श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - अध्याय १६

श्रीमद्‍भगवद्‍गीताका मनन-विचार धर्मकी दृष्टीसे, सृष्टी रचनाकी दृष्टीसे, साहित्यकी दृष्टीसे, या भाव भक्तिसे किया जाय तो जीवन सफल ही सफल है।


श्रीभगवान् बोले -

भयका सर्वथा अभाव, अन्त:करणकी पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञानके लिये ध्यानयोगमें निरन्तरदृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियोंका दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनोंकी पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मोंका आचरण एवं वेद- शास्त्रोंका पठन - पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन, स्वधर्मपालनके लिये कष्ट सहन और शरीर तथा इन्द्रियोंके सहित अन्त:करणकी सरलता ॥१॥

मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना, कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग,अन्त:करणकी उपरति अर्थात् चित्तकी चंचलताका अभाव, किसीकी भी निन्दादि

न करना, सब भूतप्राणियोंमें हेतुरहित दया, इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी उनमें आसक्तिका न होना, कोमलता, लोक और शास्त्रसे विरुध्द आचरणमें लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओंका अभाव ॥२॥

तेज, क्षमा, धैर्य, बाहरकी शुध्दि एवं किसीमें भी शत्रुभावका न होना और अपनेमें पूज्यताके अभिमानका अभाव - ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदाको लेकर उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण हैं ॥३॥

हे पार्थ ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी - ये सब आसुरी - सम्पदाको लेकर उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण हैं ॥४॥

दैवी - सम्पदा मुक्तिके लिये और आसुरी - सम्पदा बाँधनेके लिये मानी गयी है । इसलिये हे अर्जुन ! तू शोक मत कर, क्योंकी तू दैवी - सम्पदाको लेकर उत्पन्न हुआ है ॥५॥

हे अर्जुन ! इस लोकमें भूतोंकी सृष्टि यानीमनुष्यसमुदायदो ही प्रकारका है, एक तो दैवी प्रकृतिवाला और दूसरा आसुरी प्रकृतिवाला ॥५॥

उनमेंसे दैवी प्रकृतिवाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्यसमुदायको भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन ॥६॥

आसुर - स्वभाववाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति - इन दोनोंको ही नहीं जानते । इसलिये उनमें न तो बाहर - भीतरकी शुध्दि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्यभाषण ही है ॥७॥

वे आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहा करतेहैं जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वरके, अपने- आप केवल स्त्री - पुरुषके संयोगसे उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका है। इसके सिवा और क्या है ? ॥८॥

इस मिथ्या ज्ञानको अवलम्बन करके - जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुध्दि मन्द है, वे सबका अपकार करनेवाले क्रुरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाशके लिये ही समर्थ होते हैं ॥९॥

वे दम्भ, मान और मदसे युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेकर, अज्ञानसे मिथ्या सिध्दान्तोंको ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणोंको धारण करके संसारमें विचरते है ॥१०॥

तथा वे मृत्युपर्यन्त रहनेवाली असंख्य चिन्ताओंका आश्रय लेनेवाले, विषयभोगोंके भोगनेंमें तत्पर रहनेवाले और ‘इतन ही सुख है’ इस प्रकार माननेवाले होते हैं ॥११॥

वे आशाकी सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए मनुष्य काम - क्रोधके परायण होकर विषयभोगोंके लिये अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थोंका संग्रह करनेकी चेष्टा करते हैं ॥१२॥

वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथको प्राप्त कर लूँगा । मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायगा ॥१३॥

वह शुत्र मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओंको भी मैं मार डालूँगा । ईश्वर हूँ, ऐश्वर्यको भोगनेवाला हूँ । मैं सब सिध्दियोंसे युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ ॥१४॥

मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्बवाला हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करुँगा, दान दूँगा और आमोद - प्रमोद करुँगा ॥१५॥

इस प्रकार अज्ञानसे मोहित रहनेवाला तथा अनेक प्रकारसे भ्रमित चित्तवाले मोहरुप जालसे समावृत और विषयभोगोंमें अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरकमें गिरते हैं ॥१६॥

वे अपने - आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले घमण्डी पुरुष धन और मानके मदसे युक्त होकर केवल नाममात्रके यज्ञोंद्वारा पाखण्डसे शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं ॥१७॥

वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादिके परायण और दूसरोंकी निन्दा करनेवाले पुरुष अपने और दूसरोंके शरीरमें स्थित मुझ अन्तर्यामीसे द्वेष करनेवाले होते हैं ॥१८॥

उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमोंको मैं संसारमें बार - बार आसुरी योनियोंमें ही डालता हूँ ॥१९॥

हे अर्जुन ! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म - जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं ॥२०॥

काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले अर्थात् उसको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं । अतएव इन तीनोको त्याग देना चाहिये ॥२१॥

हे अर्जुन ! इन तीनों नरकके द्वारोंसे मुक्त पुरुष अपने कल्याणका आचरण करता है, इससे वह परमगतिको जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है ॥२२॥

जो पुरुष शास्त्रविधिको त्यागकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिध्दिको प्राप्त होता है, न परमगतिको और न सुखको ही ॥२३॥

इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ॥२४॥

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Last Updated : January 22, 2014

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