२-८३॥
हे मुने ? उन महावीर और धातकी - खण्डनामक वर्षोंमें काल ( समय ) समस्त ऋतुओंमें सुखदायक और जरा तथा रोगादिसे रहित रहता हैं ॥८४॥
पुष्करद्वीपमें ब्रह्माजीका उत्तम निवासस्थान एक न्यग्रोध ( वट ) का वृक्ष है, जहाँ देवता और दानवादिसे पूजित श्रीब्रह्माजी विराजते हैं ॥८५॥
पुष्करद्वीप चारों ओरसे अपने ही समान विस्तारवाले मीठे पानीके समुद्रसे मण्डलके समान घिरा हुआ है ॥८६॥
इस प्रकार सातों द्वीप सात समुद्रोसें घिरे हुए हैं और वे द्वीप तथा ( उन्हें घेरनेवाले ) समुद्र परस्पर समान हैं, और उत्तरोत्तर दुने होते गये हैं ॥८७॥
सबी समुद्रोमें सदा समान जल रहता हैं उसमें कभी न्यूनता अथव अधिकत नहीं होती ॥८८॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! पात्रका जल जिस प्रकार अग्निका संयोग होंनेसे उबलने लगना है उसी प्रकार चन्द्रमाकी कलाओंके बढ़्नेसे समुद्रका जल भी बढ़ने लगता हैं ॥८९॥
शुक्ल और कृष्ण पक्षोंमें चन्द्रमाके उदय और अस्तसे न्यूनाधिक न होते हुए ही जल घटता और बढ़्ता है ॥९०॥
हे महामुने ! समुद्रके जलकी वृद्धि और क्षय पाँच सौ दस ( ५१०) अंगुलतक देखी जाती है ॥९१॥
हे विप्र ! पुष्करद्वीपमें सम्पूर्ण प्रजावरी सर्वदा ( बिना प्रयत्नके ) अपने - आप ही प्राप्त हुए षड्रस भोजनका आहार करते हैं ॥९२॥
स्वादुदक ( मीठे पानीके ) समुद्रके चारों ओर लोकनिवाससे शून्य और समस्त जीवोंसे रहित उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिखायी देती है ॥९३॥
वहाँ दस सहस्त्र योजन विस्तारवाला लोकालोक - पर्वत है । वह पर्वत ऊँचाईमें भी उतरे ही सहस्त्र योजन हैं ॥९४॥
उसके आगे उस पर्वतको सब ओरसे आवृतकर घोर अन्धकार छाया हुआ है, तथा वह अन्धकार चारों ओरसें ब्रह्माण्ड - कटाहसे आवृत हैं ॥९५॥
हे महामुने ! अण्डकटाहके सहित द्वीप, समुद्र, और पर्वतादियुक्त यह समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है ॥९६॥
हे मैत्रेय ! आकाशादि समस्त भूतोंसे अधिक गुणवाली यह पृथिवी सम्पुर्ण जगत्की आधारभूता और उसका पालन तथा उद्भव करनेवाली हैं ॥९७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशें चतुर्थोंऽध्यायः ॥४॥