श्रीमैत्रजी बोले -
हे भगवान् ! मैंने पृथिवी, समुद्र, नदियों और ग्रहगणकी स्थिति आदिंके विषयमें जो कुछ पूछा था सो सब आपने वर्णन कर दिया ॥१॥
उसके साथ ही आपने यह भी बतला किया कि किस प्रकर यह समस्त त्रिलोकी भगवान् विष्णुके ही आश्रित है और कैसे परमार्थस्वरूप ज्ञान ही सबमेजं प्रधान हैं ॥२॥
किन्तु भगवन् ! आपने पहल जिसकी चर्चा की थी वह राजा भरतका चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ, कृपा करके कहिये ॥३॥
कहते हैं, वे राजा भरत निरन्तर योगयुक्त होकर भगवान् वासुदेवमें चित्त लगाये शालग्रामक्षेत्रमें रहा करते थे ॥४॥
इस प्रकार पुण्यदेशके प्रभाव और हरिचिन्तनसे भी उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई, जिससे उन्हें फिर ब्राह्मणका जन्म लेना पड़ा ॥५॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण होकर भी उन महात्मा भरतजीने फिर जो कुछ किया वह सब आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥६॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! वे महाभाग पृथिवीपति भरतजी भगवान्में चित्त लगाये चिरकालतक शालग्रामक्षेत्रमें रहे ॥७॥
गुणवानोंमें श्रेष्ठ उन भरतजीने अहिंसा आदि सम्पूर्ण गुण और मनके संयममें परम उत्कर्ष लाभ किया ॥८॥
'हे यज्ञेश ! हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे माधव ! हे अनन्त ! हे केशव ! हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे हृषीकेश ! हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है' - इस प्रकार राजा भरत निरन्तर केवल भगन्नमोंका हि उच्चारण किया करते थे । हे मैत्रेय ! वे स्वप्रेमें भी इस पदके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहते थे और न कभी इसके अर्थके अतिरिक्त और कुछ चिन्तन हि करते थे ॥९-१०॥
वे निःसंग, योगयुक्त और तपस्वी राजा भगवान्की पूजाके लिये केवल समिध, पुष्प और कुशाका हि सत्र्चय करते थे । इसके अतिरिक्त वे और कर्म नहीं करते थे ॥११॥
एक दिन वे स्नानके लिये नदीपर गये और वहाँ स्नान करनेके अनन्तर उन्होंने स्नानोत्तर क्रियाएँ कीं ॥१२॥
हे ब्रह्मन ! इतनेहीमें उस नदी-तीरपर एक आसन्नप्रसवा ( शीघ्र ही बच्चा जननेवाली ) प्यासी हरिणी वनमेंसे जल पीनेके लिये आयी ॥१३॥
उस समय जब वह प्रायः जल पी चुकी थी, वहाँ सब प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली सिंहकी गम्भीर गर्जना सुनायी पड़ी ॥१४॥
तब वह अत्यन्त भयभीत हो अकस्मात उछलकर नदीके तटपर चढ़ गयी; अतः अत्यन्त उच्चस्थानपर चढ़नेके कारण उसका गर्भ नदीमें गिर गया ॥१५॥
नदीकी तरगंमलाओंमें पड़कर बहते हुए उस गर्भभ्रष्ट मृगबालकको राजा भरतने पकड़ लिया ॥१६॥
हे मैत्रेय ! गर्भपातके दोषसे तथा बहुत ऊँचे उछलनेके कारण वह हरिणी भी पछाड़ खकर गिर पड़ी और मर गयी ॥१७॥
उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी भरत उसके बच्चेको आपने आश्रमपर ले आये ॥१८॥
