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चान्द्रायणव्रत
( मनु - वसिष्ठ - याज्ञवल्क्यादि स्मृति ) - यह व्रत चन्द्रकलाकी ह्लास - वृद्धिके अनुसार भक्ष्य - भोज्यकी ग्रास - संख्याको घटा - बढ़ाकर किया जाता है । जिस प्रकार कृष्णप्रतिपदासे चन्द्रमा एक - एक कलासे हीन होकर अमावस्याको पूर्णरुपसे क्षीण हो जाता है और शुक्ल प्रतिपदासे एक - एक कलाकी वृद्धि होकर पूर्णिमाको पुनः वह पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार चान्द्रायणव्रतमें १ कृष्णप्रतिपदासे एक - एक ग्रास घटाकर अमावस्याको लङ्घन ( उपवास ) किया जाता है और शुक्लप्रतिपदासे एक - एक ग्रास बढ़ाकर पूर्णिमाको पूर्ण किया जाता है । इस प्रकार एक मासके तीस दिनोंमें एक चान्द्रायणव्रत सम्पन्न होता है । चान्द्रायणका अर्थ है ' चन्द्रके अयन ( ह्लास - वृद्धि ) के समान आहारको घटा - बढ़ाकर किया जानेवाला व्रत ।' उपर्युक्त नियमसे करनेमें इसकी ह्लास - वृद्धिके सम्पूर्ण ग्रास दो सौ चालीस होते हैं और इसी व्रतके जो अन्यान्य विधान बतलाये हैं, उन सबमें भी दो सौ चालीस ही ग्रास होते हैं । परंतु ' यवमध्यतनु ' और ' पिपीलिकातनु ' में ( शुक्लपूर्णिमा और कृष्णप्रतिपदाके १५ - १५ ग्रास होनेके बदले केवल प्रतिपदाके १४ ग्रास होनेसे ) २२५ ही ग्रास होते हैं । इस विषयमें वसिष्ठादिका यही मत है कि पूर्णिमाको १५ और प्रतिपदाको १४ ग्रास भक्षण करे तथा कृष्णपक्षकी समाप्तिमें अमावस्याको उपवास करे । यथा ( १ ) ' यवमध्यतनु ' चान्द्रायणमें शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे प्रारम्भ करके प्रतिदिन एक - एक ग्रास बढ़ाता हुआ पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भक्षण करे और फिर कृष्णपक्षकी प्रतिपदाको चौदह ग्रास भक्षण करके प्रतिदिन एक - एक ग्रास घटाता हुआ कृष्णचतुर्दशीको एक ग्रासका भोजन और अमावस्याको उपवास करे । तथा ( २ ) ' पिपीलिकातनु ' में कृष्णप्रतिपदाको १ चौदह ग्राससे आरम्भ करके प्रतिदिन एक - एक ग्रास घटाता हुआ कृष्णचतुर्दशीको एक ग्रासका भोजन और अमावस्याको उपवास करे तथा शुक्लप्रतिपदासे एक - एक ग्रास बढ़ाता हुआ पूर्णिमाको पंद्रह ग्रास भक्षण करके पूर्ण करे । इस भाँति दोनों प्रकारका चान्द्रायण सम्पन्न होता है ।
व्रतारम्भके विषयमें गौतम ऋषिने यह विशेष बतलाया है कि प्रायश्चित्तके निमित्तसे चान्द्रयणव्रत करना हो तो पहले दिन व्रत रखकर मुण्डन १ कराये और शुद्ध स्त्रान करके दूसरे दिन प्रातः स्त्रानादि नित्यकर्म करे । फिर देवपूजा, पितृपूजा और ' यद्देवा देवहेडनं०' आदि चार मन्त्नोंसे हवन करके ' यवमध्य ' में शुक्लप्रतिपदाका एक अथवा ' पिपीलिकातनु ' में कृष्णप्रतिपदाके चौदह ग्रासोंको ढाकके पत्ते आदिके पात्रमें रखकर
' ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं ॐ यशः ॐ श्रीः ॐ ऊर्क ॐ इट ॐ ओजः ॐ तेजः ॐ पुरुषः ॐ धर्मः ॐ शिवः -
