श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे ब्रह्मन ! अपने मुझसे स्वायम्भुवमनुके वंशका वर्णन किया । अब मैं आपके मुखारविन्दसे सम्पूर्ण पृथिवीमण्डलका विवरण सुनना चाहता हूँ ॥१॥
हे मुने ! जितने भी सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ और देवता आदिकी पुरियाँ हैं, उन सबका जितना जितना परिणाम है, जो आधार है, जो उपादान- कारण है और जैसा आकार है, वह सब आप यथावत् वर्णन कीजिये ॥२-३॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! सुनो, मैं इन सब बातोंका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ, इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ वर्षमें भी नहीं हो सकता ॥४॥
हे द्विज ! जम्बू, प्लक्ष शाल्मल, कुश, क्रोत्र्च, शाक और सातवाँ पुष्कर - ये सातों द्वीप चारों ओरसे खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जलके सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं ॥५-६॥
हे मैत्रेय ! जाम्बुद्वीप इन सबके मध्यमें स्थित है और उसके भी बीचों बीचमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत है ॥७॥
इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजना है और नीचेकी ओर यह सोलह हजर योजन पृथिवीमें घुसा हुआ है । इसका विस्तार ऊपरी भागमें बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे ( तलैटीमें ) केवल सोलह हजार योजन है । इस प्रकार यह पर्वत इस पृथिवीरूप कमलकी कर्णिका ( कोश ) के समान है ॥८-१०॥
इसके दक्षिणमें हिमवान, हेमकूट और निषध तथा, उत्तरमें नील, श्वेत और श्रृंगी नामक वर्षपर्वत है ( जो भिन्न - भिन्न वर्षोका विभाग करते हैं ) ॥११॥
उनमें बीचके दो पर्वत ( निषध और नील एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं, उनसे दुसरे दुसरे दस-दस हजार योजन कम है । ( अर्थात हेमकूट और श्वेत नब्बे-नब्बे हजार योजन तथा हिमवान् और श्रृंगी अस्सी-अस्सी सहस्त्र योजनतक फैल हुए है । ) वे सभी दो-दो सहस्त्र योजन ऊँचे और इतने ही चौडे़ है ॥१२॥
हे द्विज ! मेरुपर्वतके दक्षिणकी और पहला भारतवर्ष है तथा दुसरा किम्पपुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष है ॥१३॥
उत्तरकी और प्रथम रम्यक, फिर हिरण्मय और तदनन्तर उत्तरकुरुवर्ष है जो ( द्वीपमण्डलकी सीमापर होनेके कारण ) भारतवर्षके समान ( धनुषाकार ) है ॥१४॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! इनमेंसे प्रत्येकका विस्तार नौ-नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीचमें इलावृतवर्ष है जिसमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत खड़ा हुआ है ॥१५॥
हे महाभाग ! यह इलावृतवर्ष सुमेरुके चारों ओर नौ हजार योजनतक फैला हुआ है । इसके चारों और चार पर्वत है ॥१६॥
ये चारों पर्वत मानो सुमेरुको धारण करनेके लिये ईश्वरकृत कीलियाँ हैं ( क्योंकि इनके बिना ऊपरेसे विस्तृत और मूलमें संकुचित होनेके कारण सुमुरुके गिरनेकी सम्भावना है ) । इनमेंसे मन्दराचल पूर्वमें , गन्धमादन दक्षिणमें, विपुल पश्चिममें और सुपार्श्च उत्तरमें है । ये सभी दस-दस हजार योजन ऊँच हैं ॥१७-१८॥
इनपर पर्वतोंकी ध्वजा ओंके समान क्रमशः ग्यारह-ग्यारह सौ योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बु, पीपल और वटके वृक्ष हैं ॥१९॥
हे महामुने ! इनमें जम्बू ( जामुन ) वृक्ष जम्बुद्वीपके नामक कारण है । उसके फल महान् गजराजके समान बड़े होते हैं । जब वे पर्वतपर गिरते हैं तो फटकर सब और फैल जाते हैं ॥२०॥
उनके रससे निकली जम्बू नामकी प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती है, जिसका जल वहाँके रहनेवाले पीते हैं ॥२१॥
उसका पान करनेसे वहाँके शुद्धचित्त लोगोंको पसीना, दुर्गन्ध, बुढा़पा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता ॥२२॥
उसके किनारेकी मृत्तिका उस रससे मिलकर मन्द-मन्द वायुसे सूखनेपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण हो जाती है, जो सिद्ध पुरुषोंका भूषण है ॥२३॥
मेरुके पूर्वमें भद्राश्ववर्ष और पश्चिममें केतुमालवर्ष है तथा हे मुनिश्रेष्ठ ! इन दोनोंके बीचमें इलावृतवर्ष है ॥२४॥
इसी प्रकार उसके पूवकी और चैत्ररथ, दक्षिणकी और गन्धमादन, पश्चिमकी और वैभ्राज और उत्तरकी ओर नन्दन नामक वन है ॥२५॥
तथा सर्वदा देवताओंसे सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस - ये चार सरोवर हैं ॥२६॥