हे मुने ! फिर राजा भरत उस मृगछौनेका नित्यप्रति पालन - पोषण करने लगे और वह भी उसने पोषित होकर दिन- दिन बढ़्ने लगा ॥१९॥
वह बच्चा कभी तो उस आश्रमके आसपास ही घास चरता रहता और कभी वनमें दूरतक जाकर फिर सिंहके भयसे लौट आता ॥२०॥
प्रातःकाल वह बहुत दूर भी चला जाता, तो भी सायंकालको फिर आश्रममें ही लौट आता और भरतजीके आश्रमकी पर्णशालके आँगनमें पड़ रहता ॥२१॥
हे द्विज ! इस प्रकर कबेहे पास और कभी दूर रहनेवाले उस मृगमें ही राजाका चित्त सर्वदा आसक्त रहने लगा, वह अन्य विषयोंकी ओर जाता ही नहीं था ॥२२॥
जिन्होंने सम्पूर्ण राज - पाट और अपने पुत्र तथा बन्धु-बान्धवोंको छोड़ दिया था वे ही भरतजी उस हरिणके बच्चेपर अत्यन्त ममता करने लगे ॥२३॥
उसे बाहर जानेके अन्नतर यदि लौटनेमें देरी हो जाती तो वे मन-ही-मन सोचने लगते 'अहो ! उस बच्चेको आज किसी भेड़ियेने तो नहीं खा लिया ? किसी सिंहके पत्र्जेमें तो आज वह नहीं पड़ गया? ॥२४॥
देखो, उसके खुरोंके चिह्नोंसे यह पृथिवी कैसी चित्रित हो रही है ? मेरी ही प्रसन्नताके लिये उप्तन्न हुआ वह मृगछौना न जाने आज कहाँ रहा गया हैं ? ॥२५॥
क्या वह वनसे कुशलपूर्वक लौटकर अपने सींगोसे मेरी भुजाको खुजलाकर मुझे आनन्दित करेग ? ॥२६॥
देखो, उसके नवजात दाँतोसे कटी हुई शिखावाले ये कुश और काश सामाध्यायी ( शिखाहिन ) ब्रह्माचारियोंके समान कैसे सुशोभित हो रहे हैं ? ॥२७॥
देरके गये हुए उस बच्चेके निमित्त भरत मुनि इसी प्रकार चिन्ता करने लगते थ और जब वह उनके निकट आ जाता तो उसके प्रेमसे उनक मुख खिल जाता था ॥२८॥
इस प्रकार उसीमें आसक्तचित्त रहनेसे, राज्य, भोग, समृद्धि और स्वजनोंको त्याग देनेवाले भी राजा भरतकी समाधि भंग हो गयी ॥२९॥
उस राजाका स्थिर चित्त उस मृगके चत्र्चल होनेपर चत्र्चल हो जाता और दूर चले जानेपर दूर चला जाता ॥३०॥
कालान्तरमें राजा भरतने, उस मृगबालकद्वारा पुत्रके सजल नयनोंसे देखे जाते हुए पिताके समान अपने प्राणोंका त्याग किया ॥३१॥
हे मैत्रेय ! राजा भी प्राण छोड़ते समय स्नेहवश उस मृगको ही देखता रहा तथा उसीमें तन्मय रहनेसे उसने और कुछ भी चिन्तन नहीं किया ॥३२॥
तदनन्तर, उस समयकी सुदृढ़ भावनाके कारण वह जम्बूमार्ग ( कालत्र्चरपर्वत ) के घोर वनमें अपने पूर्वजन्मकी स्मृतिसे युक्त एक मृग हुआ ॥३३॥
हे द्विजोत्तम ! अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहनेके कारण वह संसारसे उपरत हो गया और अपनी मताको छोड़कर फिर शालग्रामक्षेत्रमें आकर ही रहने लगा ॥३४॥
वहाँ सूखे घास - फूँस और पत्तोंसे ही अपना शरीर - पोषण करता हुआ वह अपने मृगत्व- प्राप्तिके हेतुभूत कर्मोका निराकरण करने लगा ॥३५॥
तदनन्तर उस शरीरको छोड़कर उसने सदाचार सम्पन्न योगियोंके पवित्र कुलमें ब्राह्मण जन्म ग्रहण किया । उस देहमें भी उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा ॥३६॥
