मित्रभेद - कथा ८

पंचतंत्र मतलब उच्चस्तरीय तात्पर्य कथा संग्रह।


एक जङगल में मदोत्कट नाम का शेर रहता था । उसके नौकर-चाकरों में कौवा, गीदड़, बाघ, चीता आदि अनेक पशु

थे । एक दिन वन में घूमते-घूमते एक ऊँट वहाम आ गया । शेर ने ऊँट को देखकर अपने नौकरों से पूछा---"यह कौनसा पशु है ? जङगली है या ग्राम्य ?"

कौवे ने शेर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा----"स्वामी ! यह पशु ग्राम्य है और आपका भोज्य है । आप इसे खाकर भूख मिटा सकते हैं ।"

शेर ने कहा----"नहीं, यह हमारा अतिथि है, घर आये को मारना उचित नहीं । शत्रु भी अगर घर आये तो उसे नहीं मारना चाहिये । फिर, यह तो हम पर विश्वास करके हमारे घर आया है । इसे मारना पाप है । इसे अभय दान देकर मेरे पास लाओ । मैं इससे वन में आने का प्रयोजन पूछूँगा ।"

शेर की आज्ञा सुनकर अन्य पशु ऊँट को ---जिसका नाम ’क्रथनक’ था, शेर के दरबार में लाये । ऊँट ने अपनी दुःखभरी कहानी सुनाते हुए बतलाया कि वह अपने साथियों से बिछुड़ कर जङगल में अकेला रह गया है । शेर ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा---"अब तुझे ग्राम में जाकर भार ढोने की कोई आवश्यकता नहीं है । जङगल में रहकर हरी-हरी घास से सानन्द पेट भरो और स्वतन्त्रतापूर्वक खेलो-कूदो ।"

शेर का आश्वासन मिलने के बाद ऊँट उस जंगल में आनन्द से रहने लगा ।

कुछ दिन बाद उस वन में एक मतवाला हाथी आ गया । मतवाले हाथी से अपने अनुचर पशुओं की रक्षा करने के लिए शेर को हाथी से युद्ध करना पड़ा । युद्ध में जीत तो शेर की ही हुई, किन्तु हाथी ने भी जब एक बार शेर को सूंड में लपेट कर घुमाया तो उसके अस्थि-पिंजर हिल गये । हाथी का एक दांत भी शेर की पीठ में खुभ गया था । इस युद्ध के बाद शेर बहुत घायल हो गया था, और नए शिकार के योग्य नहीं रहा था । शिकार के अभाव में उसे बहुत दिन से भोजन नहीं मिल था । उसके अनुचर भी, जो शेर के अवशिष्ट भोजन से ही पेट पालते थे, कई दिनों से भूखे थे ।

एक दिन उन सब को बुलाकर शेर ने कहा---"मित्रो ! मैं बहुत घायल हो गया हूँ । फिर भी यदि कोई शिकार तुम मेरे पास तक ले आओ, तो मैं उसको मारकर तुम्हारे पेट भरने योग्य मांस अवश्य तुम्हें दे दूंगा ।"

शेर की बात सुनकर चारों अनुचर ऐसे शिकार की खोज में लग गये । किन्तु कोई फल न निकला । तब कौवे और गीदड़ में मन्त्रणा हुई । गीदड़ बोला----"काकराज ! अब इधर-उधर भटकने का क्या लाभ ? क्यों न इस ऊँट ’क्रथनक’ को मार कर ही भूख मिटायें ?"

कौवा बोला---"तुम्हारी बात तो ठीक है, किन्तु स्वामी ने उसे अभय वचन दिया हुआ है ।"

गीदड़----"मैं ऐसा उपाय करुँगा, जिससे स्वामी उसे मारने को तैयार हो जायँ । आप यहीं रहें, मैं स्वयं जाकर स्वामी से निवेदन करता हूँ ।"

गीदड़ ने तब शेर के पास जाकर कहा---"स्वामी ! हमने सारा जङगल छान मारा है । किन्तु कोई भी पशु हाथ नहीं आया । अब तो हम सभी इतने भूखे-प्यासे हो गये हैं कि एक कदम आगे नहीं चला जाता । आपकी दशा भी ऐसी ही है । आज्ञा दें तो ’क्रथनक’ को ही मार कर उससे भूख शान्त की जाय ।"

गीदड़ की बात सुनकर शेर ने क्रोध से कहा ----"पापी ! आगे कभी यह बात मुख से निकाली तो उसी क्षण तेरे प्राण ले लूँगा । जानता नहीं कि उसे मैंने अभय वचन दिया है ?"