इस मन्त्नोंसे अभिमन्त्नित करे और फिर जितने ग्रास भक्षण करने हों प्रत्येक ग्रासके साथ ' मनसे नमः स्वाहा ' कहकर भक्षण करे । इस प्रकार प्रतिदिन करता रहे । भक्ष्य पदार्थोंमे जो कुछ अन्न - पानादि लिये जायँ, वे हविष्य २ ( होम करनेयोग्य ) होने चाहिये । यथा - चरु ( हुतशेष खीर ), भैक्ष्य ( भिक्षा - प्राप्त, अन्न - पानादि ) , सक्तु ( भूने हुए जौका सूखा चून ) , कण ( चावल ) , यावक ( जौकी लप्सी ) , शाक ( मेथी, बथुआ, ककड़ी या पालक आदि ) , पय ( गोदुग्ध ) , दधि ( गायका दही ) , घृत ( गोघृत ) , मूल ( भूगर्भमें उत्पन्न होनेवाले भक्ष्य - कन्द, शकरकन्द आदि ), फल ( केला, नारंगी, अनार, सीताफल आदि ) और उदक ( शुद्ध जल ) - इनमें जो अभीष्ट हो, उसका भक्षण करे । ग्रास आँवलेके ३ फलके बराबर अथवा जो सुगमतापूर्वक मुँहमें आ सके, इतना होना चाहिये । मिताक्षराकारने लिखा है कि पत्तोंके छोटे दोनोंमें दुग्ध आदि लेकर उनसे ग्रास - संख्याकी पूर्ति की जाय तो उससे भी चान्द्रायण - व्रत सम्पन्न हो सकता है । अस्तु,
१. तिथिवृद्धया चरेत् पिण्डान् शुक्ले शिख्यण्डसम्मितान् ।
एकैकं ह्लासयेत् कृष्णे पिण्डं चान्द्रायणं चरेत् ॥ ( याज्ञवल्क्य )
एकैकं वर्द्धयेत् पिण्डं शुक्ले कृष्णे च ह्लासयेत् ।
इन्दुक्षये न भुञ्जीत एष चान्द्रायणे विधिः ॥ ( वसिष्ठ )
२. मासस्य कृष्णपक्षादौ ग्रासानद्याच्चतुर्दश ।
ग्रासापचयभोजी सन् यज्ञशेषं समापयेत् ॥
तथैव शुक्लपक्षादौ ग्रासं भुज्जीत चापरम् ॥ ( वसिष्ठ )
३. कक्षलोमशिखावर्जं श्मश्रुकेशादि वापयेत् ॥ ( वसिष्ठ )
४. चरुभैक्ष्यसक्तुयावकशाकपयोदधिघृतमूलफलोदकानि । ( गौतम )
५. तथाऽऽमलकसम्मितं यथासुखमुखं चेति । ( स्मृतिसंग्रह )
( ३७ ) यतिचान्द्रायण ( मनुस्मृति ) - प्रतिदिन मध्याह्नके समय पूर्वोक्त हविष्यान्नके आठ - आठ ग्रास भक्षण करनेसे तीन दिनमें ' यति - चान्द्रायण ' १ होता है ।
अष्टावष्टौ समश्र्नीयात् पिण्डान् मध्यंदिनस्थिते ।
नियतात्मा हविष्यस्य यतिचान्द्रायणं चरेत् ॥
( ३८ ) शिशुचान्द्रायण ( मनुस्मृति ) - चार ग्रास प्रातःकाल और चार ग्रास सूर्यास्तके बाद भक्षण करे । तीस दिन इस प्रकार करनेसे ' शिशु - चान्द्रायण ' २ होता है ।
चतुरः प्रातरश्र्नीयात् पिण्डान् विप्रः समाहितः ।
चतुरोऽस्तमिते सूर्ये शिशुचान्द्रायणं चरेत् ॥
( ३९ ) ऋषिचान्द्रायण ( मनुस्मृति ) - व्रतमें दृढ़ रहनेवाला कोई भी सत्पुरुष प्रतिदिन तीन ग्रास तीस दिनतक भक्षण करनेसे नब्बे ग्रासका ' ऋषिचान्द्रायण ' ३ कर सकता है ।
त्रींस्त्रीन् पिण्डान् समश्रीयान्नियतात्मा दृढव्रतः ।
हविष्यान्नस्य वै मासमृषिचान्द्रायणं स्मृतम् ॥
( ४० ) सोमायनव्रत - ( मार्कण्डेय ) - सात दिन गायके चारों स्तनोंका, सात दिन तीन स्तनोंका, सात दिन दो स्तनोंका और छः दिन एक स्तनका दूध पीये और तीन दिन उपवास करे तो सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाला ' सोमायनव्रत ' ४ सम्पन्न होता है । सोमायनव्रत धारोष्ण दुग्धपान करनेसे सम्पन्न होता है । यह चान्द्रायणके समान ही माना गया है ।
गोक्षीरं सप्तरात्रं तु पिबेत् स्तनचतुष्टयात् ।
स्तनत्रयात् सप्तरात्रं सप्तरात्रं स्तनद्वयात् ॥
स्तनेनैकेन षड्ररात्रं त्रिरात्रं वायुभुग्भवेत् ।
एतत् सोमायनं नाम व्रतं कल्मषनाशनम् ॥ ( मार्कण्डेय )
( ४१ ) विलोमसोमायन ( हारीतस्मृति ) - कृष्णपक्षकी चतुर्थोंसे प्रारम्भ करके तीन दिन चार स्तनोंका, तीन दिन तीन स्तनोंका, तीन दिन दो स्तनोंका और तीन दिन एक स्तनका दूध पीये । फिर तीन दिन एक स्तनका, तीन दिन दो स्तनोंका, तीन दिन तीन स्तनोंका और तीन दिन चार स्तनोंका दूध पीये । इस प्रकार कृष्णचतुर्थीसे शुक्लद्वादशीपर्यन्त चौबीस दिनमें इस व्रतको पूर्ण करे । यह अशक्त मनुष्योंके करनेका ' सोमायन ' है । इससे सोमलोककी प्राप्ति होती है । अस्तु,