हे मैत्रेय ! वह सर्वविज्ञानसम्पन्न और समस्त शास्त्रोंके मर्मको जाननेवाला था तथा अपने आत्माको निरन्तर प्रकृतिसे परे देखता था ॥३७॥
हे महामुने ! आत्माज्ञानसम्पन्न होनेके कारण वह देवता आदि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्नरूपसे देखता था ॥३८॥
उपनयन-संस्कार हो जानेपर वह गुरुके पढ़ानेपर भी वेद - पाठ नहीं करता था तथा न किसी कर्मकी और ध्यान देता और न कोई अन्य शास्त्र ही पढ़ता था ॥३९॥
जब कोई उससे बहुत पूछताछ करता तो जडके समान कुछ असंस्कृत, असार एवं ग्रामीण वाक्योंसे मिले हुए वचन बोल देता ॥४०॥
निरन्तर मैला-कुचैला शरीर, मलिन वस्त्र और अपरिमार्जित दन्तयुक्त रहनेके कारण वह ब्राह्मण सदा अपने नगरनिवासियोंसे अपमानित होता रहता था ॥४१॥
हे मैत्रेय ! योगश्रीके लिये सबसे अधिक हानिकारक सम्मान ही है, जो योगी अन्य मनुष्योंसे अपमानित होता हैं वह शीघ्र ही सिद्धि लाभ कर लेता है ॥४२॥
अतः योगोको, सन्मार्गको दूषित न करते हुए ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे लोग अपमान करें और संगतिसे दूर रहें ॥४३॥
हिरण्यगर्भके इस सारयुक्त वचनको स्मरण रखते हुए वे महामति विप्रवत अपने - आपको लोगोंमें जड और उन्मत - सा ही प्रकट करते थे ॥४४॥
कुल्माष ( जौ आदि ) धान, शाक, जंगली फल अथवा कण आदि जो कुछ भक्ष्य मिल जाता उस थोड़ेसेको भी बहुत मानकर वे उसीको खा लेते और अपना कालक्षेप करते रहते ॥४५॥
फिर पिताके शान्ता हो जानेपर उनके भाई-बन्धु उनका सडे़-गले अन्नसे पोषण करते हुए उनसे खेती-बारीका कार्य करने लगे ॥४६॥
वे बैलके समान पुष्ट शरीरवाले और कर्मकें जडवत् निश्चेष्ट थे । अतः केवल आहारमात्रसे ही वे सब लोगोंके यन्त बन जाते थे । ( अर्थात सभी लोग उन्हें आहारमात्र देकर अपना - अपना काम निकल लिया करते थे ) ॥४७॥
उन्हें इस प्रकार संस्कारशुन्य और ब्राह्मणवेशके विरुद्ध आचरणवाला देख रात्रिके समय पृषतराजके सेवकोनें बलिकी विधिसे सुसज्जितकर कालीका बलिपशु बनाया । किन्तु इस प्रकार एक परमयोगीश्वरको बलिके लिये उपस्थित देख महाकालीने एक तीक्ष्ण खंग ले उस क्रूरकर्मा राजसेवकका गला काट डाला और अपने पार्षदोसहित उसका तीखा रुधिर पान किया ॥४८-५०॥
तदनन्तर, एक दिन महात्मा सौवीरराज कहीं जा रहे थे । उस समय उनके बेगारियोंने समझा कि यह भी बेगारके ही योग्य हैं ॥५१॥
राजाके सेवकोंने भी भस्मने छिपे हुए अग्निके समान उन महात्माका रंग-ढंग देखकर उन्हें बेगारके योग्य समझा ॥५२॥
हे द्विज ! उन सौवीरराजने मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछनेके लिये कि 'इस दुःखमय संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है' शिबिकापर चढ़कर इक्षुमती नदीके किनारे उन महर्षिके आश्रमपर जानेका विचार किया ॥५३-५४॥
तब राजसेवकके कहनेसे भरत मुनि भी उसकी पालकीको अन्य बेगारियोंके बीचमें लगकर वहन करते लगे ॥५५॥