गीदड़----"स्वामी ! मैं आपको वचन-भंग के लिए नहीं कह रहा । आप उसका स्वयं वध न कीजिये, किन्तु यदि वही स्वयं आपकी सेवा में प्राणों की भेंट लेकर आए, तब तो उसके वध में कोई दोष नहीं है । यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो हम में से सभी आपकी सेवा में अपने शरीर की भेंट लेकर आपकी भूख शान्त करने के लिए आयेंगे । जो प्राण स्वामी के काम न आयें, उनका क्या उपयोग ? स्वामी के नष्ट होने पर अनुचर स्वयं नष्ट हो जाते हैं । स्वामी की रक्षा करना उनका धर्म है ।"

मदोत्कट ----"यदि तुम्हारा यही विश्‍वास है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं ।"

शेर से आश्‍वासन पाकर गीदड़ अपने अन्य अनुचर साथियों के पास आया और उन्हें लेकर फिर शेर के सामने उपस्थित हो गया । वे सब अपने शरीर के दान से स्वामी की भूख शान्त करने आए थे । गीदड़ उन्हें यह वचन देकर लाया था कि शेर शेष सब पशुओं को छोड़कर ऊँट को ही मारेगा ।

सब से पहले कौवे ने शेर के सामने जाकर कहा ----"स्वामी ! मुझे खाकर अपनी जान बचाइये, जिससे मुझे स्वर्ग मिले । स्वामी के लिए प्राण देने वाला स्वर्ग जाता है, वह अमर हो जाता है ।"

गीदड़ ने कौवे को कहा---"अरे कौवे, तू इतना छोटा है कि तेरे खाने से स्वामी की भूख बिल्कुल शान्त नहीं होगी । तेरे शरीर में माँस ही कितना है जो कोई खाएगा ? मैं अपना शरीर स्वामी को अर्पण करता हूँ ।"

गीदड़ ने जब अपना शरीर भेंट किया तो बाघ ने उसे हटाते हुए कहा ----"तू भी बहुत छोटा है । तेरे नख इतने बड़े और विषैले हैं कि जो खायगा उसे जहर चढ़ जायगा । इसलिए तू अभक्ष्य है । मैं अपने को स्वामी के अर्पण करुँगा । मुझे खाकर वे अपनी भूख शान्त करें ।"

उसे देखकर कथनक ने सोचा कि वह भी अपने शरीर को अर्पण कर दे । जिन्होंने ऐसा किया था उन में से किसी को भी शेर ने नहीं मारा था, इसलिए उसे भी मरने का डर नहीं रहा था । यही सोचकर कथनक ने भी आगे बढ़कर बाघ को एक ओर हटा दिया और अपने शरीर को शेर के अर्पण किया ।

तब शेर का इशारा पाकर गीदड़, चीता, बाघ आदि पशु ऊँट पर टूट पडे़ और उसका पेट फाड़ डाला । सब ने उसके माँस से अपनी भूख शान्त की ।

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संजीवक ने दमनक से कहा ---"तभी मैं कहता हूँ कि छल-कपट से भरे वचन सुन कर किसी को उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए और यह कि राजा के अनुचर जिसे मरवाना चाहें उसे किसी न किसी उपाय से मरवा ही देते हैं । निःसन्देह किसी नीच ने मेरे विरुद्ध राजा पिंगलक को उकसा दिया है । अब दमनक भाई ! मैं एक मित्र के नाते तुझ से पूछता हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए ?"
दमनक---"मैं तो समझता हूँ कि ऐसे स्वामी की सेवा का कोई लाभ नहीं है । अच्छा है कि तुम यहाँ से जाकर किसी दुसरे देश में घर बनाओ । ऐसी उल्टी राह पर चलने वाले स्वामि का परित्याग करना ही अच्छा है ।"

संजीवक---"दूर जाकर भी अब छुटकारा नहीं है । बड़े लोगों से शत्रुता लेकर कोई कहीं शान्ति से नहीं बैठ सकता । अब तो युद्ध करना ही ठीक जचता है । युद्ध में एक बार ही मौत मिलती है, किन्तु शत्रु से डर कर भागने वाला तो प्रतिक्षण चिन्तित रहता है । उस चिन्ता से एक बार की मृत्यु कहीं अच्छी है ।"

दमनक ने जब संजीवक को युद्ध के लिये तैयार देखा तो वह सोचने लगा, कहीं ऐसा न हो कि यह अपने पैने सींगों से स्वामी पिंगलक का पेट फाड़ दे । ऐसा हो गया तो महान् अनर्थ हो जायगा । इसलिये वह फिर संजीवक को देश छोड़ कर जाने की प्रेरणा करता हुआ बोला---"मित्र ! तुम्हारा कहना भी सच है । किन्तु, स्वामी और नौकर के युद्ध से क्या लाभ ? विपत्ती बलवान् हो तो क्रोध को पी जाना ही बुद्धिमत्ता है । बलवान् से लड़ना अच्छा नहीं । अन्यथा उसकी वही गति होती है जो समुद्र से लड़ने वाली टिटिहरी की हुई थी ।"

संजीवक ने पूछाअ----"कैसे ?"

दमनक ने तब मूर्ख टिटिहरी की यह कथा सुनाई ---

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Last Updated : February 20, 2008

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