हे मैत्रेय ! शीताम्भ, कुमुन्द, कुररी माल्यवान तथा वैकंक आदि पर्वत ( भूपद्यकी कर्णिकारूप ) मेरुके पूर्वदिशाके केसराचल हैं ॥२७॥
त्रिकूट, शिशिर, पतंग , रुचक और निषाद आदि केसराचल उसके दक्षिण ओर हैं ॥२८॥
शिखिवासा, वैडूर्य, कपिल, गन्धमादन और जारुधि आदि उसके पश्चिमीय केसरपर्वत हैं ॥२९॥
तथा मेरुके अति समीपस्थ इलावृतवर्षमें और जठरादि देशोंमें स्थित शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग तथा कालत्र्ज आदि पर्वत उत्तरदिशाके केसराचल हैं ॥३०॥
हे मैत्रेय ! मेरुके ऊपर अन्तरिक्षमें चौदह सहस्त्र योजनाके विस्तारवाली ब्रह्माजीकी ब्रहाजीकी महापुरी ( ब्रह्मपुरी ) है ॥३१॥
उसके सब ओर दिशा एवं विदिशाओंमें इन्द्रादि लोकपालोंके आठ अति रमणीक और विख्यात नगर हैं ॥३२॥
विष्णुपादोद्भवा श्रीगंगाजी चन्द्रमण्डलको चारों ओरसे आप्लवित कर स्वर्गलोकसे ब्रह्मापुरीमें गिरती हैं ॥३३॥
वहाँ गिरनेपर वे चारों दिशाओंमें क्रमसे सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामसे चार भागोंमें विभक्त हो जाती हैं ॥३४॥
उनमेंसे सीता पूर्वकी ओर आकाशमार्गसे एक पर्वतसे दुसरे पर्वतपर जाती हुई अन्तमें पूर्वस्थित भद्राश्ववर्षको पारकर समुद्रमें मिल जाती हैं ॥३५॥
इसी प्रकार, हे महामुने ! अलकनन्दा दक्षिण दिशाकी ओर भारतवर्षमें आती है और सात भागोंमें विभक्त होकर समुद्रसे मिल जाती हैं ॥३६॥
चक्षु पश्चिमदिशाके समस्त पर्वतोंको पारकर केतुमाल नामक वर्षमें बहती हुई अन्तमें सागरमें जा गिरती हैं ॥३७॥
तथा हे महामुने ! भद्रा उत्तरके पर्वतों और उत्तरकुरुवर्षको पार करती हुई उत्तरीया समुद्रमें मिल जाती है ॥३८॥
माल्यवान और गन्धमादनपर्वत उत्तर तथा दक्षिणकी ओर नीलाचल और निषधपर्वततक फैले हुए हैं । उन दोनोंके बीचमें कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है ॥३९॥
हे मैत्रेय ! मर्यादापर्वतोंके बहिर्भागमें स्थित भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्मके पत्तोके समान है ॥४०॥
जठर और देवकूट ये दोनों मर्यादपर्वत हैं जो उत्तर और दक्षिणकी ओर नील तथा निषधपर्वततक फैले हुए हैं ॥४१॥
पूर्व और पश्चिमकी ओर फैले हुए गन्धमादन और कैलास - ये दो पर्वत जिनका विस्तार अस्सी योजन है, समुद्रके भीतर स्थित हैं ॥४२॥
पूर्वके समान मेरुकी पश्चिम ओर भी निषध और पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत स्थित हैं ॥४३॥
उत्तरकी ओर त्रिश्रृंग और जारुधि नामक वर्षपर्वत हैं । ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी और समुद्रके गर्भमें स्थित हैं ॥४४॥
इस प्रकार, हे मुनिवर ! तुमसे जठर आदि मर्यादापर्वतोंका वर्णन किया, जिनमेंसे दो-दो मेरूकी चारों दिशाओंमें स्थित हैं ॥४५॥
हे मुने ! मेरुके चारों और स्थित जिन शीतान्त आदि केसरपर्वतोंके विषयमें तुमए कहा था, उनके बीचमें सिद्ध चरणादिसे सेवित अति सुन्दर कन्दराएँ हैं ॥४६॥
हे मुनिसत्तम ! उनमें सुरम्य नगर तथा उपवन हैं और लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि एवं सूर्य आदि देवताओंके अत्यन्त सुन्दर मन्दिर हैं जो सदा किन्नरश्रेष्ठोंसे सेवित रहते हैं ॥४७॥
उन सुन्दर पर्वत द्रोणियोंमें गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानवादि अहर्निश क्रिडा करते हैं ॥४८॥
हे मुने ! ये सम्पूर्ण स्थान भौम ( पृथिवीके ) स्वर्ग कहलाते हैं; ये धार्मिक पुरुषोंके निवासस्थान हैं । पापकर्मा पुरुष इनमें सौ जन्ममें भी नहीं जा सकते ॥४९॥
हे द्विज ! श्रीविष्णुभगवान भद्राश्ववर्षमें हयग्रीवरुपसे, केतुमालवर्षमें वराहरूपसे और भारतवर्षमें कूर्मरूपसे रहते हैं ॥५०॥
तथा वे भक्तप्रतिपालक श्रीगोविन्द कुरुवर्षमें मत्स्यरूपसे रहते हैं । इस प्रकार वे सर्वमय सर्वगामी हरि विश्वरूपसे सर्वत्र ही रहते हैं । हे मैत्रेय ! वे सबके आधारभूत और सर्वात्मक हैं ॥५१-५२॥
हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष हैं उनमें शोक , श्रम, उद्वेग और क्षुधाका भय आदि कुछ भी नहीं है ॥५३॥
वहाँकी प्रजा स्वस्थ, आतंकहीन और समस्त दुःखोंसे रहित है तथा वहाँके लोग दस बारह हजार वर्षकी स्थिर आयुवाले होते हैं ॥५४॥
उनमें वर्षा कभी नहीं होती, केवल पार्थिव जल ही है और न उन स्थानोंमें कृतत्रेतादि युगोंकी ही कल्पना है ॥५५॥
हे द्विजोत्तम ! इन सभी वर्षोमें सात- सात कुलपर्वत हैं और उनसे निकली हुई सैकड़ो नदियाँ हैं ॥५६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