इस प्रकार बेगारमें पकडे़ जाकर अपने पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाले, सम्पुर्ण विज्ञानके एकमात्र पात्र वे विप्रवर अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिबिकाको उठाकर चलने लगे ॥५६॥
वे बुद्धिमानोंसें श्रेष्ठ द्विजवर तो चार हाथ भूमि देखते हुए मन्द-गतिसे चलते थे, किन्तु उनके अन्य साथी जल्दी जल्दी चल रहे थे ॥५७॥
इस प्रकार शिबिकाकी विषय - गति देखकर राजाने कहा - 'अरे शिबिकावाहको ! यह क्या करते हो ? समान गतिसे चलो ' ॥५८॥
किन्तु फिर भी उसकी गति उसी प्रकार विषम देखकर राजाने फिर कहा - ' अरे क्या है ? इस प्रकार असमान भावसे क्यों चलते हो ? ' ॥५९॥
राजाके बार-बार ऐसे वचन सुनकर वे शिबिकावाहक ( भरतजीको दिखाकर ) कहने लगे - 'हममेंसे एक यही धीरे-धीरे चलता है' ॥६०॥
राजाने कहा - अरे, तुने तो अभी मेरी शिबिकाको थोड़ी ही दूर वहन किया है; क्या इतनेहीमें थक गया ? तु वैसे तो बहुत मोटा- मुष्टण्डा दिखायी देता हैं , फिर क्या तुझसे इतना भी श्रम नहीं सहा जाता ? ॥६१॥
ब्राह्मण बोले -
राजन् ! मैं न मोटा हूँ और न मैंने आपकी शिबिका ही उठा रखी है । मैं थका भी नहीं हूँ और न मुझे श्रम समय करनेकी ही आवश्यकता हैं ॥६२॥
राजा बोले -
अरे तू तो प्रत्यक्ष ही मोटा दिखायी दे रहा है, इस समय भी शिबिका तेरे कन्धेपर रखी हुई है और बोझा ढोनेसे देहधारियोंको श्रम होता ही हैं ॥६३॥
ब्राह्मण बोले - राजन् ! तुम्हें प्रत्यक्ष क्या दिखायी दे रहा है, मुझे पहले यही बताओ ! उसके ' बलवान' अथवा 'अबलवान् ' आदि विशेषणॊंकी बात तो पीछे करना ॥६४॥
'तुने मेरी शिबिकाका वहन किया है, उस समय भी वह तेरे ही कन्धोंपर रखी हुई हैं ' - तुम्हारा ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है, अच्छा मेरी बात सुनो - ॥६५॥
देखो, पृथिवीपर तो मेरे पैर रखे हैं, पैरोंके ऊपर जंघाएँ हैं और जंघाओंके ऊपर दोनों ऊरु तथा ऊरुओंके ऊपर उदर है ॥६६॥
उदरके ऊपर वक्षःस्थल, बाहु और कन्धोकी स्थिति है तथा कन्धोके ऊपर यह शिबिका रखी है । इसमें मेरे ऊपर कैसे बोझा रहा ? ॥६७॥
इस शिबिकामें जिसे तुम्हारा कहा जाता है वह शरीर रखा यहाँ है । वास्तवमें तो ' तुम वहाँ ( शिबिकामें ) हो और मैं यहाँ ( पृथिवीपर ) हूँ-ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है ॥३८॥
हे राजन् मैं, तुम और अन्य भी समस्त जीव पत्र्चभूतोंसे ही वहन किये जाते हैं । तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पड़्कर ही बहा जा रहा है ॥६९॥
हे पृथिवीपते ! ये सत्त्वादि गुण भी कर्मोखे वशीभुत हैं और समस्त जीवोंमें कर्म अविद्याजन्य ही हैं ॥७०॥
आत्मा तो शुद्ध, अक्षर, शान्त, निर्गुण, और प्रकृतिसे परे हैं तथा समस्त जीवोंमें वह एक ही ओतप्रोत है । अतः उसके बुद्धी अथवा क्षय कभी नहीं होते ॥७१॥
हे नृप ! जब उसीके उपचय ( वृद्धि) , अपचय ( क्षय ) ही नहीं होते तो तुमने यह बात किस युक्तिसे कही कि ' तु मोटा है ? ' ॥७२॥
यदि क्रमशः पॄथिवी, पाद, जंघा , कटि, ऊरू और उदरपर स्थित कन्धोंपर रखी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकता है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है ? ( क्योंकि ये पृथिवी आदि तो जैसे तुमसे पृथक हैं वैसे ही मुझे आत्मासे भी सर्वथा भिन्न हैं ) ॥७३॥
तथा इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी केवल शिबिका ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पर्वत, वृक्ष , गृह और पृथिवी आद्का भार उठा रखा हैं ॥७४॥
हे राजन ! जब प्रकृतिजन्य कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसका परिश्रम भी मुझको कैसे ह सकता है ? ॥७५॥
और जिस द्रव्यसे यह शिबिका बनी हुई है उसीसे यह आपका, मेरा अथवा और सबका शरीर भी बना हैं; जिसमें कि ममत्वका आरोप किया हुआ है ॥७६॥
श्रीपराशरजी बोले - ऐसा कह वे द्विजवर शिबिकाको धारण किये हुए ही मैने हो गये; और राजाने भी तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड़ लिये ॥७७॥
राजा बोला -
अहो द्विजराज ! इस शिबिकाको छोड़कर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये प्रभो ! कृपया बताइये इस जडवेषको धारण किये आप कौन है ? ॥७८॥
हे विद्वान ! आप कौन हैं ? किसे निमित्तसे यहाँ आपका आना हुआ ? तथा आनेका क्या कारण है? यह सब आप मुझसे कहिये ? मुझे आपके विषयमें सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा हो रही हैं ॥७९॥
ब्राह्मण बोले -
राजन ! सुनो, मैं अमुक हुँ - यह बात कही नहीं जा सकतीं और तुमने जो मेरे यहाँ आनेका कार्ण पूछा सो आना - जाना आदि सभी क्रियाएँ कर्मफलके उपभोगके लिये है हुआ करती है ॥८०॥
सुख - दुःखका भोग ही देह आदिकी प्राप्ति करानेवाला है तथा धर्माधर्मजन्य सुख दुःखोंको भोगनेके लिये ही जीव देहादि धारण करता है ॥८१॥
हे भूपाल ! समस्त जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंके कार्ण ये धर्म और अधर्म ही हैं फिर विशेषरूपसे मेरे आगरमनका कारण तुम क्यों पूछते हो ? ॥८२॥
राजा बोला -
अवश्य ही समस्त कार्योंमें धर्म और अधर्मं ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये ही एक देहसे दुसरे देहमें जाना होता हैं ॥८३॥
किन्तु आपने जो कहा कि ' मैं कौन हूँ - यह नहीं बताया जा सकता' इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ॥८४॥
हे ब्रह्मन ! ' जो है ( अर्थत जो आत्मा कर्त्ताभोक्तारूपसे प्रतीत होता हुआ सदा सत्तारूपसे वर्तमान हैं ) वहीं मैं हूँ' - ऐसा क्यों नहीं कहा जा सकता ? हे द्विज ! यह ' अह ' शब्द तो आत्मामें किसी प्रकारके दोषका कारण नहीं होता ॥८५॥
ब्राह्मण बोले -
हे राजन् ! तुमने जो कहा कि 'अहं' शब्दसे आत्मामें कोई दोष नहीं आता सो ठीक ही है, किन्तु अनात्मामें ही आत्मत्वका ज्ञान करानेवाला भ्रान्तिमूलक ' अहं' शब्द ही दोषका कारण है ॥८६॥
हे नृप ! अहं शब्दाका अच्चरण जिल्हा दन्त, ओष्ठ और तालुसे ही होता है, किन्तु ये सब उस शब्दके उच्चारणके कार्ण हैं, ' अहं ( मैं ) नहीं ॥८७॥
तो क्या जिह्नादि कारणोकें द्वारा यह वाणी हो स्वयं अपनेको ' अहं' कहती है ? नहीं ! अतः ऐसी स्थितिमें 'तू मोटा है ' ऐसा कहना भी उचित नहीं है ॥८८॥
सिर तथा कर चरणादिरूप यह शरिर भी आत्मासे पृथक् ही है । अतः हे राजन् ! इस 'अहं ' शब्दका मैं कहाँ प्रयोग करुँ ? ॥८९॥
तथा हे नृपश्रेष्ठ ! यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी ' यह मैं हूँ और यह अन्य है'- ऐसा कहा जा सकता था ॥९०॥
किन्तु, जब समस्त शरीरोंमें एक ही आत्मा विराजमान है तब ' आप कौन है ? मैं वह हूँ । ' ये सब वाक्य निष्फल ही हैं ॥९१॥
'तु राजा है, यह शिबिका है, - हे नृप ! शिबिकावाहक हैं तथा ये सब तेरी प्रजा है' - हे नृप ! इनमेंसे कोई भी बात परमार्थातः सत्य नहीं है ॥९२॥
हे राजन् ! वृक्षसे लकड़ी हुई और उससे तेरी यह शिबिका बनी; तो बता इसे लकडी़ कहा जाय या वृक्ष ? ॥९३॥
किन्तु ' महाराज वृक्षपर बैठे है' ऐसा कोई नहीं कहता और न कोई तुझे लकड़ीपर बैठा हुआ ही बताता हैं ! सब लोग शिबिकामें बैठा हुआ ही कहते हैं ॥९४॥
हे नृपश्रेष्ठ ! रचनाविशेषमें स्थित लकड़ियोंका समूह ही तो शिबिका है । यदि वह उससे कोई भिन्न वस्तु है तो काष्ठको अलग करके उसे ढूँढो़ ॥९५॥
इसी प्रकार छत्रकी शलाका ओंको अलग रखकर छत्रका विचार करो कि वह कहाँ रहता है । यही न्याय तुममें और मुझमें लागू होता है ( अर्थात मेरे और तुम्हारे शरीर भी पत्र्चभूतसे अतिरिक्ता और कोई वस्तु नहीं हैं ) ॥९६॥
पुरुष, स्त्री, गौ, अज ( बकरा ) अश्व, गज, पक्षी और वृक्ष आदि लैकिक संज्ञाओंका प्रयोग कर्महेतुक शरिरोंमें ही जानना चाहिये ॥९७॥
हे राजन् पुरुष ( जीव ) तो न देवता है, न मनुष्य है, न पशु है और न वृक्ष है । ये सबतो कर्मजन्य शरीरोंकी आकृतियोंके ही भेद हैं ॥९८॥
लोकमें धन, राजा, राजाके सैनिक तथा और भी जो-जो वस्तुएँ हैं, हे राजन् ! वे परमार्थतः सत्य नहीं हैं , केवल कल्पनामय ही है ॥९९॥
जिस वस्तुकी परिणामादिक कारण होनेवाली कोई संज्ञा कालान्तरमें भी नहीं होती, वही परमार्थवस्तु है । हे राजन् ! ऐसी वस्तु कौन - सी हैं ? ॥१००॥
( तु अपनेहीको देख - ) समस्त प्रजाके लिये तु राजा हूँ, पिताके लिये पुत्र है, शत्रुके लिये शत्रु है, पत्नीका पति है और पुत्रका पिता है । हे राजन् ! बतला, मैं तुझे क्या कहँ ? ॥१०१॥
हे महीपते ! तु क्या यह सिर है, अथवा ग्रीवा है या पेट अथवा पादादिमेंसे कोई है ? तथा ये सिर आदि भी ' तेरे' क्या हैं? ॥१०२॥
हे पृथिवीश्वर ! तु इन समस्त अवयवोंसे पृथक् हैं; अतः सावधान होकर विचार कि, मैं कौन हूँ ॥१०३॥
हे महाराज ! आत्मतत्त्व इस प्रकर व्यवस्थित है । उसे सबसे पृथक् करके ही बताया जा सकता है । तो फिर, मैं उसे ' अहं' शब्दसे कैसे बतला सकता हूँ ? ॥१०४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे त्रयोदशोध्यायः ॥१३॥